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कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न : सामाजिक न्याय की जीत

प्रसिद्ध समाजवादी नेता एवं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकु र को भारत सरकार की ओर से भारत रत्न (मरणोपरात) देने का मंगलवार को ऐलान किया गया जो देश में सामाजिक न्याय और समतामूलक समाज के निर्माण की ज़रूरत को मान्यता मिलने जैसा है

कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न : सामाजिक न्याय की जीत
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प्रसिद्ध समाजवादी नेता एवं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकु र को भारत सरकार की ओर से भारत रत्न (मरणोपरात) देने का मंगलवार को ऐलान किया गया जो देश में सामाजिक न्याय और समतामूलक समाज के निर्माण की ज़रूरत को मान्यता मिलने जैसा है। इसे लेकर लोगों में हर्ष तो है, परन्तु उससे ज्यादा वे अचंभित हैं क्योंकि इसका ऐलान ऐसी सरकार के द्वारा हुआ है जिसका विश्वास और विचार इसमें कतई नहीं है। इसलिये अनेक लोगों का कहना है कि यह निर्णय सम्मान से कहीं अधिक सियासती समीकरणों को साधने के उद्देश्य से दिया जा रहा है। बहरहाल, इस पुरस्कार के लिये कर्पूरी ठाकुर जैसी शख्सियत का चुनाव उन सभी को संतुष्ट करता है जिनका विश्वास जातिविहीन व समतामूलक समाज में है और जो चाहते हैं कि सभी संसाधनों एवं अवसरों तक दलितों, वंचितों, पिछड़ों, अति पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं समेत सभी कमजोर वर्गों की पहुंच बने। कर्पूरी ठाकुर इसी के पुरोधा थे।

बिहार के मुख्यमंत्री का पद पहली बार दिसम्बर 1970 से जून 1971 तक और फिर जून 1977 से अप्रैल, 1979 तक सम्हालने वाले कर्पूरी ठाकुर का जन्म ठीक 100 साल पहले यानी 24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर में हुआ था और निधन 17 फरवरी, 1988 को। 1942 में महात्मा गांधी द्वारा छेड़े गये भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण उन्हें भागलपुर की जेल में लम्बी यातनापूर्ण सजा काटनी पड़ी। वे आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, मधु लिमये आदि के नज़दीकी लोगों में थे। 1967 के आम चुनाव में उनके नेतृत्व में संयुक्त समाजवादी दल (संसोपा) बड़ी शक्ति बनी तथा वे पहली बार सीएम बने। बाद में वे सांसद बने, विधानसभा में विपक्षी दल के नेता भी रहे। उनका दूसरा कार्यकाल बहुत उल्लेखनीय रहा जिसमें उन्होंने सामाजिक न्याय की अवधारणा को साकार किया। अपनी सादगी, ईमानदारी और कर्तव्य परायणता के लिये प्रसिद्ध कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों, वंचितों, शोषितों के लिये उल्लेखनीय कार्य किये जिसके कारण उन्हें 'जननायक' कहा जाने लगा। वे एक ओजस्वी वक्ता थे। आजादी के आंदोलन के दौरान उन्होंने पटना के कृष्णा टाकीज़ हॉल में छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा कि 'हमारे देश की आबादी इतनी है कि उनके केवल थूक देने से ही अंग्रेजी राज उड़ जायेगा।' इस भाषण से अंग्रेज अधिकारी इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने उन पर जुर्माना ठोंक दिया। आजादी के बाद भी वे लोगों को अपने अधिकारों के लिये सतत लड़ने हेतु प्रेरित करते रहे। उनका लोकप्रिय नारा था-

'सौ में नब्बे शोषित हैं, शोषितों ने ललकारा है।
धन, धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है।'

कर्पूरी ठाकुर अति पिछड़ा जाति (नाई) के थे। हालांकि इस जाति की आबादी बहुत कम है, परन्तु अपने विचारों व जीवन शैली के कारण वे सभी वर्गों में बेहद लोकप्रिय थे। पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण देने वाले कर्पूरी के ही मार्गदर्शन में समस्त पिछड़े वर्गों ने सत्ता पाने के लिये धु्रवीकरण किया। समाजवादी विचारधारा एवं हिन्दी के प्रसार के अलावा किसानों तक कृषि का अधिकतम लाभ पहुंचाने की उन्होंने व्यवस्था की।

उन्हें ऐसे वक्त में मोदी सरकार ने देश का यह सर्वोच्च पुरस्कार देने का ऐलान किया है जब भारत की राजनीति दो खेमों में बंटी हुई है। एक ओर है राममंदिर, जिसका नेतृत्व स्वयं श्री मोदी अपनी भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिनिधि के रूप में कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ कांग्रेस है जो सामाजिक न्याय का मुद्दा उठाये हुएर् है। उसके साथ अन्य तकरीबन 27 गैर भाजपायी दल है- 'इंडिया' गठबन्धन के नाम व रूप में। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी जातिगत जनगणना कराना चाहते हैं। वे बताते हैं कि देश में सबसे ज्यादा पिछड़े वर्ग के लोग हैं जिन्हें सत्ता में उसी अनुपात में भागीदारी मिलनी चाहिये। सवर्णवादी सोच पर आधारित भाजपा व संघ की जमीन इसके कारण खिसकी हुई है क्योंकि दोनों इस विचारधारा के विपरीत धु्रव पर खड़े हैं। नरेन्द्र मोदी तो कह चुके हैं कि देश में केवल दो ही जातियां हैं- गरीब और अमीर।

22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर के भव्य उद्घाटन के बिलकुल दूसरे दिन अगर कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा होती है तो साफ है कि सामाजिक न्याय की आंच अब भाजपा के नज़दीक पहुंच चुकी है। राममंदिर का प्रभाव देशवासियों पर वैसा होता नहीं दिख रहा है जिसकी मोदी को अपेक्षा थी। भाजपा सोचती थी कि राममंदिर से भावना का वैसा ही ज्वार उठ खड़ा होगा जैसा 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले हुआ था- बालाकोट एवं पुलवामा के चलते। अगले तीन महीनों में होने जा रहे आम चुनाव में तय है कि सामाजिक न्याय का हथियार विपक्ष के पास होगा जिसका मुकाबला मोदी को अपने राममंदिर नामक शस्त्र से करना है।

सभी जानते हैं कि श्री मोदी प्रतिपक्ष के प्रति कतई उदार नहीं हैं। अगर वे ऐसे किसी व्यक्ति को सम्मानित करते हैं तो उसके पीछे कोई सियासी खेल ज़रूर होता है। खासकर, वे किसी के बरक्स किसी अन्य को खड़ा करने के लिये ऐसा करते हैं। मसलन, नेहरू को नीचा दिखाने के लिये उन्होंने सरदार पटेल की मूर्ति लगवा दी। गांधी परिवार को नीचा दिखाने के लिये प्रणव मुखर्जी या फिर पं. मदन मोहन मालवीय को यह पुरस्कार इसी सरकार द्वारा दिया गया। इसलिये जब सामाजिक न्याय के इस महानायक को भारत रत्न मिलता है तो लोगों द्वारा राजनीतिक अर्थ ढूंढ़ना स्वाभाविक है। क्या भाजपा इससे सामाजिक न्याय का मुद्दा हथियाना चाहती है या बिहार में अपनी जमीन को मजबूत कर चाहती हैं? उससे भी बड़ा सवाल, कि क्या वे इसमें कामयाब होगी?


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