कार्ड
वृद्धावस्था और मोतियाबिंद से धुंधलाई आंखों में जब निराशा उतर आई तो झिलमिलाते आंसुओं ने दृष्टि को और भी धुंधला बना दिया

- पूजा गुप्ता
वृद्धावस्था और मोतियाबिंद से धुंधलाई आंखों में जब निराशा उतर आई तो झिलमिलाते आंसुओं ने दृष्टि को और भी धुंधला बना दिया। जब दृष्टि धुंधला गई तो मस्तिष्क सक्रिय हो गया, क्योंकि हृदय का पलड़ा हल्का हो गया। क्यों करती हो इंतजार? कब तक करती रहोगी? क्या मिल जाएगा तुम्हें एक बार पोस्ट कार्ड आने से? व्यर्थ ही परेशान होती हो। इस बुढ़ापे में भी मोह-माया त्यागने को तैयार नहीं... क्यों? आखिर क्यों?
कैसे त्याग दूँ मोह-माया?
गिरिजा बुदबुदाई। इसी मोह माया ने तो जिंदगी के सत्तर वर्षों को सुंदर बनाया और पल-पल खुशियों में गुजरा। हर दिन एक नई आशा नई खुशी लेकर आता था। पल-पल बढ़ती बच्चों की शरारतों, लड़ाई झगड़ों, प्यार-गुस्से मनुहार आदि को संजोया है मैंने, भविष्य के सुंदर सपने बुने हैं। जब इतनी उम्र हंसी-खुशी से बिताई है तो क्या कुछ वर्ष और नहीं बिता सकती।
नहीं बिता सकती.. बच्चों के बिना मेरा मन नहीं लगता। उनकी एक-एक किलकारी, उनकी एक-एक आवाज मेरा पीछा करती रहती है... और मैं थक-हार कर उन आवाजों से मोहित हो इंतजार करने लगती हूं... उनके कार्ड का.. कभी बर्थडे, कभी एनिवर्सरी, कभी न्यू ईयर, तो कभी दीपावली की चिठ्ठी।
एक जमाना था जब दिल के गुबार को काले अक्षरों में अभिव्यक्त कर चाहने वालों को भेजा जाता था। हर शब्द जैसे साकार हो उठता था। भेजने वालों का व्यक्तित्व प्रत्यक्ष खड़ा हो जाता और पाने वाला धन्य हो जाता। वह जब चाहता, जितनी बार चाहता, उतनी बार उसे सामने पाता और स्वयं उस चिठ्ठी को बार-बार चूम कर स्पर्श के आनंद से भर उठता। कितना सुखद लगता था चिठ्ठी का मिलना और चिठ्ठी को भेजना भी। प्रत्येक पंक्ति भावनाओं से ओत-प्रोत मन को छू जाती। बिना खोले ही समझ जाते कि किसकी है, कहां से आई है और वह निर्जीव चिठ्ठी साकार हो उठती।
जीवन की आधुनिक शैली ने छीन लिए यह एहसास। इस मशीनी युग में भावों की अभिव्यक्ति भी मशीनी हो गई है। हो भी क्यों ना? क्या संवेदनाओं के अभाव में भावनाएं उथल-पुथल मचा सकती है? जब भावनाएं नहीं तो अभिव्यक्ति किसकी हो? बस इसलिए बचा लिया इस नए विकल्प ने यानी 'कार्ड' ने। यहाँ सब कुछ मिलता है, हर कुछ बिकता है। सुंदर शब्दों की सुंदर अभिव्यक्ति भी, प्रस्तुतीकरण भी। बस आवश्यकता है पैसों की यानी 'मनी' की। इस 'मनी' ने सबको 'मिनी' बना दिया है। रिश्तों को, एहसासों को, कर्त्तव्यों को, नजदीकियों, अपनेपन को। अब हर संबंध, हर रिश्ता उतना ही है, जितना उसमें 'मनी' है।
कहावत है- 'कुछ नहीं से कुछ भला' और इसी तर्ज पर चिठ्ठीयों की जगह कार्डों ने ले ली। प्रारंभ में गिरिजा को बड़ी चिढ़ होती थी इन कार्डों से, अरे भाई, खुद क्यों नहीं कहते 'जन्मदिन की हार्दिक बधाई।' मंगलकामनाएं देनी है या धन्यवाद देना है या क्षमा मांगनी है तो खुद कहो, ताकि उस एहसास के साथ सामने वाला भी रोमांचित हो उठे। उसका रोयां-रोयां कम्पित हो उठे। यह क्या कि कार्ड पकड़ाया और उसी मशीनी तरीके से बधाई दे दिया।
चलिए शिष्टाचार के नाते ही सही यह परंपराएं चल तो रही है। यही क्या कम है इस आपाधापी की जिंदगी में। याद आता है वह दिन जब बच्चों ने जन्मदिन पर अलग-अलग कार्ड दिए और मां को बधाई दी तो ना चाहते हुए भी गिरिजा ने बच्चों से कह ही दिया, इस कार्ड पर फिजूल खर्च करने की क्या जरूरत थी? तुम्हारा प्यार ही बहुत है। बच्चे कुछ उदास से हो गए। एक दिन तो हद ही हो गई। किसी बात पर दोनों बच्चों में झगड़ा हो रहा था। गिरिजा ने भी बीच-बचाव किया। दोनों को डाँटा तो लड़ाई का रुख ऐसा बदला कि वह लड़ाई आपस की न होकर मां-बेटों की हो गई। अंत में माँ नाराज और बच्चे परेशान। बच्चों ने माफी मांगने का कार्ड लाकर माँ को दिया और चुपचाप खड़े हो गए।
माँ का पारा चढ़ गया, नालायकों, मुंह से नहीं बोल सकते? ऐसे माफी मांगी जाती है माफी... फिर कर आए पैसे खर्च!
