चण्डीगढ़ से सूरत वाया खजुराहो : वन पार्टी और नो इलेक्शन
सूरत में जो हादसा हुआ है वह किसी भी सभ्य समाज और परिपक्व लोकतंत्र पर एक बदसूरत धब्बा है

- बादल सरोज
भारतीय सामाजिक ढांचे में गांवों में किनके नाम पर सर्वानुमति बनेगी इसे समझा जा सकता है। चंडीगढ़ से सूरत वाया खजुराहो इसी फार्मूले को संसद और विधानसभाओं तक ले जाने का धतकरम है। इससे पहले कि देर हो जाए, देश की लोकतंत्र हिमायती अवाम, संगठनों, दलों, व्यक्तियों को सूरत से बजे अलार्म की आवाज से खुद भी जागना होगा, बाकियों को भी जगाना होगा।
सूरत में जो हादसा हुआ है वह किसी भी सभ्य समाज और परिपक्व लोकतंत्र पर एक बदसूरत धब्बा है। जैसा कि अब तक लगभग सब जान चुके हैं कि इस संसदीय क्षेत्र के चुनाव अधिकारी, जो आम तौर से कलेक्टर होता है, ने 18वीं लोकसभा के लिए होने वाले चुनाव में सूरत संसदीय क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार मुकेश दलाल को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया है। यह काम जिस तरह से किया गया है वह इंडिया दैट इज भारत में जनादेश की चोरी से शुरू हुई यात्रा के लोकतंत्र के अपहरण से होते हुए मताधिकार की लूट की खतरनाक स्थिति पहुंच जाने के संकेत देता है।
यह दोहराने में हर्ज नहीं है कि जैसा सूरत में हुआ वैसे निर्विरोध निर्वाचन के लिए जरूरी होता है कि सिर्फ एक प्रत्याशी बचे-उसके सामने कोई न हो। अब ऐसा अपने आप तो होने से रहा। लिहाजा सबसे पहले तो उनके विरुद्ध इंडिया गठबंधन के साझे उम्मीदवार, कांग्रेस प्रत्याशी नीलेश कुम्भानी और उनके डमी उम्मीदवार सुरेश पाडसाला का नामांकन रद्द 'करवाया' गया उसके बाद बाकी बसपा और 3 छोटी पार्टियों जिनमे सरदार वल्लभभाई पटेल के नाम पर बनी पार्टी भी शामिल थी. के उम्मीदवारों को 'बिठवाया' गया और इस तरह भाजपा के मुकेश भाई दलाल को 'जितवाया' गया ।
भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री विनोद तावड़े ने खुद कह दिया कि 'निर्दलीय प्रत्याशियों को चुनाव मैदान से हटाने के लिए प्रयत्न किये थे। अब यह कैसे हुआ होगा इसका पक्का अनुमान लगाने के लिए राकेट साईंस का ज्ञाता होने की आवश्यकता नहीं है । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले देश के लिए यह सचमुच अशुभ और अशोभनीय दोनों है। इससे पहले, इसी तरह का काम दूसरे तरीके से मध्यप्रदेश की खजुराहो लोकसभा सीट, जहां से भाजपा के मध्यप्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा चुनाव लड़ रहे हैं, पर किया गया। यहां से इंडिया गठबंधन की प्रत्याशी मीरा दीपक यादव का नामांकन पत्र भी खारिज करवा दिया गया । इसका आधार प्रत्याशी द्वारा हस्ताक्षर न किया जाना बताया गया - जबकि केन्द्रीय निर्वाचन आयोग के स्पष्ट निर्देश हैं कि किसी भी नामांकन फॉर्म को अधूरा भरा होने की वजह से रद्द नहीं किया जा सकता। साफ़ प्रावधान है कि यदि प्रत्याशी से कोई