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चुनाव आयोग के मामले पर घिरती केन्द्र सरकार

चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के मामले में केन्द्र सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं

चुनाव आयोग के मामले पर घिरती केन्द्र सरकार
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चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के मामले में केन्द्र सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका पर सुनवाई करने के लिये अपनी सहमति दे दी है जिसमें केन्द्रीय चुनाव आयोग अधिनियम, 2023 के प्रावधानों को चुनौती देते हुए मांग की गई है कि इस नियम के अंतर्गत चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति न होने दी जाये।

यह याचिका कांग्रेसी नेता जया ठाकुर की ओर से सोमवार को दाखिल की गई थी। इसके अलावा एडीआर ने भी मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए बनी समिति में भारत के मुख्य न्यायाधीश को शामिल नहीं किए जाने को चुनौती देने की याचिका दाखिल की थी। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजीव खन्ना ने याचिकाकर्ता को सूचित किया कि मुख्य न्यायाधीश ने इसकी सुनवाई की मंजूरी दी है और शुक्रवार (15 मार्च) के लिये इसे सूचीबद्ध किया गया है। यानी उसी दिन इस पर सुनवाई होने जा रही है जिस दिन केन्द्रीय चुनाव आयोग को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से मिली इलेक्टोरल बॉन्डस की पूरी जानकारी अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करनी है। चुनाव के ऐन पहले नरेन्द्र मोदी सरकार ने जिस प्रकार से चुनाव आयोग को विवादास्पद बना दिया है, उम्मीद की जाये कि इस सुनवाई में शीर्ष न्यायालय केन्द्र को अनुकूल आदेश देकर आगामी लोकसभा चुनाव के निष्पक्ष व पारदर्शी तरीके से सम्पन्न होने का मार्ग प्रशस्त करेगा। इन चुनावों की घोषणा इसी हफ्ते कभी भी होने के अनुमान जताये जा रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि तीन सदस्यीय चुनाव आयोग में इस वक्त केवल मुख्य आयुक्त राजीव कुमार ही बचे हुए हैं। अनूप चंद्र पांडेय जहां फरवरी में सेवानिवृत्त हो गये वहीं दूसरे आयुक्त अरूण गोयल 8 मार्च को इस्तीफा देकर चलते बने हैं। जाहिर है कि एक विशाल तथा दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने वाले भारत का इतना महत्वपूर्ण आम चुनाव एक ही सदस्य के भरोसे नहीं किया जा सकता। भारत सरकार आनन-फानन में दो नये सदस्यों की नियुक्ति करने पर आमादा है लेकिन जिस प्रकार से आयोग के गठन के सारे अधिकार सरकार ने एक तरह से अपने हाथों में पहले से ले रखे हैं, उससे अंदेशा यही है कि जिन दो सदस्यों की नियुक्तियां होंगी वे सरकार के 'यस मेन' की ही हो सकती हैं। वैसे भी पहले आयोग के सदस्यों की नियुक्ति का काम चार सदस्यीय कमेटी करती थी जिसमें प्रधानमंत्री, एक केन्द्रीय मंत्री, विपक्ष का नेता (मान्यता प्राप्त नेता प्रतिपक्ष न हो तो सबसे बड़े विरोधी दल का नेता) एवं भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) शामिल थे। पिछले वर्ष संशोधन अधिनियम लाकर मोदी सरकार ने सीजेआई को कमेटी से बाहर कर दिया है। इस तरह से कमेटी में सरकारी पक्ष का बहुमत हो चुका है। इसी के चलते पिछली एक बैठक में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने यह कहकर कमेटी की बैठक में जाने से इंकार कर दिया था कि उसका कोई फायदा नहीं है। बहुमत के आधार पर सरकार जो फैसला लेना चाहे वह ले सकती है।

बहरहाल, आयोग से पारदर्शी एवं निष्पक्ष चुनावों की आशा इसलिये नहीं की जा सकती क्योंकि जिन दो नये सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई है उसे लेकर सभी विरोधी दलों एवं सिविल सोसायटियों का मानना है कि मोदी के वफादार अधिकारियों की ही नियुक्तियां की जायेंगी। जैसा कि पहले भी होता आया है। न केवल चुनाव आयोग बल्कि जितनी भी संवैधानिक संस्थाएं हैं, सभी में जिस प्रकार से सरकार समर्थक अधिकारी बैठाये गये हैं, वैसा ही अब फिर से होगा- यह सभी का मानना है।

बात यहीं पर नहीं ठहरती। संशोधन के जरिये सरकार ने कई ऐसे नियम बनाये हैं जिनसे आयोग सरकार के हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रह गया है। चुनाव आयुक्तों के वेतन, भत्तों, सुविधाओं आदि से सम्बन्धित बदलाव भी किये गये हैं। अभी उनके वेतन सुप्रीम कोर्ट के जजों के बराबर ही रखे गये हैं लेकिन उनके भत्तों व सुविधाओं को बढ़ाकर कैबिनेट सचिवों के बराबर कर दिया गया है। यानी प्रकारान्तर से वे जजों से ऊपर हो गये हैं। अधिक खतरनाक नियम यह बना दिया गया है कि चुनाव आयुक्त जो भी फैसले लेंगे उनके खिलाफ न तो प्राथमिकी दर्ज की जा सकेगी और न ही उन्हें कोर्ट में चुनौती दी जा सकेगी। यानी आयुक्त इतने ताकतवर हो जायेंगे कि उनके निर्णय अंतिम रहेंगे। ऐसे में अगर वे सरकार की हां में हां मिलाने वाले हुए (जिसकी आशंका भी है), तो यह संस्था पूर्णत: निरंकुश हो जायेगी।

जया ठाकुर ने अपनी याचिका में बताया है कि उन्होंने मूल याचिका 12 जनवरी को दायर की थी परन्तु इस दौरान एक और आयुक्त ने इस्तीफा दे दिया है। इसके साथ ही, लोकसभा चुनाव कभी भी हो सकते हैं इसलिये सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसकी तत्काल सुनवाई किये जाने की आवश्यकता है। एक बार फिर से जन अपेक्षाओं पर खरा उतरते हुए शीर्ष अदालत ने इस मामले की सुनवाई तय की है। पारदर्शी एवं निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की पहली शर्त है। जिस प्रकार से मोदी सरकार ने अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिये सम्पूर्ण संवैधानिक प्रणाली को ही ध्वस्त कर दिया है, उससे एक ऐसे चुनाव आयोग से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह स्वतंत्र रूप से अपने उत्तरदायित्वों का ईमानदारी से निर्वाह करेगा। वैसे भी मोदी के 10 वर्षों के कार्यकाल में चुनाव आयोग ने जिस प्रकार पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करने के बहुतेरे उदाहरण पेश किये हैं, उनके चलते उच्चतम न्यायालय ही आशा की अंतिम किरण है। देखना होगा कि इस याचिका की सुनवाई में क्या ऐसा कोई फैसला आता है जिसके जरिये केन्द्र सरकार को ऐसा आयोग पुनर्गठित करने का आदेश मिलेगा जिससे निष्पक्ष व पारदर्शी चुनाव की अपेक्षा पूर्ण हो सकेगी।


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