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प्रांतीय राजनीति की चुनौती

नरेंद्र मोदी और उनकी प्रचार मंडली को इस बात का श्रेय दिया ही जाना चाहिए कि वे इस चुनाव में कई मामलों में बढ़त बना चुके हैं

प्रांतीय राजनीति की चुनौती
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- अरविन्द मोहन

क्षेत्रीय दलों की धमक बढ़ने के पीछे उनकी संसद मे उपस्थिति बढ़नी मुख्य कारण था। उनके मजबूत समर्थकों ने जोखिम लेकर भी उनके उम्मीदवारों को संसद में भेजा। जाहिर तौर पर ऐसा राज्य में मजबूती आने के बाद हुआ। और एक समय तो ऐसा आया कि चुनाव आयोग की परिभाषा से राष्ट्रीय मानी जाने वाले सारी पार्टियों के सांसदों की कुल संख्या क्षेत्रीय दलों के सांसदों से कम होने लगी।

नरेंद्र मोदी और उनकी प्रचार मंडली को इस बात का श्रेय दिया ही जाना चाहिए कि वे इस चुनाव में कई मामलों में बढ़त बना चुके हैं। सरकार, भाजपा की जगह मोदी की गारंटी और चार सौ पार जैसे नारों से उन्होंने अपने समर्थकों को उत्साहित करने की कोशिश की है। नए नारे या जुमले गढ़ने में मोदी जी का जबाब नहीं है। पहले भी काफी बार ऐसे नारे गढ़े गए थे और उनके न पूरा होने या चुनाव हारने के बाद अमित शाह को कहना पड़ा कि ये तो अपने कार्यकर्ताओं को उत्साहित और प्रेरित करने के लिए हैं।

आज यह सवाल सबसे मौजूं है कि चार सौ सीटें आएंगी कहां से? जो कोई राज्यवार हिसाब लगाता है वह सारी उदारता बरतते हुए भी 272 पार नहीं कर पाता क्योंकि उत्तर और पश्चिम के राज्यों में भाजपा ने पिछली बार लगभग सारी सीटें जीती थीं और दक्षिण तथा पूरब में बहुत कम। इस बार दक्षिण और पूरब में भी सीटें बढ़ने की जगह घटती लग रही हैं और उत्तर तथा पश्चिम में भी। वहां भाजपा के लिए सीटें बढ़ाने की गुंजाइश तो नहीं ही बची है। भाजपा को अपने सौ से ज्यादा सांसदों का टिकट काटना पड़ा है और जगह-जगह बगावत है। कई मंत्री बेटिकट रह गए हैं। दर्जन भर मुद्दों की रस्साकशी के बाद मोदी जी खुद मुद्दा बन गए हैं, सारा चुनाव अपने ऊपर ओढ़ लिया है। चुनाव घोषणा पत्र में सबसे ज्यादा 65 बार नरेंद्र मोदी आया है।

जब काफी लंबी अनिश्चितता के बाद अचानक इंडिया गठबंधन उभर आया तो सारी कवायद उसे बदनाम करने, तोड़ने और एक 'शेर और जाने कितने गीदड़ों' की लड़ाई बताने की रही। पर जल्दी ही समझ आया कि लीडर के दावे और सारे प्रचार के बावजूद विविधता भरे इस देश में गठबंधन के बगैर काम नहीं चलाने वाला है तो सारे लिहाज छोड़कर जाने किस-किस दल या नेता के साथ गठबंधन किया गया, एनडीए को पुनर्जीवित करने का नाटक किया गया। कई राज्यों में स्थानीय मजबूद क्षेत्रीय दल के खिलाफ साम- दाम- दंड- भेद अपनाने के बावजूद बात नहीं बनी।

इस बदलाव के बावजूद यही लगता है कि भाजपा के रणनीतिकारों को यह बात समझ ही नहीं आई है कि नब्बे के दशक के बाद इस देश की राजनीति एकदम बदल गई है। भले इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1985 में कांग्रेस को 413 सीटें मिलीं लेकिन उसे अपना कार्यकाल पूरा करना भारी पड़ गया। जीत के इसी गुमान में कांग्रेस ने अपने चंडीगढ़ अधिवेशन में एकला चलो का नारा दिया था जबकि वी.पी. सिंह ने अपने मु_ी भर साथियों के साथ अलग किस्म की राजनीति की और भाजपा तथा कम्युनिष्ट पार्टियों को भी मजबूर किया कि वे उनकी सरकार को समर्थन दें। दुर्भाग्य से यह प्रयोग तो लंबा नहीं चला लेकिन कांग्रेस और भाजपा दोनों को गठबंधन राजनीति और क्षेत्रीय दलों की उभरती ताकत का अंदाजा हो गया। राव साहब ने क्षेत्रीय दलों को गलत ढंग से पटाकर अल्पमत की सरकार चलाई लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने तो धारा 370 हटाने, राम मंदिर का निर्माण और कामन सिविल कोड जैसे अपने बुनियादी मसलों को ताक पर रखकर नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस- एनडीए बनाया और राज किया।

