पक्षियों के संरक्षण की जरूरत
पक्षी हमारे आसपास चारों तरफ हैं। गांव, शहर, जंगल, नदी और तालाब के आसपास, सभी जगह पक्षी देखे जा सकते हैं

- बाबा मायाराम
पक्षी हमारे लिए कई तरह से उपयोगी हैं। उनका संरक्षण बहुत जरूरी है। मेनार गांव जैसी पहल अब और भी जगहों पर चल रही हैं। पक्षी अभयारण्य, वन्य जीव अभयारण्यों में इनके संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं। पक्षियों के प्रति पर्यटकों का भी रूझान बढ़ा है। पक्षी अवलोकन भी बढ़ा है। लेकिन इस तरह की पहलों की और भी जरूरत है। पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता की आवश्यकता है।
पक्षी हमारे आसपास चारों तरफ हैं। गांव, शहर, जंगल, नदी और तालाब के आसपास, सभी जगह पक्षी देखे जा सकते हैं। लेकिन कुछ सालों से देखने में आया है कि कई कारणों से पक्षी संकट में हैं, कुछ तो विलुप्ति के कगार पर हैं। आज इस कॉलम में पक्षी और मनुष्य का रिश्ता क्या है, पर्यावरण में उनका योगदान क्या है, उनके संरक्षण की जरूरत क्यों है, इस पर बातचीत करना चाहूंगा।
छुटपन में हम देखते थे कि चिड़ियों की चहचहाहट से सुबह नींद खुलती थी। पेड़ों पर उनका कलरव होता था। गोरैया आंगन में दाना चुगने के लिए आती थीं। इधर-उधर उड़ती रहती थीं। कच्चे घरों में भी चिड़ियाएं घोंसला बनाया करती थीं। घर,गांव व नदियों के आसपास गिद्ध मंडराया करते थे।
हम देखते थे कि किसान अनाजों की बालियां पक्षियों के लिए पेड़ों पर टांग देते थे। सार्वजनिक स्थानों पर और पेड़ों पर पानी पीने के लिए सकोरे टांग दिए जाते थे। कुएं के मुंडेरों पर पक्षी पानी पीते दिखते थे। उनकी मौजूदगी वातावरण को खुशनुमा बनाती थी।
पक्षियों के बारे में कई कहानियां व गीत हैं। लोककथाएं हैं। संस्कृति और इतिहास में पक्षियों का उल्लेख है। सिनेमा में भी पक्षियों के कारनामे दिखाए जाते रहे हैं। पक्षियों की कई मूर्तियां भी हैं। छत्तीसगढ़ में सुआ नाच व मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में पड़की नृत्य भी प्रचलन में हैं।
हमारे देश में काफी विविधता पाई जाती है, क्योंकि यह गर्म जलवायु वाला देश है। अधिक विविधता गर्म जलवायु वाले देशों में पाई जाती है। ठंडे जलवायु वाले देशों में कम विविधता पाई जाती है। इस तरह, यहां पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां हैं। वे रंग-बिरंगे होते हैं। इन्हें देखना रोमांचक होता है, इनका गीत बहुत मधुर होता है। कई आकार के होते हैं और इनका गान व व्यवहार भी अलग-अलग होता है।
पक्षियों की दुनिया अलग है। मोटे तौर कह सकते हैं कि जो उड़ते हैं, वे पक्षी कहलाते हैं, उनके पंख होते हैं। ऐसा भी दिखाई देता है कि सभी पक्षी एक जैसे होते हैं- वे उड़ते हैं, घोंसला बनाते हैं, अंडे देते हैं। लेकिन बारीकी से देखने पर इनमें काफी भिन्नता है।
इन पक्षियों के अलग-अलग आवास स्थल होते हैं। जलवायु के अनुकूल ये अपने अपने आवास स्थल बनाते हैं। कोई रेगिस्तान में पाया जाता है, तो कोई बर्फीले पहाड़ों पर, कोई नदियों के किनारे तो, कोई समंदर के आसपास आशियाना बनाते है। रंग, रूप, और आवाज, और व्यवहार भी अलग-अलग होता है। ऐसे पक्षी भी होते हैं, जो हजारों किलोमीटर दूर देशों से आते हैं, इन्हें प्रवासी पक्षी कहा जाता है।
