गालिब के नगर में बनारस दिखाएगी बीनू राजपूत की फिल्म
मिर्जा गालिब पर यूं तो देश दुनिया के लेखकों ने बहुत कुछ लिखा है। मिर्जा गालिब हमारे देश के उन बेशकिमती नगीनों में से हैं, जिनको गए हुए सदियां बीत गई मगर आज भी उनकी शायरी

नई दिल्ली। मिर्जा गालिब पर यूं तो देश दुनिया के लेखकों ने बहुत कुछ लिखा है। मिर्जा गालिब हमारे देश के उन बेशकिमती नगीनों में से हैं, जिनको गए हुए सदियां बीत गई मगर आज भी उनकी शायरी, नज्में, गजलें, आदि को जब भी हम कहीं सुनते या पढ़ते हैं तो मानो लगता है कि खुद गालिब साहब ने अपनी महफिल बैठा ली है।
बनारस के कण-कण से गालिब को बेइंतहा मोहब्बत थी, जिसके चलते उन्होंने अपनी फारसी मसनवी चिराग-ए-दैर में बनारस की सभ्य संस्कृति को देखते हुए इसे काबा-ए-हिंदोस्तान का दर्जा दिया। उनकी दार्शनिक सोच की मुरीद दिल्ली की फिल्मकार बीनू राजपूत ने अपने रिसर्च के दौरान किए अध्ययन में गालिब के नजरिये वाले बनारस को दिखाने के उद्देश्य से 30 मिनट की फिल्म काबा-ए-हिंन्दोस्तान का निर्माण किया है।
आवाम को गालिब की नगर के बनारस से रूबरू कराने के लिए वह इस फिल्म की स्क्रीनिंग का आयोजन 17 फरवरी 2018 को दिल्ली स्थित इंडिया इस्लामिक सेंटर में कर रही हैं। फिल्म की शूटिंग बनारस में की गई है। फिल्म का स्क्रीप्ट वसीम हैदर हाशमी ने लिखी है। बीनू बताती हैं, फिल्म में बनारस की मौज, सौंदर्य के साथ ही हर उस पक्ष को संजोया गया है जिसे गालिब ने शब्दों से संवारा है। बनारस में गालिब ने वर्ष 1827-1828 में फारसी मसनवी चरागे-ए-दैर लिखा। वह इस शहर में पांच दिन गुजारने आए थे पर यहां की आबो हवा में ऐसे रमे कि करीब चार माह यहां रूक गए। सामान्य भाव में चरागे-ए-दैर मतलब मंदिर का दीप होता है।
बनारस में रहने के दौरान गालिब ने बनारस के घाटों, भंवरों की गुनगुनाट, तंग गलियों, मंदिर की आरती और बनारस के मिजाज को कलमबद्ध किया है। उन्होंने इस नगर को हिन्दुओं की ईबादतगाह और हिन्दुस्तान का काबा करार दिया। बीनू ने बताया कि गालिब ने अपने मित्र को लिखे खत में जिक्र किया था कि बनारस में आकर उनका मन है कि माथे तिलक लगा, जनेऊ पहन गंगा किनारे अंतिम सांस तक ठहर जाऊं। फिल्म में गालिब की सोच के अनुरूप ही बनारस को दिखाने का प्रयास किया गया है।