यह नई चीज थी- देश में क्षेत्रीय दलों की राजनीति का निरंतर प्रबल होना। नेहरू के समय के कांग्रेस के बारे में माना जाता था कि वह सामाजिक स्तर पर एक 'रेनबो कॉलिशन' बनाकर चलती थी। प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी इसे नेहरू माडल ही कहते हैं। हालांकि तब भी पूर्वोत्तर, तमिलनाडु और पंजाब में भिन्न स्वर सुनाई देने लगे थे लेकिन कुल मिलाकर कांग्रेस सारे समाज को साथ रखती थी। पर धीरे धीरे वह ब्राह्मण, दलित और मुसलमान पार्टी बनने लगी और मध्य जातियां समाजवादी आंदोलन के प्रभाव में उससे छिटकती गईं। कालांतर उन्होंने अपनी मजबूत पार्टियां बनाईं। आज उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, हरियाणा में लोकदल, पंजाब में अकाली दल, कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस-पीडीपी, ओडिशा में बीजद, प. बंगाल में टीएमसी और दक्षिण के राज्यों की तो पूरी राजनीति क्षेत्रीय दलों के कब्जे में आ गई।

शुरू में कांग्रेस और कथित राष्ट्रीय पार्टियां इन आंदोलनों/दलों को देश की एकता के लिए खतरा बताती थीं, इनके नेताओं को जातिवादी-परिवारवादी बताती रहीं। लेकिन वीपी सिंह वाले प्रयोग ने यह ठप्पा हटा दिया। देश में पहली बार सिर्फ एक मुसलमान मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृह मंत्री ही नहीं बनाया गया था, अंगरेजी न जानने वाले देवी लाल उप प्रधानमंत्री और फिर तो रक्षा मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, रेलवे मंत्रालय समेत सारे महत्वपूर्ण मंत्रालयों पर क्षेत्रीय सूरमा आए और उन्होंने मजे से बढ़िया शासन किया। 'कुशासन और जंगल राज' के लिए बदनाम लालू यादव का रेल मंत्रालय प्रबंधन हार्वर्ड के मैनेजमेंट कोर्स में शामिल हुआ। कई फैसले (खासकर क्षेत्रीय दल से जुड़े मंत्रियों को लेकर) दिल्ली की जगह चेन्नई, लखनऊ और पटना में होने लगे। देश टूटने का खतरा और देशद्रोही वाला तमगा जाने कहां बिला गया। करुणानिधि, जयललिता और प्रकाश सिंह बादल जैसे लोग दिल्ली नहीं आए लेकिन दिल्ली की राजनीति में उनकी धमक बढ़ी।

क्षेत्रीय दलों की धमक बढ़ने के पीछे उनकी संसद मे उपस्थिति बढ़नी मुख्य कारण था। उनके मजबूत समर्थकों ने जोखिम लेकर भी उनके उम्मीदवारों को संसद में भेजा। जाहिर तौर पर ऐसा राज्य में मजबूती आने के बाद हुआ। और एक समय तो ऐसा आया कि चुनाव आयोग की परिभाषा से राष्ट्रीय मानी जाने वाले सारी पार्टियों के सांसदों की कुल संख्या क्षेत्रीय दलों के सांसदों से कम होने लगी। वोट प्रतिशत में वे कब का पचास फीसदी पार कर गई थी। इधर दो चुनाव से और पुलवामा की घटना के बाद मोदी तथा भाजपा के आसमान पर पहुंचने के बाद यह हुआ कि राष्ट्रीय पार्टियों के सांसदों की संख्या फिर आधे से ऊपर हो गई थी (हालांकि क्षेत्रीय दलों की हिस्सेदारी भी 42-43 फीसदी है) लेकिन मत प्रतिशत मेें पिछली लोक सभा में भी क्षेत्रीय दल ऊपर थे। और इस बार मोदी और मीडिया के सारे शोर-शराबे के बावजूद अगर पहली नजर में और राज्यवार गिनती में भाजपा चार सौ या 370 के कहीं आसपास नहीं लगती है तो उसका कारण क्षेत्रीय दलों की निरंतर बनी मजबूती है।

बात इतनी नहीं है। क्षेत्रीय दल समाज और राजनीति की जो जरूरत पूरी करते हैं उसे पूरा करना किसी राष्ट्रीय दल के वश की बात नहीं है। हिन्दू, अगड़ा, पुरुष, शहरी और कारपोरेट हितों का रक्षक होना अगर भाजपा का मुख्य चरित्र बन गया है तो पिछड़ा, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, गरीब और ग्रामीण जनता ही क्षेत्रीय दलों का आधार और भाजपा से ज्यादा चिंता के केंद्र में है। भाजपा जैसे-जैसे ज्यादा ताकतवर हुई है ज्यादा बेशर्मी से मुसलमानों से आंख फेरती जा रही है।

हल्के एहसास के साथ भाजपा ने बीजद, अन्नाद्रमुक, भारत देशम पार्टी और अकाली दल के साथ गठबंधन बनाने का असफल प्रयास किया। तमिलनाडु में उसका घुसना मुश्किल हो गया तो आंध्र में उसे चंद्रबाबू का सहारा लेना पड़ा है जिसे पार्टी की सरकार ने केन्द्रीय एजेंसियों के माध्यम से पचहत्तर दिन जेल में रखा था। जेल से नेताओं को तोड़ने का प्रयास तो पूरे देश में हो रहा है लेकिन हेमंत सोरेन और अरविन्द केजरीवाल की गिरफ़्तारी ने हवा बदल दी है। अदालत ने अगर चुनावी बांड पर भाजपा के भ्रष्टाचार को उजागर किया तो इन गिरफ्तारियों ने हवा बदली है। पहला लक्षण तो मुरझाए इंडिया गठबंधन में जान आना है। कांग्रेस भी अब एकला चलो का नारा छोड़ने से काफी आगे आ गई है। अब तो वह देश भर में जातिवार जनगणना और आरक्षण की सीमा पचास फीसदी से भी ऊपर करने की मांग को लेकर आई है।


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