भाजपा समझे कश्मीर दलगत राजनीति का अड्डा नहीं है
बीजेपी जनता को क्या समझती है? भुलक्कड़! बेवकूफ! उसे कुछ भी याद नहीं है! जम्मू-कश्मीर में चुनाव की घोषणा होते ही कांग्रेस पर सवाल उठाने लगी

- शकील अख्तर
एनसी और कांग्रेस के समझौते पर सवाल उठाकर भाजपा ने खुद अपने ऊपर ही सवाल उठवा लिए हैं। नहीं तो वैसे जम्मू-कश्मीर के चुनाव में छोटी राजनीति की बात नहीं होती। पाकिस्तान को आईना दिखाने के लिए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हम हमेशा कश्मीर को एक मॉडल के तौर पर पेश करते हैं कि किस तरह हमने यहां लोकतंत्र बना कर रखा है। चुनी हुई सरकार होती है।
बीजेपी जनता को क्या समझती है? भुलक्कड़! बेवकूफ! उसे कुछ भी याद नहीं है! जम्मू-कश्मीर में चुनाव की घोषणा होते ही कांग्रेस पर सवाल उठाने लगी।
गृहमंत्री अमित शाह कह रहे हैं कि नेशनल कान्फ्रेंस (एनसी) के साथ समझौता करके कांग्रेस देश की एकता और सुरक्षा को खतरे में डाल रही है। वाह! एनसी के साथ समझौते से देश की एकता और सुरक्षा को खतरा। अगर ऐसा है तो आप की सरकार है। एनसी को बैन कर दीजिए। मगर आप वह नहीं करेंगे। और चुनाव के बाद अगर आपकी सरकार बनने की जरा भी संभावना नजर आएगी तो आप एनसी छोड़िए उसके साथ तो पहले भी केन्द्र में सरकार बना चुके हैं। कश्मीर के किसी भी पार्टी, ग्रुप, इन्डिज्यूल से समझौता कर लेंगे।
कहां से बताना शुरू करें! पहले वह बात जो कम लोगों को याद होगी। आज के भाजपा के गृहमंत्री अमित शाह एनसी को संदेह के दायरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। मगर इनसे पहले के भाजपा के गृहमंत्री और देश में बनने वाले भाजपा के पहले गृहमंत्री लालकृष्ण आडवानी ने तो हुर्रियत कान्फ्रें स के नेताओं को बुलाकर अपने आफिस नार्थ ब्लाक में आफिशियल मीटिंग की थी।
कभी भी किसी को कुछ कह देना बीजेपी के लिए तब चल सकता था जब वह विपक्ष में थी। मगर सत्ता में आने के बाद और तीसरी बार सरकार बनाने के बाद देश की एकता और अखंडता के लिए यह बहुत जरूरी है कि अब बीजेपी के नेता खासतौर से नंबर एक और नंबर दो के नेता जिम्मेदारी से अपनी बात कहें। जो हुर्रियत खुलेआम पाकिस्तान का समर्थन करती थी उससे उसके पहले गृहमंत्री आडवानी बात करते हैं और जो नेशनल कान्फें्र स 1947 और उससे पहले से हर मौके पर भारत के साथ खड़ी होती रही उस पर शक कर रहे हैं!
सबको मालूम है कि हम कभी एनसी के समर्थक नहीं रहे। उसकी कड़ी से कड़ी आलोचना की। लेकिन देशभकिेत के सवाल पर नहीं। इसकी अभिव्यक्ति में तो फारूक अब्दुल्ला का मुकाबला तमाम लोग नहीं कर पाएंगे। आलोचना उनके शासन करने के केजुअल तरीके की की। गंभीरता के अभाव की की। सरकारी अफसरों पर सब कुछ छोड़ देने की की।
बता दें कि इस हद तक लापरवाह थे कि 1984 में जब उनके बहनोई गुलशाह उनका तख्ता पलट कर रहे थे तो वे फिल्म अभिनेत्री शबाना आजमी को मोटर साइकल पर बिठाकर घुमा रहे थे। उन्हें अपने खिलाफ षड्यंत्र का पता ही नहीं था।
लेकिन देशभक्ति पाकिस्तान के खिलाफ हमेशा तैयार रहना इसमें फारूख का कोई मुकाबला नहीं है। एक और घटना बताते हैं जो सेना और सिविल सर्विसेज के कुछ वरिष्ठ अफसरों को छोड़कर किसी को नहीं मालूम। अब मोदी जी सरकार में हैं अमित शाह भी तो वे उस समय के रहे अफसरों से मालूम कर सकते हैं।
यह है 1999 की बात। पाकिस्तान ने करगिल में घुसपैठ कर दी थी। वह ऊंचे इलाके पर थे। हमारी सेना के लिए नीचे से उन्हें भगाना मुश्किल हो रहा था। सेना एयर स्ट्राइक चाहती थी। मगर पूर्ण युद्ध शुरू न हो जाए इस कारण प्रधानमंत्री वाजपेयी हिचक रहे थे। उस समय मुख्यमंत्री फारुख रक्षा मंत्री और अपने दोस्त जार्ज फर्नाडिंस के साथ वाजपेयी से मिले और बहुत सख्त लहजे में कहा कि अगर एयर स्ट्राइक नहीं की तो मैं इस्तीफा दे दूंगा। फौरन एयर स्ट्राइक के आर्डर हुए। और फिर सबको मालूम है कि किस तरह पाकिस्तानी फौज को भारी नुकसान उठाना पड़ा।
यहां एक बात और समझ लीजिए कि जिस तरह भाजपा देशभक्ति किसी में कम किसी में ज्यादा का प्रचार करती है। हम नहीं करते। हर देशवासी में समान रूप से होती है। मगर यह परिवार खुद पाकिस्तान से लड़ने को खड़ा हो जाता है इसलिए इसकी देशभक्ति हमेशा बहुत मुखर होकर सामने आती है। 1947 सबको मालूम है कि पाकिस्तान द्वारा कबाइलियों के भेस में अपनी सेना कश्मीर में घुसा दिए जाने के बाद शेख अब्दुल्ला खुद अपने नेशनल कान्फ्रेंस के साथियों के साथ लाठी लेकर लड़ने पहुंच गए थे।
और क्या बताएं? कांग्रेस की देशभक्ति पर! एनसी से समझौता करने पर सवाल तो उस पर उठाए हैं। मगर यह बताना देश के महान स्वतंत्रता संग्राम का अपमान हो जाएगा जो कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ा गया। सवाल तो उठाते हैं वह कांग्रेस पर। मगर यह वैसा ही है जैसे भरत से सुत पर भी संदेह!
