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उत्तर प्रदेश में विपक्ष का बड़ा राजनीतिक प्रदर्शन 20 दिसंबर से

तीन हिंदी भाषी राज्यों में हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों में अपनी करारी हार से सबक लेते हुए कांग्रेस नेतृत्व सावधानी से कदम बढ़ा रहा है

उत्तर प्रदेश में विपक्ष का बड़ा राजनीतिक प्रदर्शन 20 दिसंबर से
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- अरुण श्रीवास्तव

तीन हिंदी भाषी राज्यों में हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों में अपनी करारी हार से सबक लेते हुए कांग्रेस नेतृत्व सावधानी से कदम बढ़ा रहा है। 19 दिसंबर को इंडिया गठबंधन की बैठक के ठीक बाद यह यात्रा विपक्ष के नेताओं को प्रेरित करने और उन्हें एक सार्वजनिक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए महत्वपूर्ण कदम होगी।

भाजपा की कथित जनविरोधी सरकार से छुटकारा पाने के लिए उत्तर प्रदेश कांग्रेस अब 20 दिसंबर को सहारनपुर के शाकंभरी देवी मंदिर से अपनी उत्तर प्रदेश जोड़ो यात्रा शुरू करेगी जो २५ दिनों तक चलने के बाद नैमिषारण्य (सीतापुर) में समाप्त होगी। इस दौरान यात्रा उत्तर प्रदेश के १० पश्चिमी और मध्य जिलों के १६ संसदीय क्षेत्रों से होकर गुजरेगी।

जाहिर तौर पर यह यात्रा कांग्रेस का शो है, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और पार्टी नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के अलावा वरिष्ठ विपक्षी नेता, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव, बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और कई वरिष्ठ विपक्षी नेता भी भाग लेंगे।
तीन हिंदी भाषी राज्यों में हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों में अपनी करारी हार से सबक लेते हुए कांग्रेस नेतृत्व सावधानी से कदम बढ़ा रहा है। १९ दिसंबर को इंडिया गठबंधन की बैठक के ठीक बाद यह यात्रा विपक्ष के नेताओं को प्रेरित करने और उन्हें एक सार्वजनिक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए महत्वपूर्ण कदम होगी।
आरएसएस द्वारा चुनावी प्रबंधन की कमान संभालने और रणनीति तैयार करने के साथ, कांग्रेस के लिए इंडिया ब्लॉक के घटकों को एक साथ लाने और आरएसएस की योजना को चुनौती देने की रोमांचकारी तात्कालिकता पैदा हो गई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भाजपा और नरेंद्र मोदी भगवा राजनीतिक पारिस्थितिकी तंत्र का सार्वजनिक चेहरा होंगे, मतपत्र की मुख्य लड़ाई आरएसएस द्वारा लड़ी जायेगी।

भाजपा के चुनावी तंत्र पर अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखने का आरएसएस का संकल्प इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों के रूप में अपने तीन भरोसेमंद कैडरों को स्थापित करने की योजना में स्पष्ट रूप से प्रकट होता है, भले ही इन राज्यों में भाजपा को जीत दिलाने के लिए मोदी को श्रेय दिया जा रहा है। स्पष्ट राजनीतिक मजबूरियों के कारण आरएसएस नेतृत्व मोदी को दरकिनार करना पसंद नहीं करेगा, लेकिन तब यह उन्हें चुनावी रणनीतियों और तैयारियों में हस्तक्षेप करने की अनुमति भी नहीं देगा।

हालांकि मोदी और अमित शाह को उत्तर प्रदेश में पार्टी के लिए रणनीतिकार माना जाता है और वे स्पष्ट रूप से राज्य के नेताओं के साथ बातचीत कर रहे हैं, यह आरएसएस नेतृत्व है जो दिशानिर्देश जारी कर रहा है और नीतियों और कार्यक्रमों को तैयार कर रहा है। यद्यपि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आरएसएस कैडर नहीं हैं, संघ नेतृत्व उनकी नाव को बर्बाद करने को तैयार नहीं है।

सत्ता विरोधी खतरे को खत्म करने के लिए आरएसएस ने जिला इकाइयों के पदाधिकारियों में फेरबदल और बदलाव का काम किया है। आरएसएस का मुख्य निशाना पश्चिमी उत्तर प्रदेश रहा है। संयोग से २०१३ के मुजफ्फरनगर दंगे के बाद आरएसएस ने इस क्षेत्र में एक मजबूत आधार हासिल कर लिया था। लेकिन हालिया किसान आंदोलन के मद्देनजर क्षेत्र में राजनीतिक परिदृश्य और समीकरण बदल गये हैं। जिन जाटों ने मुसलमानों पर खतरनाक हमले किये थे, वे अविश्वास के तत्व पर काबू पा चुके हैं और अब मुसलमानों के साथ अच्छे संबंध बना रहे हैं। जाटों ने भाजपा से नाता तोड़ लिया है। भाजपा के लिए बुरी खबर यह है कि हिंदू किसानों के एक बड़े वर्ग ने भाजपा की ओर से मुंह मोड़ लिया है। किसान आंदोलन के दौरान मरने वाले ८०० किसानों में से अधिकांश राज्य के पश्चिमी क्षेत्र के थे।