इतना कहना था की हंसी छूट गई बच्चों की, माँ यह तो दुकानदार ने मुफ्त दिया है।
क्यों? गिरिजा ने आश्चर्य से पूछा।
माफी का है ना। यह मुफ्त ही मिलता है।
अच्छा! कितना अच्छा है दुकानदार।
बच्चे मुस्कुरा रहे थे की मां को बुद्धू बना दिया और माँ बुद्धू बनकर खुश थी कि बच्चे उसका कितना ख्याल रखते हैं। आज भी वह कार्ड अमानत की तरह सम्भाल कर रखा हुआ है।
अंधेरा बढ़ने लगा तो गिरिजा के पति ने उनसे कहा,
कब तक करोगी इंतजार? अब पोस्टमैन नहीं आएगा।
किसने कहा कि मैं इंतजार कर रही हूं..? मैं तो ऐसे ही बाहर बैठी हूं।
झूठ मत बोला करो इस उम्र में। मैं सब समझता हूं। मुझसे कुछ मत छुपाया करो। हम एक-दूसरे को इतना समझ गए हैं कि तुम कब क्या चाहती हो, क्या छुपा रही हो, कब सच बोलती हो, कब झूठ। कब दिल से खुश होती हो, कब बाहर से। कितना बता रही हो कितना छुपा रही हो। तुम्हारी हर बात से, हर चाहत से वाफिक हूं।
फिर पूछते क्या हो?
रुआंसी हो कर गिरिजा ने कहा।
अच्छा अब आगे से नहीं पूछूंगा। अब तो चलो। सहारा देते हुए उन्होंने कहा।
तुम भी हद करती हो। अभी कल ही तो तुमने टेलीफोन पर बात की थी। अमेरिका क्या इतने पास है कि आज चिठ्ठी लिखो और कल मिल जाए। तुम्हारा तो कभी दिल ही नहीं भरता।
अरे... बच्चों से बात करके... कभी किसी का दिल भरता है भला।
तुम्हारे दिल की खातिर अपनी जेब खाली कर देता हूं, इतना बिल बनवा देती हो टेलीफोन का।
मैं क्या अकेली बात करती हूं? खुद ही तो फोन लगाते हो और ना मेरा धरते हो।
अच्छा... अब तुम्हारा नाम भी ना लूंगा... अब चलो भी। उदास थकी हारी सी गिरिजा उठी। अंदर जाने के लिए कदम बढ़ाए, पर मुड़कर एक बार फिर बाहर नजर दौड़ाई।
देखो तो... कोई आ रहा है?
कोई होगा?
नाथूराम ही लगता है।
तुम क्या इतनी दूर से पहचान सकती हो?
हां... वह ऐसे ही साइकिल चलाता है।
अब तो तुम्हें साइकिल चलाने का ढंग भी दिखाई देने लगा है। अब डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
मजाक मत किया करो।
तुम्हीं ने तो कहा था मोतियाबिंद की वजह से दिखाई नहीं देता।
ओह!
गेट खुलने की आवाज आई तो दोनों ने मुड़ कर देखा,
मांजी... नाथूराम ने पुकारा।
नाथूराम... देखो मैं कहती थी नाथूराम होगा।
मैं ही हूँ... मैंने सोचा आप इंतजार कर रही होगी इसलिए इस समय ही चला आया।
आता भी क्यों ना। उसे हर कार्ड के साथ बख़्शीश जो मिलती थी और मुंह मीठा भी होता था।
क्या लाया है? उतावली सी गिरिजा आगे बढ़ी।
कार्ड!
कार्ड को गिरिजा ने छाती से लगा लिया जैसे वह कार्ड नहीं, उसका बेटा ही हो।