तो एनसी और कांग्रेस के समझौते पर सवाल उठाकर भाजपा ने खुद अपने ऊपर ही सवाल उठवा लिए हैं। नहीं तो वैसे जम्मू-कश्मीर के चुनाव में छोटी राजनीति की बात नहीं होती। पाकिस्तान को आईना दिखाने के लिए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हम हमेशा कश्मीर को एक मॉडल के तौर पर पेश करते हैं कि किस तरह हमने यहां लोकतंत्र बना कर रखा है। चुनी हुई सरकार होती है। हालांकि पहली बार यहां चुनावों में दस साल का गेप हो गया है। पिछला विधानसभा चुनाव 2014 में हुआ था।
अब भाजपा की इन्हीं छोटी-छोटी राजनीति की वजह से वह सब याद आ जाता है जो ऐसे मौके पर कहना नहीं चाहते थे। मगर यह खुद चीजों को वहीं ले आ रहे हैं जैसे दूसरे राज्यों के चुनावों में करते हैं। हां तो पहले वह बता दें जो 2014 विधानसभा की बात लिखते हुए याद आ गया। इस चुनाव में मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई। 25 सीटों के साथ बीजेपी नं. दो पर। और मोदी जी ने खुद पीडीपी से मिलकर सरकार बनाई। मुफ्ती के शपथ ग्रहण में जम्मू पहुंचे। और जो खास बात बता रहे हैं वह यह कि मोदी जी के सामने मुफ्ती ने कश्मीर में चुनाव करवाने का श्रेय पाकिस्तान और अलगाववादियों को दिया। मोदी जी चुप। लेकिन इसी एनसी ने इस पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की। एनसी के उमर अब्दुल्ला ने कहा कि इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
भाजपा की देशभक्ति की परिभाषाएं उसके राजनीतिक लाभ के मुताबिक हमेशा बदलती रहती हैं। मोदी जी क्या कहते? उससे पहले वे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने खुद के शपथ ग्रहण में बुला चुके थे। उसके बाद पठानकोट के एयरफोर्स स्टेशन पर आतंकवादी हमले जिसमें हमारे सात जवान शहीद हो गए थे उसकी जांच के लिए पाकिस्तान की जेआईटी (उनकी गुप्तचर एजेन्सियों के बड़े अधिकारियों की टीम) पठानकोट आ गई। उसने यहां हमारे लोगों से पूछताछ की। आज तक ऐसा नहीं हुआ था। वही हमला करवाए और वही जांच करे?
लेकिन लोग बेवकूफ बन रहे हैं तो उन्हें बनाया जा रहा है। खुद मोदी अचानक पाकिस्तान गए थे। मगर सवाल कांग्रेस और एनसी से पूछे जाते हैं। कांग्रेस के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो दस साल में एक बार भी पाकिस्तान नहीं गए।
और मोदी जी बनने के एक साल के अंदर चले गए थे। वाजपेयी भी गए थे। पूरी बस लेकर। और मुशर्रफ को आगरा भी बुलाया था। हमने कहा ना कश्मीर के चुनाव इसलिए नहीं हैं कि यह सारी बाते हों। मगर कांग्रेस के खिलाफ शेष देश में माहौल बनाने के लिए भाजपा इस तरह की बातें कर रही है।
जैसे बंगाल विधानसभा चुनाव में उसने राजनैतिक नैतिकता की सारी सीमाएं लांघ दी थीं, इस लोकसभा चुनाव में भी। लगता है वैसा ही वहइस बार जम्मू-कश्मीर चुनाव में करना चाहती है। लेकिन उसे याद रखना चाहिए कि उसके पहले प्रधानमंत्री वाजपेयी ने जब 2002 के विधानसभा चुनाव करवाए थे तो कहा था कि यह किसी पार्टी के जीत हार का चुनाव नहीं हैं देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के चुनाव हैं।
यही बात इससे पहले 1996 में चुनाव करवाने वाले प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने कही थी। और यही 2008 में चुनाव करवाने वाले मनमहोन सिंह ने। कश्मीर दलगत राजनीति से बड़ा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


