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रेलवे की बदलती तस्वीर

रेलवे के यात्रियों से संबंधित सरकारी आंकड़े आने के बाद बताने की जरूरत महसूस हुई

रेलवे की बदलती तस्वीर
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- अरविन्द मोहन

रेलवे के यात्रियों से संबंधित सरकारी आंकड़े आने के बाद बताने की जरूरत महसूस हुई। इसी से निर्गुण कथा सगुण रूप से समझ आएगी। इन कहानियों को पहले सुनाने का मतलब रेलवे के नए निजाम द्वारा अपनी प्राथमिकताओं में किए बदलाव का फलितार्थ ठीक-ठीक बताना है। पिछले पांच साल के मासिक यात्री आंकड़ों को देखने के बाद यह साफ लगता है कि रेलवे आम यात्रियों की परवाह से 'मुक्त' हुआ है। उसे सिर्फ मोटा पैसा दे सकने वाले यात्रियों की चिंता है।

प्रयागराज जाना हुआ। सेमीनार के आयोजकों ने प्रयागराज एक्सप्रेस में टिकट करा के भेजा था। आना-जाना सुख से हुआ। इस अच्छी गाड़ी से पहले भी जाना हुआ है। स्थिति बेहतर हुई है। प्रो. गोपेश्वर सिंह का टिकट किसी और गाड़ी से हुआ था। वे और तेज आए। दिक्कत यही हुई कि उनकी गाड़ी गाजियाबाद नहीं रुकी सीधे नई दिल्ली आई। मेरी वहां भी रुकती आई है। साथ गए अरुण त्रिपाठी ने आखिरी वक्त दिल्ली लौटने की जगह अयोध्या के पास अपने गांव जाकर पत्नी, बूढ़े पिता और उनसे भी बूढ़ी नानी से मिल आने का मन बनाया। किसी लोकल गाड़ी में आरक्षण कराया और दिल्ली का रिजर्वेशन कैंसिल करा लिया। जिस सुबह उनको जाना था, उस रात उनको गाड़ी रद्द किए जाने की सूचना खेद सहित मिली। घर जाना भी चाहते थे और टैक्सी की ऊंची कीमत देने में भी हिचक थी और बसों का अनुभव वे जानते थे। खुद जब हाल में बोकारो से मुजफ्फरपुर के लिए उस लाइन की नामी गाड़ी मौर्य एक्सप्रेस में एयरकन्डीशंड डिब्बों की संख्या देखी तो हैरान हुआ(जनरल डिब्बे कम किए गए हैं) पर जब सर्विस देखी तो ज्यादा हैरानी हुई। चार घंटे की देरी के साथ पूरे रास्ते शौचालयों समेत बोगी की दुर्दशा हैरान करने वाली थी।

इन अनुभवों को हाल में रेलवे के यात्रियों से संबंधित सरकारी आंकड़े आने के बाद बताने की जरूरत महसूस हुई। इसी से निर्गुण कथा सगुण रूप से समझ आएगी। इन कहानियों को पहले सुनाने का मतलब रेलवे के नए निजाम द्वारा अपनी प्राथमिकताओं में किए बदलाव का फलितार्थ ठीक-ठीक बताना है। पिछले पांच साल के मासिक यात्री आंकड़ों को देखने के बाद यह साफ लगता है कि रेलवे आम यात्रियों की परवाह से 'मुक्त' हुआ है। उसे सिर्फ मोटा पैसा दे सकने वाले यात्रियों की चिंता है और इस क्रम में जो बदलाव हो रहे हैं, जो प्राथमिकताएं तय हो रही हैं या जो निजीकरण किया जा रहा है वह रेलवे को राष्ट्रीय परिवहन का मुख्य वाहक बनाए रखने की जगह मुनाफे के उपकरण में बदलने के लिए है। इस बीच दो साल तो करोना के चलते सामान्य यातायात के लिए गड़बड़ थे। पर गैर शहरी यात्रियों की संख्या में 2019-20 की तुलना में 2022-23 में 29 फीसदी की गिरावट और शहरी यात्रियों में भी 20 फीसदी की गिरावट आई है। उत्तरी रेलवे के यात्रियों की संख्या तो इस अवधि में 35 फीसदी तक गिरी है जो देश भर में सबसे ज्यादा है। गिरावट में दूसरे नंबर पर दक्षिणी रेलवे है। इन्ही वर्षों में यात्रियों की कुल संख्या 331 करोड़ से घटकर 236 करोड़ रह गई है। इनमें भी ग्रामीण इलाकों में ज्यादा गिरावट है। पांच साल के आंकड़े साथ रखने से तस्वीर साफ दिखती है।