जगह भरने से छूट जाती है तो उसका सुधार कराने की जिम्मेदारी स्वयं निर्वाचन अधिकारी की है। निर्वाचन कार्यालय में ठीक इसी काम के लिए दो दर्जन से ज्यादा अधिकारी कर्मचारी तैनात रहते हैं। मगर जब सैयां ही कोतवाल हैं, सैयां ही सीएम और पीएम हैं, उन्हीं के हुकूमबरदार चुनाव आयोग में हैं तो काहे के निर्देश, कैसे क़ानून!! सूरत काण्ड ने नोटा- इनमें से कोई नहीं- के स्वांग की भी कलई उतार दी है। सैद्धांतिक रूप से यदि एक के अलावा दूसरा उम्मीदवार नहीं था तब भी नोटा ने तो नाम वापस नहीं लिया था, उन्हें तो इस कथित रूप से निर्विरोध चुने गए दलाल को अस्वीकार करने का अवसर दिया जाना चाहिए था । केन्द्रीय चुनाव आयोग को इसे सुनिश्चित करना चाहिए था।
पहले इस तरह के छल, धनबल, बाहुबल की प्रपंची कारगुजारियां पंची और सरपंची के चुनाव में आजमाई जाती थीं, कालेजों के छात्र संघ चुनावों और सहकारिताओं में अपनाई जाती थीं। इन दिनों वहां भी ये पहले की तुलना में कम हुई हैं। लोकसभा चुनाव में तो इस तरह की खुले खजाने निर्लज्जता के ये पहले उदाहरण हैं। कुछ महीने पहले चंडीगढ़ में यह काम अलग तरीके से किया गया था। इसीलिए यह सिर्फ सूरत भर की बात नहीं है। भारतीय प्रायद्वीप के नामचीन शायर रघुपति सहाय फिऱाक़ गोरखपुरी साहब ने एक शेर में कहा है कि ;
जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मानी जान लेते हैं।
इस तर्ज पर कहें तो सूरत में जो हुआ वह इस देश के लोकतंत्र की आज की जो सीरत है उसका उदाहरण है । पिछले 10 वर्षों से इस देश में संविधान और संविधान सम्मत संस्थाओं के साथ जो हो रहा है उसका भयावह और विद्रूप संस्करण हैं । यह कॉरपोरेटी हिन्दुत्व द्वारा मोदी राज की दो पंचवर्षीय अवधि में तैयार किया गया आगामी भारत का सांचा है। अगर इनकी चली और इसी तरह चली तो चंडीगढ़ से बरास्ते खजुराहो सूरत तक पहुंचना, आने वाले दिनों की सीरत की बानगी भी है। यह इन 10 वर्षों में जिन कारपोरेट घरानों के लिए छप्परफाड़ मुनाफे कमवाये गए हैं उनकी छीजन के सहारे तंत्र पर कब्जा करके लोक से अपना जन प्रतिनिधि चुनने के जनता के मूलभूत अधिकार का अपहरण है। अब तक जनादेश चुराने, चुनी चुनाई सरकारों को अगवा कर भगवा बनाने, सांसदों, विधायकों, गुटों. समूहों, दलों को ईडी, सीबीआई से डरा कर, लालच प्रलोभन से लुभाकर खरीदे जाने की कार्यनीति अपनाई जा रही थी- अब उस आड़ को भी छोड़ दिया गया है; थैलियों और नौकरशाहों की दम पर सीधे सांसदी ही अपहृत की जा रही है। लूट की हिस्सेदारी में वसूली गई अकूत कमाई और उसकी तलछट के एक रूप इलेक्टोरल बांड में इकठ्ठा किया हजारों करोड़ रुपया इसी तरह के दलदल पैदा कर सकता है। ये दलदल भारतीय लोकतंत्र को हमेशा के लिए डुबो देने की विनाशकारी ताकत रखता है।
