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बाबूजी का जीवन वृत्त

श्री मायाराम सुरजन का जन्म श्री गणेशराम और श्रीमती चम्पादेवी सुरजन की संतान के रूप में होशंगाबाद (म.प्र.) जिले के खापरखेड़ा ग्राम में 29 मार्च 1923 को हुआ था

बाबूजी का जीवन वृत्त
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श्री मायाराम सुरजन का जन्म श्री गणेशराम और श्रीमती चम्पादेवी सुरजन की संतान के रूप में होशंगाबाद (म.प्र.) जिले के खापरखेड़ा ग्राम में 29 मार्च 1923 को हुआ था। खापरखेड़ा, नर्मदा नदी के तट पर बसा उपजाऊ भूभाग वाला गांव है।

जब मायाराम 6 वर्ष के थे, उनके पिता- जो कृषि महाजनी व्यवसाय से जुड़ी एक संस्था में अल्प वेतन पाने वाले मुनीम थे, पक्षाघात से पीड़ित हो गए। जिससे उनकी नौकरी जाती रही और बालक मायाराम को अपनी पढ़ाई जारी रखने में घोर मुसीबतों का सामना करना पड़ा। उन दिनों मिडिल स्कूल पिपरिया में था और अपनी स्कूली- शिक्षा पूरी करने के लिए बालक मायाराम को करीब के रेलवे स्टेशन तक आने के लिए प्रतिदिन 8 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। अपने गांव तथा उसके आसपास के गांव के वे पहले 'मिडिल पास' छात्र रहे। बाद में आगे की पढ़ाई के लिए वे वर्धा गये। वर्धा जाना इसलिए संभव हुआ, कि उन्हें छात्रवृत्तियां तथा वहां के 'स्वावलंबी छात्रावास' (सस्ता और अपना भोजन खुद बनाना) में रहने की जगह मिली। यहीं वे महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू और अन्य प्रमुख स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के संपर्क में आए।

यहीं उनमें पत्रकारिता के प्रति रुचि जाग्रत हुई। वे वर्धा हिन्दी साहित्य छात्र समिति द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पत्रिका 'प्रदीप' के संपादक चुने गए। 'प्रदीप' पत्रिका के कुछ पुराने अंक आज भी दैनिक देशबन्धु कार्यालय की लाईब्रेरी में सुरक्षित हैं, जिससे उनकी लेखन- अभिरुचि और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन से सीधे जुड़े होने का पता चलता है।

मायाराम सुरजन जी ने अपने पत्रकार जीवन की शुरूआत बाकायदा नागपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक नवभारत के प्रबंधकीय विभाग में सहायक रूप में की थी।
पत्रकारिता जगत के मध्यप्रदेश राज्य के मार्गदर्शक के रूप में ख्यात स्वर्गीय मायाराम सुरजन सही मायनों में स्वप्नदृष्टा और कर्मनिष्ठ तथा अपने बलबूते सिद्ध एक आदर्श पुरुष थे। वे बहुपठित और जनप्रिय राजनैतिक टिप्पणीकार थे और अनेक कृतियों के लेखक भी। उन्हें पूरे साठ वर्ष (1944-1994) की पत्रकारिता का अनुभव रहा।

वे अनेक सामाजिक और साहित्यिक संस्थाओं के साथ-साथ मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से भी वे जुड़े रहे, जिसके वे 18 वर्ष तक अध्यक्ष रहे। ये सब तो उनके पांच दशकों के उत्कर्ष भरे जीवन के पड़ाव थे। चूंकि वे शुरू से ही अखबार के प्रचार- प्रसार - प्रबंधन - विपणन सभी विभागों में गहरी दिलचस्पी लेते रहे, हालांकि संपादन उनकी पहली पसंद थी, इसलिए उनके नियोक्ता स्व. रामगोपाल माहेश्वरी ने भरोसे के साथ उन पर अखबार से संबंधित कई जिम्मेदारियों के अलावा, 1950 में जब नवभारत का जबलपुर संस्करण शुरू किया तो मायाराम सुरजन को इसका संपादक और प्रकाशक नियुक्त किया।

मायाराम जी ने न केवल सफलतापूर्वक संस्करण शुरू किया बल्कि दो वर्ष की अल्प अवधि यानी 1952 में अखबार का सेटेलाइट संस्करण भोपाल से शुरू किया। 1 नवम्बर 1956 को मध्यप्रदेश राज्य के पुनर्गठन के बाद भोपाल संस्करण को एक स्वतंत्र और परिपूर्ण संस्करण में बदलने का निश्चय कर मायारामजी इसके व्यवस्थापक, संपादक के रूप में भोपाल आए। यहां उन्हें महसूस हुआ, कि प्रदेश की राजधानी होने के कारण यहां एक अंग्रेजी अखबार की भी जरूरत है, अत: एक वर्ष के भीतर ही उन्होंने मध्यप्रदेश क्रॉनिकल 'अंग्रेजी समाचार-पत्र' का स्वप्न साकार कर दिया। वैसे इस पत्र-समूह के साथ इसके बाद उनके संबंध ज्यादा नहीं रह पाए।

नवभारत से पृथक होने के बाद मायारामजी ने लाभचंद छजलानी के आग्रह पर 17 अप्रैल 1959 से नई दुनिया का रायपुर से प्रकाशन शुरू किया। रायपुर प्रदेश का एक उपेक्षित शहर था, जिससे उनका पूर्व परिचय भी नहीं था। उस समय छत्तीसगढ़ अंचल में सिर्फ एक समाचार पत्र का प्रकाशन हो रहा था और जहां अच्छे स्तरीय समाचार पत्र के लिए काफी गुंजाइशें थीं। यह एक ऐसे समाचार पत्र की शुरूआत थी जिसे हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में नए आयाम और स्तरीयता के मानदंड अटूट प्रतिबद्धता के साथ समाचार की महत्ता- सज्जा तथा निष्पक्षता, जिम्मेदारी और मिशन में व्यावसायिकता से समझौता न करने की अपनी नीति के चलते जल्दी ही, मुकम्मिल और विशिष्ट पहचान बना ली।

लगभग डेढ़ दशक बाद यही नई दुनिया, देशबन्धु में परिवर्तित हो गया। मायाराम सुरजन का जीवन दुर्धर्षपूर्ण, हमेशा चुनौतियों से जूझने में बीता। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया और अपने इन्हीं मूल्यों को पोषित करने की दृढ़ता के कारण बड़ी कीमतें चुकाईं। कई बार उन्हें आर्थिक तंगी और भावनात्मक स्तर पर भी गहरी चिंता का सामना भी करना पड़ा था, लेकिन इन सबके बावजूद अपने व्यक्तिगत अहसासों को उन्होंने कभी अपनी सृजनात्मक प्रतिबद्धता पर हावी होने नहीं दिया। वे ऐसे व्यक्ति के रूप में जिए, जिनमें किसी से दुश्मनी, कड़वाहट, या बदला लेने की भावना नहीं थी। उन्होंने अंतिम सांस भी 31 दिसम्बर की रात भोपाल में दूरदर्शन का रात 8.30 बजे का समाचार बुलेटिन देखने के बाद ली।


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