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संकीर्णता का कड़वापन

भोजन की घर पहुंच सेवा यानी ऑनलाइन फूड डिलीवर करने वाली कंपनी जोमैटो के हाल में लिए फैसले से देश में शाकाहार और मांसाहार को लेकर नयी बहस छिड़ गई है

संकीर्णता का कड़वापन
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भोजन की घर पहुंच सेवा यानी ऑनलाइन फूड डिलीवर करने वाली कंपनी जोमैटो के हाल में लिए फैसले से देश में शाकाहार और मांसाहार को लेकर नयी बहस छिड़ गई है। दरअसल मंगलवार को ज़ोमैटो के सह-संस्थापक और सीईओ दीपेन्द्र गोयल ने ऐलान किया कि 100 फ़ीसदी शाकाहारी खाना पसंद करने वाले अपने ग्राहकों के लिए जोमैटो 'शुद्ध शाकाहारी’ डिलिवरी की सुविधा लॉन्च कर रही है। इसे उन्होंने 'शुद्ध शाकाहारी मोड’ बताते हुए कहा था कि इसमें वेजिटेरियन खाना ऑर्डर करने वालों को ऐप पर केवल शुद्ध शाकाहारी रेस्त्रां दिखेंगे और उन्हें नॉन-वेज खाना देने वाले रेस्त्रां नहीं दिखेंगे।

दीपेन्द्र गोयल ने कहा था कि हमारे शुद्ध शाकाहारी राइडरों की टोली शुद्ध शाकाहारी रेस्त्रां से खाना लेकर ग्राहकों तक पहुंचाएगी। इसके लिए हरे रंग के डिब्बे होंगे। शुद्ध वेजिटेरियन खाना और नॉन-वेजिटेरियन खाना कभी एक ही बक्से में नहीं पहुंचाया जाएगा। इतना ही नहीं खाना पहुंचाने वाले कर्मी यानी जोमैटो के डिलिवरी पार्टनर को हरे रंग की पोशाक देने का फैसला भी लिया गया था, लेकिन सोशल मीडिया पर शुरु हुए विरोध को देखते हुए यह फैसला रद्द कर दिया गया। दीपेन्द्र गोयल ने कहा कि वेजिटेरियन खाने की डिलिवरी करने वाले अपने राइडरों की टोली को हम बरक़रार रखेंगे लेकिन उन्हें दूसरों से अलग करने वाले हरे रंग की ड्रेस का इस्तेमाल नहीं करेंगे। हमारे नियमित राइडर और शाकाहारी डिलिवरी वाले राइडर लाल रंग के ही कपड़े पहनेंगे।

जोमैटो अपने कर्मियों को किस रंग की पोशाक देता है या अपने बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए कौन से फैसला लेता है, यह उसके अधिकार क्षेत्र का मामला है। लेकिन जब इन फैसलों से भारत की गंगा-जमुनी तहजीब पर सवाल उठने लगते हैं, तो फिर ऐसे मुद्दों पर व्यापक विमर्श की दरकार होती है। जोमैटो ने आम बोलचाल में प्रचलित शुद्ध शाकाहारी शब्द का ही इस्तेमाल अपनी नयी पहल में किया है। लेकिन इस पर कंपनी को ध्यान देना चाहिए था कि शुद्धता पर केवल शाकाहार का ही अधिकार नहीं है। बल्कि इंसानियत की गरिमा इसी में है कि हर किस्म का भोजन शुद्ध रहे और अशुद्धता किसी के हिस्से में नहीं आए। इसी तरह शाकाहार और मांसाहार की सूचना देने के लिए भोजन के पैकेट पर लाल और हरे बिंदु का होना तो ठीक है, लेकिन यह पृथक्करण कर्मियों की पोशाकों में कतई नहीं होना चाहिए। क्योंकि इससे उन कर्मियों के साथ भेदभाव बढ़ने की गुंजाइश रहेगी। जोमैटो ने पोशाक न बदलने का फैसला लेकर ठीक ही किया है।

गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में देश में भोजन ने जोड़ने की जगह धार्मिक विभेद को बढ़ाने का काम किया है। घर के फ्रिज में गौ मांस रखे होने के संदेह में अखलाक नामक शख्स की भीड़ ने जिस तरह पीट-पीट कर हत्या कर दी थी, वह समाज में बढ़ते भेदभाव की बड़ी चेतावनी थी। लेकिन उस घटना से कोई सबक नहीं लिया गया और धीरे-धीरे मांसाहार और शाकाहार को लेकर झगड़े बढ़ते गए। कभी हिंदुओं के त्योहारों के वक्त मांस की बिक्री रोकी गई, कभी मंदिरों के आसपास मांस की दुकानें हटाई गईं और कभी सड़क पर मांसाहार बेचने वाले ठेलों को निशाने पर लिया गया। भोजन में धर्मांधता तब भी नजर आई, जब भोजन पहुंचाने वाला विजातीय निकला तो उसकी शिकायत की गई। जोमैटो के साथ भी ऐसा प्रकरण हो चुका है। कुछ वक्त पहले ज़ोमैटो से किसी ने ख़ास धर्म के ही डिलिवरी पार्टनर को भेजने का अनुरोध किया था तब दीपेन्द्र गोयल ने कहा था कि भोजन का मज़हब नहीं होता है। लेकिन अब वही जोमैटो शुद्ध शाकाहारी भोजन पहुंचाने की अलग से व्यवस्था कर रहा है।

देश में जिस तरह हिंदुओं को जगाने का आह्वान लगातार किया जा रहा है और शाकाहार को भोजन की शुद्धता का नया पैमाना बना दिया गया है, उसमें जोमैटो कीइस पहल का स्वागत होना स्वाभाविक है। हालांकि लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि भारत में विशुद्ध शाकाहारी भोजन जैसी कोई परंपरा, संस्कृति या इतिहास नहीं रहा है। बल्कि मांसाहार का चलन हिंदू धर्म में भी खासा प्रचलित है। सवर्ण तबकों से लेकर निचली कही जाने वाली जातियों तक मांसाहार की परंपरा कायम है। मिथिलांचल, कश्मीर, बंगाल, ओडिशा, झारखंड, उत्तराखंड, असम, महाराष्ट्र, गोवा से लेकर समुद्र तटीय इलाकों के लगभग सारे ब्राह्मण मांसाहारी हैं। कुछ इलाकों में पूजा के वक्त बकरे की बलि भी दी जाती है। जब इसे परंपरा का हिस्सा माना जाता है तो फिर मांसाहार को हेय दृष्टि से देखने और शाकाहार को शुद्ध कहने का कोई तार्किक आधार नहीं रह जाता है। फिर भी अब भारत में आहार की आदतें भी राजनीति का विषय बन चुकी हैं। इसी राजनीति के चलते आहार के नाम पर जातीय श्रेष्ठता के दिखावे के मौके भी बढ़ रहे हैं। इस गलत चलन को रोकने के लिए समाज में जागरुक प्रयासों की आवश्यकता है, लेकिन फिलहाल यह चलन बढ़ रहा है।

कुछ समय पहले इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति की पत्नी और अब राज्यसभा सांसद सुधा मूर्ति का एक बयान आया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि मैं जब भी यात्रा पर जाती हूं अपने साथ बैग में खाना भरकर ले जाती हूं और उनका सबसे बड़ा डर ये होता है कि चम्मच का इस्तेमाल शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के भोजन में कहीं न किया गया हो। इस बयान को लेकर भी विवाद हुआ था क्योंकि इसमें बहुत से लोगों को जातीय दंभ नजर आया। कई लोगों ने सुधा मूर्ति के दामाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋ षि सुनक की तस्वीर शेयर की, जिसमें वो मांस रखी हुई प्लेट को पकड़े हुए हैं।

सुधा मूर्ति ने भले यह बयान अपनी निजी आदत को बताने के लिए दिया हो, लेकिन यह विचारणीय है कि जब आप सार्वजनिक जीवन में होते हैं, तो आपके व्यवहार का असर व्यापक होता है। गांधीजी ने आहार को लेकर कई तरह के प्रयोग जीवन भर किए। उन्होंने मांसाहार को अपने लिए कभी सहज नहीं माना, लेकिन उनकी बातों या व्यवहार में कहीं भी मांसाहार करने वालों के लिए निकृष्टता का भाव नहीं रहा।

आज जब भारत में भोजन की विविधता पहले से कहीं अधिक बढ़ चुकी है। पारंपरिक व्यंजनों के साथ-साथ विदेशी पकवानों का आस्वाद हमारी रसोई में जुड़ चुका है, तब संकीर्णता के कड़वेपन को बाहर करने की जरूरत कहीं अधिक महसूस हो रही है। उम्मीद है जोमैटो इस पर ध्यान देगा।


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