पेड़-पौधों के पुनर्जनन में, परागीकरण में, खाद्य श्रृंखला में, फसलों के कीट नियंत्रण में पक्षियों का योगदान अहम है। जंगल को बढ़ाने के लिए भी पक्षियों का योगदान है। कई पेड़ों के बीज पक्षी खाते हैं और उनकी विष्ठा के माध्यम से ये बीज मिट्टी में मिल जाते हैं, जब नमी मिलती है, तब अंकुरित हो जाते हैं। इस तरह नया पेड़ बनता है। पक्षियों की विष्ठा खेतों को उर्वर बनाती है। कौआ, चील और गिद्ध अच्छे सफाईकर्मी की तरह काम करते हैं।
पक्षी भी हमारी तरह प्रकृति का हिस्सा हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में पक्षियों पर कई तरह से खतरा मंडरा रहा है। कई पक्षी विलुप्ति के कगार पर है। कुछ दशकों से पर्यावरण को शुद्ध करने वाले गिद्ध अब नहीं दिखते। घर-आंगन में फुदकने वाली गोरैया भी अब कम दिखती है। तोते भी कम दिखते हैं।
प्रकृति के साथ मानवीय छेड़छाड़ के कारण पक्षियों को नुकसान पहुंचता है। मध्यप्रदेश के जिस इलाके में मैं रहता हूं वहां गेहूं के डंठल खेत साफ कराने का चलन बढ़ गया है जिससे सभी तरह से नुकसान है। खेतों में ठंडलों के साथ पेड़-पौधे व छोटे-मोटे जीव जंतु जल जाते हैं। पेड़ पर ही पक्षी रहते हैं, अगर पेड़ नहीं रहेंगे तो वे कहां रहेंगे।
इसी प्रकार, रासायनिक खेती के कारण कई बार पक्षियों के मरने की खबरें आती रहती हैं। जहरीले कीटनाशकों से उनकी मौत हो जाती हैं। कई बार मोर मरने की खबरें आई हैं। मशीन आधारित खेती के कारण खेतों के आसपास दूर-दूर तक पेड़ दिखाई नहीं देते हैं, इसके कारण पक्षी भी नहीं होते हैं। जबकि खेती के लिए पक्षी बहुत उपयोगी हैं। एक तो वे कीट नियंत्रण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और उनके बीट से भूमि उर्वर होती है।
एक कारण जलवायु बदलाव का भी है। कई बार जब मैं घूमने जाता हूं तो रास्ते में पक्षी मरे पड़े मिलते हैं। इनका एक कारण अधिक तापमान होना है। ज्यादा गर्मी सहन न करने के कारण भी पक्षी मर जाते है। हाल के दिनों में जलवायु बदलाव के कारण नदी-नाले सूखने के कारण भी पक्षियों को पीने के पानी की समस्या से जूझना पड़ता है।
बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकीकरण ने भी पक्षियों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। इसके कारण उन्हें प्राकृतिक रूप से रहने के लिए आश्रय व घोंसले बनाने के लिए पेड़ उपलब्ध नहीं रहते हैं, इससे वे बेघर हो जाते हैं। सड़क चौड़ीकरण के कारण भी बहुत पुराने पेड़ कटते हैं, पक्षियों के आवास स्थल खत्म हो जाते हैं। इसलिए इन सबके मद्देनजर पक्षियों के संरक्षण की बहुत जरूरत है।
पक्षी संरक्षण की एक पहल राजस्थान के मेनार गांव में चल रही है। कुछ समय पहले मुझे इस गांव में जाने का मौका मिला था। यह गांव उदयपुर से 40 किलोमीटर दूर चित्तौड़गढ़ मार्ग पर स्थित है। इस गांव की पहचान पक्षियों के गांव ( बर्डविलेज) के नाम से पहचान बन गई है।
यहां के दो तालाब पक्षियों के लिए हैं। तालाबों का नाम भरमेला और ढंड है। यहां न कोई नाव चलती है, न मछलियों का शिकार। न कोई ध्वनि प्रदूषण है और न ही कोई मानवीय गतिविधि। एकाध साल पहले तक तालाब की जलभूमि में खेती होती थी। तरबूज-खरबूज की खेती होती थी। गांव के लोगों ने सामूहिक रूप से निर्णय लेकर उसे भी बंद करवा दिया जिससे पक्षियों की गतिविधियों में कोई खलल न पड़े।
