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धोखा

बात बहुत दिन पुरानी है, जब मैं पैसे घर पर मनीऑर्डर से भेजा करता था

धोखा
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- मनोरंजन कुमार तिवारी

बात बहुत दिन पुरानी है, जब मैं पैसे घर पर मनीऑर्डर से भेजा करता था। उस दिन सुबह-सुबह ही खा-पीकर पोस्टऑफिस जाने के लिए निकल गया। रस्ते भर मन प्रसन्न रहा, क्योंकि तब घर पर पैसे भेजने का एक अलग ही उत्साह रहता था मन में, मन प्रसन्न हो तो आस-पास का माहौल भी खुशनुमा लगता है, और ऐसे में अपने आप पर गर्व सा महसूस भी होता है कि भाई हम भी कुछ खास है। तो इसी तरह के एहसास लिए हुए मैं पोस्टऑफिस में दाखिल हुआ। वहाँ भीड़ बहुत ज्यादा नहीं थी, मैं लाइन में लग गया।

थोड़ी देर के बाद एक लड़का आया, कपडे उसके बिल्कुल गंदे हो रखे थे, वह ख़ुद भी मैला था नहीं गन्दा ही था, उसको देख कर ही बताया जा सकता था कि वह पढ़ा-लिखा नहीं है। पता नहीं इतने सारे लोगों में उसने मुझ में ही क्या देखा कि आकर मेरे पास कहा, भैया थोड़ा मेरा मनीऑर्डर का फार्म भर दो, पैसे घर पर भेजने है। मैं एक बार फिर गर्व के एहसास से भर गया और थोड़ी मदद करने की नीयत से मैंने उसका फार्म लेकर भरना शुरू किया, उसने 200 रूपया फार्म पर लिखवाया, मुझे लगा सचमुच बेहद ग़रीब लड़का है, मुझे उससे हमदर्दी भी होने लगी । अब जहाँ पर हम दोनों लोग थे वहाँ से बाकी के लोग थोड़े दूर हो गए थे।

उस लडके ने अपने जेब से रूमाल में बंधा एक नोटों की गड्डी निकली और कहा कि भैया ये पैसा हमको बैंक में जमा करना है, कैसे करेंगे? मैंने कहा कि इसके लिए तो तुम्हे बैंक जाना पड़ेगा, पर इतने पैसे तेरे पास आए कहाँ से? मैंने पूछा । उसने कहा कि वह किसी घर में नौकर का काम करता है, उसका मालिक उसे महीने का पगार नहीं देता है, इसलिए मौका पाकर उसके घर से ये नोटों का बण्डल चुरा लिया है।

मेरे मन का समाजवाद तड़प उठा जो अभी बिल्कुल अंकुरित अवस्था में ही था। मेरी उम्र भी उस समय 18 -19 साल से ज्यादा ना थी, ऊपर से शरीर भी बेहद कमज़ोर और दुबला-पतला था, शायद इसलिए उसने मुझे ही चुना था अपने मदद के लिए। उस लडके की आँखों ने और उसकी बातों ने मेरे ऊपर एक जादू सा कर दिया था, वह जो भी कह रहा था, मैं बस उसे सुने जा रहा था।

उसने कहा कि, भैया आप मुझे कुछ पैसे दे दो क्योंकि मैं अभी घर भाग रहा हूँ, और आप ये मेरी नोट की गड्डी ले लो, क्योंकि मुझे तो बैंक में पैसा जमा करने आता नहीं है। उसने अपने जेब से निकाल कर रूमाल में बंधी 100 -100 रुपये की गड्डी मुझे दिखा दी। मेरे मन में लालच आ गया और मैंने उसे अपने पास के 1700 रूपया दे दिया और उसके नोटों की गड्डी लेकर लगभग दौड़ता हुआ घर पहुँचा।

ख़ुशी के मरे मेरा दम फुला जा रहा था। मैंने अपने कमरे में जाकर एकदम से दरवाज़ा बंद कर लिया और उस रूमाल में बंधी नोटों की गड्डी को खोला। उस गड्डी में सिर्फ एक नोट 100 का था,बाकी उसके नीचे कागज को नोट के साइज़ में काट कर इस तरह रखे गये थे कि गड्डी को उलट-पुलट कर देखने पर भी पता नहीं चलता था कि 100 के नोट के अंदर कागज का पुलिंदा रखा है। बस और क्या अब जो होना था मेरे मन को, दिमाग को और मेरे चेहरे को होना था।

सब सिर्फ सेकेण्ड भर में झुलस कर काला पड़ गया......


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