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बचपन की होली

माघ बसंत पंचमी से ही हमारे यहां होली गाने और खेलने की परंपरा है।

बचपन की होली
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माघ बसंत पंचमी से ही हमारे यहां होली गाने और खेलने की परंपरा है। आज से होली के दिन तक जो कोई मेहमान गांव में आ जाता है, उसे लाल-पीला करके ही भेजा जाता है। गाली देनेवाला देता रहे, पर रंग डालनेवाले अपने काम से पीछे नहीं हटते हैं। खासकर गांव के दामाद और समधी को तो हरगिज नहीं छोड़ा जाते।
मेरा गांव छोटा ही था तब, यही कोई तेरह-चौदह घर। पर होली होती थी दो टोली में। एक टोली उत्तर की और दूसरी दक्षिण की। इसे उत्तर और दक्खिन टोली के नाम से जाना जाता था। दक्खिन टोली का नेतृत्व मेरे बाबा करते थेे। उत्तर टोली में कोई खास गायक नहीं होने के कारण कोई भी अगुवा हो जाता था।


होलिका दहन एक ही जगह होता था और वहीं से दो टोली फाग गाते हुए गांव में प्रवेश करती थी। होलिका दहन के बाद वहीं पर सबसे पहले बाबा गाते थे-''सुमिरो मन आदि भवानी.....।''
अथवा ''रघुबरजी से बैर करो ना......।
या ''अंजनी सूत मेरो मन भाये.....।''


ये सभी होली गीत संदेशपरक और प्रासंगिक लगते थे। ये फाग गाते-गाते होलिका की पांच परिक्रमा हो जाती थी। उसके बाद लोग गांव के तरफ शंकर स्थान की ओर चल देते थे। इस मार्ग में बाबा जो फाग गाते थे, वह था-''उठि मिली ला हो राम-भरत आवे...।'' शिव स्थान पहुंचते-पहुंचते यह गायन पूरा हो जाता था। वहां पर गाया जाता था-''शिव शंकर खेलत फाग, गउरा संग लिये।''


गांव की गलियों में भी कभी अश्लील गीत के राग सुनने को नहीं मिलते थे। सभी देव स्थान से गुजरने के बाद लोग कीचड़, गोबर आदि से जमकर होली खेलते थे। गांव में दो दल था, पर होली को लेकर कभी झगड़ा मुझे नहीं याद है। कोई बुरा नहीं मानता था। होली के दिन शाम को मेरे दरवाजे पर ही होली की बैठकी होती थी। शाम को ही दुवार पर पुआल बिछाकर उस पर दरी डाल दी जाती थी। उधर कंडील में दही-गुड का शरबत बनाया जाता, जिसमें सौंफ भी पीसकर डाली जाती थी।

शरबत पीने का भी एक आदर्श रीति थी। जो सबसे बड़ा बुजुर्ग होता उसे पहले पिलाया जाता था। उसके बाद उसी वरिष्ठता क्रम में सभी लोग पीते थे। बच्चों की बारी सबसे पीछे आती थी। सबसे पहले मेरे परदादा और उनके बाद रामचेला बाबा शरबत पीते थे। रामचेला बाबा इलाके के नामी पहलवान थे। उनकी बात सब लोग मानते थे। यदि वे कह दें ही शरबत बहुत मीठा है, तो तुरंत उसमें पानी मिलाया जाता। कम मीठा बताते तो और गुड़ मिलाया जाता।
घर-घर में पुआ जरूर बनता था। बड़ी-फुलौड़ी भी। गांव की गली से गुजनेवाले हर व्यक्ति को कोई न कोई भौजाई पुआ खिलाने के लिए जरूर बुला लेती थी। फिर खाने के दौरान ही पीछे से रंग लगाकर प्यार भी जता देती थी। घर की दादी और अन्य बूढ़ी औरतें पकवान बनाने में ही व्यस्त रहती थीं। इतना ही नहीं वे नई दुलहन और ननद भौजाई को आपस में होली खेलने के लिए प्रेरित भी करती थीं। यही उनके होली का आनन्द था।


शाम की होली गायन से पहले सभी देवता स्थान पर अबीर-गुलाल चढ़ाया जाता था। उसके बाद ढोलक और झाल पर, उसके बाद सबके माथे पर अबीर लगाया जाता था। फिर होली गायन की बैठकी होती थी। बाबा सबसे पहले गाते थे-''डाली गइले अबीर हो मोरे नयना उपर....।'' फिर इसी तरह राधा-कृष्ण राम-सीता और शिव-पार्वती की होली को लोक धुन में देर रात तक गाया जाता था। हम बच्चे लोग आपस में ही पिचकारी से रंग डालते थे। होली गायन के बीच में कुछ युवा लोगों को अपने गांव घर की भाभियों के साथ होली खेलने की छूट थी। ऐसे लोग जब अपनी भाभियों के पास रंग डालने जाते थे तब उसका बहुत ही शालीन तरीका था।


चूंकि महिलाएं हवेली से बाहर नहीं निकलती थीं, सो पहले भाभियां अपने देवर को बुलाती थीं, रंग खेलने के लिए, या देवर स्वयं अपना प्रस्ताव भेजते थे। दोनों एक दूसरे पर एक-एक लोटा रंग डालते थे। उसके बाद भाभी लोग अपने देवर को पान-बताशा या सूखे मेवे देकर विदा करती थीं। ननदें भी अपनी भाभियों से इसी प्रकार होली खेलती थीं। हमें मालूम हो गया था कि होली सिर्फ देवर-भाभी के साथ ही खेली जाती है। चूंकि मुझे गांव में कोई भाभी नहीं थी, सो भाभी का इंतजार करने का भी एक सुखद काल्पनिक आनन्द था।


तब गांव में होली के अवसर पर शराब आदि पीने का प्रचलन नहीं था। यह प्रचलन शुरू किया गया चाचा ने। वे जब भी छुट्टी आते तो शराब लेकर आते थे। गांव में किसी को बिच्छू डंक मारे तो गया चाचा दवा बताकर एक गिलास शराब पिला देते थे और कहते थे कि जब तक सोयें, सोने दिया जाए। नशे में लोग इतना सो जाते कि चौबीस घंटे से पहले कोई जगता ही नहीं था। फिर इसी दवा का प्रयोग वे होली की थकान उतारने के लिए करने लगे थे।

गांव के लोग भी इतने अभ्यस्त हो गये कि गया चाचा नौकरी जाने लगते तो लोग उनसे दवा छोड़ जाने का आग्रह भी करते थे।
अब तो गांव में बिना भांग, शराब की होली ही नहीं होती। कोई किसी के घर मिलने-जुलने जाने में भी अपना अपमान ही समझता है। न कहीं होली की बैठकी न प्रेम की होली। होली खेलना अब गंवारू काम मान लिया गया है। गांव में इस दिन लोग जमकर दारू पीने लगे हैं और उसी बहाने किसी के भी साथ गाली-गलौज भी करते हैं।
राजनांदगांव


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