पक्षियों की सुरक्षा के लिए गांव वाले सचेत हैं। इसके लिए गांव के लोग और पक्षी प्रेमी सचेत हैं। उन्होंने तालाब के किनारे लगे पेड़ों को काटने पर पाबंदी लगाई है। तालाब के ऊपर से बिजली का हाईटेंशन तार गया था, उसे हटवाया। इससे पक्षी तार से टकराकर मर जाते थे। प्रदूषित पानी को तालाब में जाने से रोकने के लिए फैसला लिया।
यहां पक्षियों को परेशान करने वाली किसी प्रकार की गतिविधियों पर गांव वालों की नजर रहती है। जैसे कोई फोटोग्राफर पक्षियों को उड़ा कर तस्वीरें लेता है तो भी उसे ऐसा करने से रोका जाता है। स्वाभाविक तरीके से तस्वीरें लेने पर कोई मनाही नहीं है।
पक्षियों के प्राकृतिक रूप से अऩुकूल वातावरण बना रहे, इसकी कोशिश की जाती है। गांव के पक्षी मित्र धर्मेंद्र मनेरिया बताते हैं कि कई बार यह बात सामने आती है कि तालाब को पर्यटन की दृष्टि से कृत्रिम रूप से कांक्रीट-सीमेंट से बनाया जाए। लेकिन इससे पक्षियों को नुकसान होगा।
यहां 170 से ज्यादा पक्षियों की प्रजातियां हैं। जिसमें स्थानीय व प्रवासी पक्षी दोनों शामिल हैं। यहां जलीय व स्थलीय दोनों तरह के पक्षियों की प्रजातियां हैं। प्रवासी पक्षी ज्यादातर शीत ऋतु में आते हैं और यहां रहते हैं। अधिकांश चिड़ियाएं यहां जाड़े के समय आती हैं, वे ज्यादा ठंडे वालों इलाके से अपेक्षाकृत कम ठंडे इलाकों में रहना पसंद करती हैं।
अब यही शिवा डुबडुबी यहां की शान है। तालाब किनारे हम शिवा डुबडुबी को बहुत देर तक देखते रहे। सिर पर कलगी,लम्बी चोंच और पानी में खेलते इसे देखना आनंददायक था। वह जरा सी आहट पर पानी में डुबकी लगा लेती। तैराक जैसी चपलता और फुर्तीली। पानी में रहती है और पानी में ही तैरता हुआ घोंसला बनाती है, उसी में प्रजनन करती है।
यहां साल भर सैलानियों, पक्षी प्रेमियों, पक्षी निरीक्षकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं और प्रकृतिप्रेमियों का तांता लगा रहता है। वे यहां आते हैं, तालाब किनारे पक्षियों को निहारते हैं, उन्हें कलरव सुनते हैं और नीले समंदर की तरह विशाल तालाब में पक्षियों की अठखेलियां और क्रीडाओं का आनंद लेते हैं।
कुल मिलाकर, पक्षी हमारे लिए कई तरह से उपयोगी हैं। उनका संरक्षण बहुत जरूरी है। मेनार गांव जैसी पहल अब और भी जगहों पर चल रही हैं। पक्षी अभयारण्य, वन्य जीव अभयारण्यों में इनके संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं। पक्षियों के प्रति पर्यटकों का भी रूझान बढ़ा है। पक्षी अवलोकन भी बढ़ा है। लेकिन इस तरह की पहलों की और भी जरूरत है। पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता की आवश्यकता है।
इस दिशा में निजी स्तर पर भी पहल की जा सकती है, जैसे रासायनिक खेती की जगह प्राकृतिक खेती को अपनाना, ऐसे जहरीले पदार्थों का इस्तेमाल न करना, जिनसे पक्षियों को खतरा है। ऐसे घर बनाना जिनमें वे उनके घोंसले आसानी बना सकें। लेकिन क्या हम इस पहल में जुड़ने और उसे आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं?


