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जर्मन-भारत संबंधों को नई दिशा देगा चांसलर शॉल्त्स का भारत दौरा

जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स नई दिल्ली पहुंच रहे हैं, जहां वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलेंगे. जर्मनी के लिए पहली बार किसी चांसलर की भारत यात्रा सबसे बढ़कर सामरिक मुद्दों पर केंद्रित होगी.

जर्मन-भारत संबंधों को नई दिशा देगा चांसलर शॉल्त्स का भारत दौरा
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प्रधानमंत्री मोदी और चांसलर शॉल्त्स पिछले दस महीनों में चार बार मिल चुके हैं. लेकिन नई दिल्ली में यह पहला मौका होगा, जब जर्मनी के लिए भारत के साथ रणनीतिक चर्चा महत्वपूर्ण होगी. जर्मन चांसलर सही मायनों में सुरक्षा से संबंधित व्यापक विषयों की चर्चा करेंगे. और इस बार चर्चा सिर्फ ऊर्जा सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन जैसे भविष्य के मुद्दों पर नहीं होगी, यूक्रेन में शांति का सवाल, रूस को अलग-थलग करने का सवाल और रक्षा सहयोग का मुद्दा भी महत्वपूर्ण होगा.

म्यूनिख में सुरक्षा सम्मेलन में भारत की दलील को दोहरा कर, कि यूरोप की समस्या दुनिया की समस्या है लेकिन दुनिया की समस्या उसकी समस्या नहीं है, चांसलर ने भारत के साथ सोच में निकटता दिखाई है. इससे रूस पर पिछले महीनों में दिखे मतभेदों को लेकर यह बात साफ हुई है कि जर्मनी भारत को रूस पर प्रतिबंधों के मसले पर और मनाने की कोशिश नहीं करेगा, बल्कि विभिन्न इलाकों में सहयोग कर रूस पर उसकी निर्भरता घटाने की कोशिश करेगा.

रूस के समर्थन पर बढ़ता संदेह

जर्मनी के कूटनीति और रक्षा विशेषज्ञों की मानें तो वे समझते हैं कि भारत को इस बात का अहसास हो रहा है कि वह लंबे समय तक रूस पर समर्थन के लिए निर्भर नहीं रह सकता. चीन के साथ विवाद में अब तक रूस संतुलन का काम कर रहा था, लेकिन पश्चिमी प्रतिबंधों ने चीन पर रूस की निर्भरता बढ़ा दी है और चीन से विवाद के मामलों में वह भारत का भरोसेमंद समर्थक नहीं रह गया है. ऐसे में पश्चिमी देशों के साथ संबंधों को बढ़ाना भारत के हित में होगा और कुछ हद तक उसकी मजबूरी भी. जर्मनी संबंधों को और गहरा बनाने की संभावनाओं को खंगालेगा.

और इसमें सबसे महत्वपूर्ण है भारत के साथ यूरोपीय संघ की मुक्त व्यापार संधि. बरसों की बातचीत के बाद दोनों पक्षों ने बातचीत तोड़ दी थी और कारोबारी प्रेक्षक कहते हैं कि अभी भी दोनों की राय में बहुत अंतर है. लेकिन जिस तरह से यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के बाहर निकलने के बाद ब्रिटेन और जर्मनी में कुशल कामगारों का अभाव दिख रहा है, यूरोपीय देशों को भारतीय कामगारों की जरूरत रहेगी. पिछले साल भारत और जर्मनी के बीच माइग्रेशन और मोबिलिटी पार्टनरशिप तय हुई थी. मुक्त व्यापार की बातचीत में भारत श्रम बाजार में ढील देने की मांग करता रहा है. अब इस मुद्दे पर अब दोनों पक्ष काफी करीब आ गए लगते हैं.

दो दशक से लंबी सामरिक साझेदारी

यूं तो भारत और जर्मनी के बीच 2001 से ही सामरिक साझेदारी है, लेकिन दोनों देश इस पार्टनरशिप को अलग-अलग समझते रहे हैं. जर्मनी के लिए सामरिक शब्द के मायने सिर्फ सीमा और आंतरिक सुरक्षा ही नहीं, बल्कि नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा से लेकर ऊर्जा सुरक्षा भी हैं. पिछले सालों में दोनों देशों के बीच पर्यावरण सुरक्षा पर व्यापक सहयोग हुआ है. चांसलर ने जर्मनी की जी-7 अध्यक्षता के दौरान एक अंतरराष्ट्रीय क्लाइमेट क्लब बनाने का प्रस्ताव दिया था. जी-7 के इस क्लब में भारत को शामिल करना स्वाभाविक होगा. सोलर और पवन ऊर्जा के अलावा ग्रीन हाउड्रोजन और ग्रीन अमोनिया के क्षेत्र में दोनों देश सहयोग कर ही रहे हैं.

यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद जर्मनी के राजनीतिज्ञों और आम लोगों को इस बात का अहसास हुआ है कि न सिर्फ खाद्य और ऊर्जा संबंधी सुरक्षा युद्धकाल में जरूरी है बल्कि रक्षा सुरक्षा भी अहम है. इससे जर्मनी के लिए भारत के साथ सैनिक सहयोग का रास्ता भी खुल गया है. भारत शीत युद्ध की समाप्ति के बाद पिछले दशकों में रूस पर निर्भरता घटाने और अपनी रक्षा खरीद को विविध बनाने की कोशिश करता रहा है. इस दौर में अमेरिका, फ्रांस और इस्राएल जैसे देशों से भारत ने भारी खरीदारी की है, लेकिन कश्मीर समस्या के कारण जर्मनी से रक्षा सौदेबादी का रास्ता नहीं खुल रहा था.

हथियारों की खरीद बड़ा मुद्दा

जर्मनी सैनिक विवाद वाले इलाकों में हथियारों की सप्लाई नहीं करता और यह भारत से साथ उसके रक्षा संबंधों में बड़ी बाधा रही है. रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद जर्मनी में राजनीतिक दलों का नजरिया पूरी तरह बदल गया है और हथियारों के बिना शांति की वकालत करने वाली ग्रीन पार्टी भी अब यूक्रेन को हथियार देने की बात कर रही है. इस युद्ध के कारण जर्मनी के रक्षा उद्योग में उत्साह का माहौल है और इसका लाभ भारत को भी निश्चित तौर पर मिलेगा. जर्मन सरकार के अधिकारी अब कहने लगे हैं कि अगर भारत हथियार चाहता है तो वह उचित जवाब की उम्मीद कर सकता है.

जर्मनी भारत को सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के कारण मूल्यों का पार्टनर मानता है. लेकिन भारत से जिस तरह नियमित रूप से विपक्षी राजनीतिज्ञों और बीबीसी सहित मीडिया दफ्तरों पर छापों की खबरें आती रहती हैं, जर्मन राजनीतिज्ञों, नागरिक समाज और मीडिया का एक तबका परेशान और असहज दिखता है. चांसलर शॉल्त्स की सरकार को उन्हें समझाने के लिए दलीलें देनी होंगी. पर्यावरण सुरक्षा के साथ-साथ रूस और ईरान के अलावा इंडो पेसिफिक पर जर्मनी और पश्चिमी देशों को भारत का सहयोग चाहिए. आपसी बातचीत से ही दोनों एक दूसरे को बेहतर समझ पाएंगे.

संबंधों को नए स्तर पर पहुंचाने का मौका

कम से कम तीन दशक से भारत और जर्मनी पारस्परिक संबंधों को नया आयाम देने की कोशिश कर रहे हैं. जर्मनी के हर चांसलर और भारत के हर प्रधानमंत्री ने यह कोशिश की है. लेकिन प्रयास या तो एक साथ नहीं हुए या दोनों देशों की प्राथमिकताएं अलग रहीं. जब भारत जर्मनी का निवेश चाहता था तो वह एकीकरण से पैदा हुई समस्याओं को सुलझाने में लगा था. और जब जर्मनी भारत में कारोबार करने में आसानी चाहता था तो भारत अपने नागरिकों के लिए आसान जर्मन वीजा चाह रहा था.

इस बार दोनों देशों के हित एक दूसरे के करीब पहुंचे लग रहे हैं. चांसलर के इस दौरे के अलावा इस साल जी-20 की भारत की अध्यक्षता बहुत सारे मौके देगी. जर्मनी के कई सारे मंत्री इस साल भारत का दौरा करेंगे. वित्त मंत्री क्रिस्टियान लिंडनर इस समय भारत में हैं, अगले हफ्ते विदेश मंत्री अनालेना बेयरबॉक भारत जा रही हैं. जी-20 शिखर सम्मेलन से पहले और मुद्दों पर भी मंत्रिस्तरीय चर्चा होगी. और शिखर भेंट में भाग लेने शॉल्त्स इस साल एक बार फिर भारत जाएंगे. भारत और जर्मनी के आपसी संबंधों को रिसेट करने का इससे बेहतर मौका और नहीं होगा.


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