इस दलदल तक बहला फुसला कर लाने के सारे प्रबंध पहले ही किये जा चुके हैं। चुनाव आयोग में नियुक्ति के तरीके को बदलने के पीछे का कपट सामने आ चुका है। किसी टीवी चैनल ने इस खबर के अन्दर की खबर नहीं ढूंढी, अभी तक जितने अखबार देखे हैं उनमें से किसी में भी लोकतंत्र को धर दबोच कर हलाल किये जाने के इस कारनामे पर सम्पादकीय नहीं मिला। हां, इससे उलटा जरूर हुआ है, नफऱतियों की आईटी सैल ने इसे अबकी बार, 400 पार की यात्रा का पहला मुंडाभिषेक बताते हुए अपना श्रगाल-रोदन शुरू कर दिया है। उनमें से कुछ तो ऐसा होने की वजह से उम्मीदवारों का खर्चा बचने, कर्मचारियों के चुनाव ड्यूटी की व्याधा से बचने और चुनाव में खर्च होने वाला सरकारी पैसा बचने का महात्म्य समझाने में जुट भी गए हैं।
चंडीगढ़ से वाया खजुराहो सूरत ने बता दिया है कि सता-संरक्षित, कॉरपोरेट आश्रित ठुल्लों और गली मुहल्लों के शोहदों के चंगुल में लोकतंत्र का पहुंचा दिया जाना ही वन नेशन वन इलेक्शन का मॉडल है और उसका असली अर्थ है वन पार्टी नो इलेक्शन। उन्हें किसी भी तरह का चुनाव नहीं चाहिए। चूंकि चुनाव 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के हर भारतीय को उसकी जाति, वर्ण, नस्ल. भाषा, आदमी, औरत, गरीबी, अमीरी का फर्क किये बिना बराबर के वोट का वोट का अधिकार देता है, भले एक दिन के लिए, एक ही मामले में ही सही सबको सामान बना देता है- इसलिए चुनाव नहीं चाहिए।
मोदी जिस हिंदुत्व पर आधारित राष्ट्र बनाना चाहते हैं उस भूतिया तहखाने के आर्कीटेक्ट राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का साफ़-साफ़ मानना है कि लोकतंत्र मुंड गणना है जिसमें सबके मत बराबर होते हंै, इसे समाप्त कर इसके स्थान पर 'कुछ विशिष्ट और योग्य लोगों' द्वारा शासन चलाने की प्राचीन महान प्रणाली की बहाली की जानी चाहिए। यह महान प्रणाली क्या है, इसे भी उन्होंने कभी नहीं छुपाया है; इसका नाम है मनुस्मृति!! संघ के विचारकों के मुताबिक़ पंचायतों के लिए होने वाले चुनावों के चलते भारत के गांवों की वह महान और सनातन एकता बिखर गई है जिसमे गांव का 'सम्माननीय और बड़ा आदमी' जो कहता था उसे पूरा गांव मान लिया करता था। मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने गुजरात में इसी दिशा में कदम बढ़ाया और पंचायतों में चुनाव को हतोत्साहित करने के लिए एक विशेष प्रोत्साहन योजना शुरू की जिसमें सर्वानुमति से निर्विरोध चुनी जाने वाली पंचायतों के लिये विशेष आर्थिक पैकेज और अतिरिक्त नकद राशि दिए जाने के प्रावधान किये गए। बाद में मध्यप्रदेश सहित अनेक संघ नियंत्रित भाजपा शासित राज्यों में भी इसे लागू कर दिया गया। भारतीय सामाजिक ढांचे में गांवों में किनके नाम पर सर्वानुमति बनेगी इसे समझा जा सकता है। चंडीगढ़ से सूरत वाया खजुराहो इसी फार्मूले को संसद और विधानसभाओं तक ले जाने का धतकरम है।
इससे पहले कि देर हो जाए, देश की लोकतंत्र हिमायती अवाम, संगठनों, दलों, व्यक्तियों को सूरत से बजे अलार्म की आवाज से खुद भी जागना होगा, बाकियों को भी जगाना होगा।