यह भाजपा से हिंदू अलगाव का तत्व है जिसने कांग्रेस को उत्तर प्रदेश जोड़ो यात्रा को पश्चिमी यूपी में केंद्रित करने के लिए प्रेरित किया है। २०२४ के आम चुनाव पर नजर रखते हुए सपा, बसपा और कांग्रेस ने मुस्लिम वोटों को लुभाने की कोशिशें तेज कर दी हैं। फिर भी वे देश के राजनीतिक रूझान का अनुसरण करना पसंद कर सकते हैं और वे हो सकता है कि कांग्रेस के पीछे चल दें।

कांग्रेस भाजपा को हरा सकती है, लेकिन राज्य से लोकसभा सीटें जीतने के लिए उसे हिंदुत्व को लेकर आरएसएस द्वारा शुरू किये गये मनोवैज्ञानिक युद्ध को हराना होगा।
राज्य में जाति निर्णायक कारक रही है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व स्थानीय जाति क्षत्रपों तक पहुंचने में विफल रहा है। उत्तर प्रदेश में १७ आरक्षित लोकसभा सीटें हैं, जिनमें से अधिकांश पर दलित वोट बैंक का प्रभाव है। लेकिन सच तो यह है कि न तो समाजवादी नेता अखिलेश और न ही कांग्रेस ग्रामीण स्तर पर इस आबादी तक पहुंच पाई है। कांग्रेस के दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का जादू दलितों को कितना प्रेरित करेगा, यह अभी साफ नहीं है।

२०२४ के चुनाव में दलित मतदाताओं का विश्वास जीतना, जो धीरे-धीरे मायावती और बसपा से दूर हो रहे हैं, विपक्षी दलों का प्राथमिक मिशन रहा है।
योगी के सत्ता में आने के बाद पिछले सात सालों में भाजपा ने समाजवादी पार्टी और बीएसपी से कई दलित नेताओं को अपने पाले में कर लिया है। हाल के महीनों में अखिलेश अपने 'पीडीए' (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) नारे के जरिये दलित मतदाताओं को जोड़ने में सक्रिय हैं। लेकिन यह काम करता नजर नहीं आ रहा है। दलित यादवों के वर्चस्व को लेकर सशंकित हैं। दलित नेताओं को लगता है कि वे न तो समाजवादी पार्टी में और न ही भाजपा में स्वीकार्य हैं। उनसे बस दिखावा किया जाता है।
कांग्रेस के साथ समस्या यह है कि वह इस उलझन में फंसी हुई है कि किसके साथ गठबंधन किया जाए- चाहे यह ऊंची जातियों के साथ हो या दलितों के साथ। दोनों के बीच घोर विरोधी संबंध हैं। वह स्थानीय दलित नेताओं द्वारा गठित विभिन्न छोटे दलित उन्मुख दलों के साथ तालमेल को लेकर भी उलझन में है।

एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि कांशीराम की विरासत पर कब्ज़ा किया जा रहा है। सभी दल उन्हें और उनकी विचारधारा को पहचानने का प्रयास कर रहे हैं। ९ अक्टूबर को कांग्रेस ने उनके आदर्शों पर केंद्रित 'दलित गौरव यात्रा' शुरू की। सपा भी बाबासाहेब अंबेडकर और कांशीराम दोनों का आह्वान करते हुए 'संविधान बचाओ जन चौपाल' आयोजित कर रही है। राष्ट्रीय राजनीतिक दिग्गजों को अपने पाले में करने में माहिर आरएसएस ने सभी प्रतिस्पर्द्धियों को पछाड़ते हुए प्रतिस्पर्धा कड़ी कर दी है।

हाल के विधानसभा चुनावों में ३५ प्रतिशत वोट शेयर के साथ समाजवादी पार्टी राज्य की सबसे बड़ी पार्टी है और यह इंडिया गठबंधन का हिस्सा भी है। यह एक मिथ्या आख्यान है कि मोदी के करिश्मे ने भाजपा को २०१९ के चुनाव में ६२ लोकसभा सीटें जीतने में मदद की थी। सच तो यह है कि पुलवामा में सैनिकों की हत्या के बाद की लहर मोदी और भाजपा के लिए आश्चर्यजनक रूप से लाभदायी साबित हुई। अगर पुलवामा कांड नहीं हुआ होता तो भाजपा की सबसे बुरी हार होती। तीन राज्यों में जीत का श्रेय मोदी को देते हुए, विश्लेषक अक्सर इन राज्यों में आरएसएस द्वारा निभाई गई भूमिका को नजरअंदाज कर देते हैं। यदि मोदी वास्तव में निर्णायक होते तो उन्होंने आरएसएस को इन राज्यों में आरएसएस कार्यकर्ताओं को मुख्यमंत्री बनाने की अनुमति नहीं दी होती।


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