उसमें कोरोना वाले साल में यात्रियों की संख्या तो बहुत अधिक गिरी दिखती है पर यह नहीं दिखता कि कोरोना के दौरान लॉकडाउन या स्पेशल ट्रेन के नाम पर यात्रियों को क्या-क्या झेलना पड़ा। इससे यह भी साफ नहीं होता कि बुजुर्गों, बीमारों, राष्ट्रीय पुरस्कार वालों, विकलांगों, पत्रकारों, दैनिक यात्रियों और प्रतियोगिता परीक्षा देने जाने वाली छात्रों को रेल भाड़े में दी जाने वाली रियायत का कोरोना से क्या नाता है। ये उसी नाम से बंद किए गए लेकिन कोरोना के विदा होने के बाद उन सुविधाओं को वापस नहीं किया गया। स्पेशल ट्रेन आज भी चल रही हैं पर सिर्फ त्यौहार और भीड़ वाले दिनों में और जाहिर तौर पर 'स्पेशल' भाड़ा लेकर, बल्कि फ्लेगजिबल किराए के नाम पर अब रेल भाड़ा भी असली जरूरत के वक्त हवाई यात्रा से मुकाबला करने लगा है। रेलवे के जिन स्टेशनों और गाड़ियों का खास ध्यान दिया गया है उनसे कमाई की ज्यादा संभावना है। इसमें तब कोई हर्ज नहीं होता यदि बाकी सब स्टेशनों और गाड़ियों में न्यूनतम सहूलियतों की पुख्ता व्यवस्था हो जाती। रेलवे की कमाई बढ़ाना और खास यात्रियों की जेब से अधिक पैसा निकलवाने के साथ इनसे सिर्फ यह फर्क पड़ा है कि उन प्लेटफार्मों और गाड़ियों से भीड़भाड़ कुछ काम हो गई है। चना और ककड़ी बेचने वाले गायब हो गए हैं।

रेलवे देश में क्या कुछ करता रहा है और कितने ही कमजोर लोगों के जीवन का सहारा रहा है, यह गिनती गिनवाना यहां संभव नहीं है और यह भी कहने में हर्ज नहीं है कि जो लोग प्लेटफार्म पर जीवन बसर करते रहे हैं। ठेले-खोमचे से जीवन चलाते रहे हैं, लोकल की सस्ती यात्रा से पढ़ाई और नौकरी करके जीवन चलाते रहे हैं उनमें से कोई खुशी-खुशी इस काम को नहीं करता रहा है। और जब ममता बनर्जी जैसी रेल मंत्री घरेलू कामगार महिलाओं के लिए सस्ते पास का इंतजाम करती थीं, प्रतियोगिता परीक्षा या इंटरव्यू देने जाने वाले लड़के-लड़कियों के लिए रियायती यात्रा का इंतजाम करती थीं तो उनका स्नेह और समझ सामने आता था। तब उनकी समझ और पक्षधरता को लेकर किसी तरह की गलतफहमी नहीं रहती थी। आज वन्दे भारत गाड़ियों को हरी झंडी दिखाने और बुलेट ट्रेन की तैयारी में वह चिंता नहीं दिखती। रेलवे को नए युग के अनुरूप बदलना जरूरी है लेकिन वह अनिवार्यत: गरीब विरोधी ही हो जाए यह जरूरी नहीं है। और रेल में बदलाव और निजीकरण की पहल तो नीतीश कुमार और माधवराव सिंधिया के जमाने से शुरू हुआ था पर उसका ऐसा चेहरा नहीं दिखा था।

यह मात्र संयोग नहीं है कि जिस दिन एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार के लगनशील रिपोर्टर ने पांच साल के मासिक आंकड़ों को जोड़-घटाकर नई तस्वीर साफ करने वाली खबर दी उसी दिन ठीक उसी खबर के बगल में यह भी छापा कि पिछले साल भर में विमान के देसी यात्रियों की संख्या में साठ फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। उस अंग्रेजी अखबार की चिंता भी सरकार की सोच से अलग नहीं हैं वरना वह यह खबर भी दे सकता था कि इसी अवधि में दिल्ली और पंजाब से बिहार और झारखंड के छोटे-छोटे कस्बों तक के लिए हजारों सीधी बसें शुरू हों चुकी हैं जिनका किराए रेलवे के थर्ड एसी से ऊपर ही होता है जबकि लोग भेड-बकरियों की तरह ठूंस-ठूंस कर भरे होते हैं। अखबार यह भी बता सकता था कि लोकल गाड़ियां न चलाने से देश भर में प्राइवेट बस आपरेटरों की कैसी चांदी हुई है और जिस जगह जाने का रेल भाड़ा दस से बीस रुपए तक है(और गाड़ी आती ही नहीं है) उस जगह बस वाले पचास रुपए से कम नहीं लेते। पर ये चिंताएं अंग्रेजी वालों और सरकार की नहीं हैं।


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