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झारखंड में खोई सत्ता हासिल करने के लिए आदिवासी कार्ड खेल रही भाजपा, मरांडी को बनाया लीडरशिप का फेस

भाजपा वर्ष 2019 में मुट्ठी की रेत की तरह हाथ से फिसल गई झारखंड की सत्ता को वापस हासिल करने के लिए आदिवासी कार्ड खेलने की तैयारी कर चुकी है

झारखंड में खोई सत्ता हासिल करने के लिए आदिवासी कार्ड खेल रही भाजपा, मरांडी को बनाया लीडरशिप का फेस
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रांची। भाजपा वर्ष 2019 में मुट्ठी की रेत की तरह हाथ से फिसल गई झारखंड की सत्ता को वापस हासिल करने के लिए आदिवासी कार्ड खेलने की तैयारी कर चुकी है। हेमंत सोरेन की अगुवाई वाले झामुमो-कांग्रेस-राजद के गठबंधन से मुकाबले के लिए बाबूलाल मरांडी को चेहरा बनाकर भाजपा इस राह पर आगे बढ़ गई है।

28 अक्टूबर को पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की मौजूदगी में रांची में एक बड़ी रैली आयोजित करने जा रही है। इसका मकसद भाजपा कार्यकर्ताओं और जनता का यह संदेश देना है कि अब मरांडी ही झारखंड में पार्टी के सर्वमान्य नेता हैं। यह रैली बाबूलाल मरांडी की 17 अगस्त से शुरू हुई संकल्प यात्रा का समापन कार्यक्रम है। इसके पहले जुलाई में पार्टी ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया था।

बीते दो महीनों में वह आठ चरणों में राज्य के 81 में से 71 विधानसभा क्षेत्रों की यात्रा कर चुके हैं। इस दौरान उन्होंने दर्जनों जनसभाएं की। अब उनकी यात्रा के समापन कार्यक्रम में राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा का आना असल में मरांडी के नेतृत्व को पुनर्स्थापित करने की रणनीति का ही एक हिस्सा है। इसकी जरूरत इसलिए है, क्योंकि मरांडी ने पूरे 14 वर्षों के “वनवास” के बाद जनवरी 2020 में भाजपा में पुनर्वापसी तो की, लेकिन पार्टी में उन्हें व्यावहारिक तौर पर पुरानी हैसियत हासिल नहीं हो पाई थी।

मरांडी राज्य के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं, लेकिन 2006 में उन्होंने भाजपा से राह अलग कर झारखंड विकास मोर्चा नामक पार्टी बना ली थी। 14 साल तक भाजपा से अलग रहते हुए उनकी पार्टी ने अपनी एक पहचान तो जरूर बनाई, लेकिन सियासी हैसियत इतनी बड़ी कभी नहीं हुई कि पार्टी अपने बूते झारखंड की सत्ता हासिल कर सके। 2019 का चुनाव आते-आते मरांडी थक चुके थे और उनकी पार्टी भी बेतरह पस्त हो गई थी।

इधर, रघुवर दास के रूप में भाजपा द्वारा राज्य में पेश किए गए पहले गैर आदिवासी नेतृत्व को जनता ने भी 2019 में खारिज कर दिया। पार्टी राज्य की 28 आदिवासी सीटों में से 26 पर पराजित हुई और यह उसके हाथ से सत्ता के फिसलने की सबसे बड़ी वजह रही। ऐसे में भाजपा को एक मजबूत आदिवासी चेहरे की जरूरत थी और मरांडी को भाजपा जैसी पार्टी की।

भाजपा ने 2019 की पराजय के बाद से ही फिर से सत्ता में लौटने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया। तभी से मरांडी को सर्वमान्य लीडर के तौर पर स्थापित करने की कवायद चल रही है।

इधर, मरांडी की गैरमौजूदगी वाली झारखंड भाजपा में अर्जुन मुंडा और रघुवर दास के रूप में दो बड़े नेताओं का उभार हो चुका था। पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व ने मरांडी की वापसी को करा ली थी, लेकिन असल चुनौती यह थी कि पार्टी के भीतर मुंडा और रघुवर के शक्तिशाली गुटों को साधते हुए उन्हें सर्वमान्य नेता के तौर पर कैसे पुनर्स्थापित किया जाए। अब पार्टी ने इसका भी हल ढूंढ़ लिया है। एक तरफ रघुवर दास को ओडिशा का राज्यपाल बनाकर झारखंड में भाजपा की सक्रिय राजनीति से दूर कर दिया गया है, तो दूसरी तरफ अर्जुन मुंडा को झारखंड के मोह से मुक्त होकर केंद्र की सरकार में मंत्री के तौर पर फोकस करने को कहा गया है।

बाबूलाल मरांडी को राज्य में भाजपा की आदिवासी लीडरशिप का चेहरा बनाए जाने के पीछे कई और ठोस वजहें हैं। सबसे पहली बात तो यही कि वह राज्य के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं और इस वजह से पूरे राज्य में उनकी एक मजबूत पहचान है। जनमानस के बीच उनकी स्वीकार्यता को लेकर कोई चुनौती नहीं है।

दूसरी बात, मरांडी उसी संथाल आदिवासी समुदाय से आते हैं, जिस समुदाय से राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन। सबसे आखिरी बात यह कि झारखंड में भाजपा का जो संगठन है, उसे तैयार करने वाले शुरुआती संगठनकर्ताओं में मरांडी अग्रणी रहे हैं। उन्होंने 80-90 के दशक में यहां के एक-एक प्रखंड में भाजपा का संगठन खड़ा करने के लिए जी-तोड़ मेहनत की थी। यह सियासी फलक पर उनके उभार का काल था।

बहरहाल, देखना बाकी है कि 2024 के चुनाव में भाजपा के “आदिवासी कार्ड प्लेइंग टीम” के कप्तान के तौर पर मरांडी किस हद तक खरे उतर पाते हैं।


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