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बहुजन जागृति का प्रतीक है भारत बंद

आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये कतिपय निर्णयों के खिलाफ़ बुधवार को आयोजित सफल भारत बन्द इस बात का प्रतीक है कि अपने अधिकारों को लेकर दलित, ओबीसी एवं आदिवासी वर्ग फिर से जागरूक हो चले हैं

बहुजन जागृति का प्रतीक है भारत बंद
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आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये कतिपय निर्णयों के खिलाफ़ बुधवार को आयोजित सफल भारत बन्द इस बात का प्रतीक है कि अपने अधिकारों को लेकर दलित, ओबीसी एवं आदिवासी वर्ग फिर से जागरूक हो चले हैं। अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों में क्रीमीलेयर को मिल रहे आरक्षण तथा कोटा के भीतर कोटा बाबत शीर्ष न्यायालय के फैसलों से नाराज़ दलित संगठनों ने इस राष्ट्रव्यापी बन्द का ऐलान किया था। कोर्ट ने कहा था कि सरकार चाहे तो कोटे के भीतर कोटा तय कर सकती है। यह संविधान के अनुच्छेद 341 के खिलाफ नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि राज्य सरकारें इस बाबत मनमर्जी फैसला नहीं कर सकतीं। कोर्ट ने दो शर्तें भी लगाई हैं। उसने साफ किया है कि एससी के भीतर किसी एक ही जाति को शत-प्रतिशत आरक्षण नहीं दिया जा सकता और एससी में शामिल किसी जाति का कोटा तय करने से पहले उसकी हिस्सेदारी का पुख्ता डेटा होना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय उन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए फैसला दिया था जिनमें कहा गया है कि आरक्षण का फायदा कुछ ही जातियों को मिल रहा है और अनेक जातियां इससे वंचित हैं।

दलित संगठनों के इस बंद को बहुजन समाज पार्टी, भीम आर्मी, भारत आदिवासी पार्टी आदि ने भी समर्थन दिया था। अनेक राज्यों में यह बेहद सफल रहा है। इन संगठनों के बड़ी संख्या में कार्यकर्ता बंद में शामिल रहे। उनकी मांग है कि सुप्रीम कोर्ट इस फैसले को वापस ले या पुनर्विचार करे। भारत बंद के अनेक राजनीतिक निहितार्थ हैं। इसे हाल के दिनों की एक महत्वपूर्ण परिघटना मानना चाहिये क्योंकि पिछले लगभग एक दशक से जो दलित, आदिवासी और ओबीसी वर्ग सड़कों की लड़ाई छोड़ चुका था और उनके नेताओं ने अपने ही वर्गों के हितों को दरकिनार कर दिया था, वे भी साथ खड़े और उनके पक्ष में लड़ाई करते हुए दिखे। बसपा प्रमुख मायावती, जिन पर अक्सर भारतीय जनता पार्टी की 'बी' टीम होने का आरोप लगता रहा है, किसी आंदोलन का सीधा समर्थन करती दिखीं। हालांकि यह आंदोलन सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ़ कहा जा रहा है परन्तु उसका एक सिरा सत्ता में भी जाकर खुलता है क्योंकि केन्द्र ने इसे समय रहते स्पष्ट नहीं किया कि इस फैसले को लेकर वह क्या करने जा रही है और किस तरह से वह आरक्षण पर आंच नहीं आने देगी। अभी उसे संघ लोक सेवा आयोग के जरिये केन्द्रीय सचिवालय में उप सचिव स्तर के अधिकारियों की सीधी भर्ती (लेटरल एंट्री) का कदम वापस लेना पड़ा था। इस भर्ती में कोई पद आरक्षित नहीं थे। जब इसका सीधा विरोध हुआ तब सरकार को इस भर्ती को रद्द करना पड़ा।

ऐसे निर्णयों के कारण अब जनता के कान खड़े हो गये हैं, खासकर उनके जिन्हें आरक्षण का लाभ मिलता रहा है। सरकार करीब 45 पद लेटरल एंट्री के जरिये भरने जा रही थी। यह बात सामने आई कि अगर वह भर्ती प्रतिस्पर्धा एवं परीक्षा के जरिये होती तो उसके जरिये आधे से ज्यादा पद ओबीसी, दलितों, आदिवासियों एवं अन्य आरक्षित वर्गों को मिलते। इसके खिलाफ कांग्रेस नेता राहुल गांधी, मायावती, अखिलेश यादव आदि ने आवाज़ उठाई जिसका परिणाम यह हुआ कि खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को केन्द्रीय कार्मिक मंत्रालय को आदेश देकर यह विज्ञापन रद्द कराना पड़ा। हालांकि केन्द्रीय मंत्री अर्जुन सिंह मेघवाल का कहना है कि 'सरकार कहीं से भी आरक्षण को खत्म नहीं करने जा रही, लेकिन विपक्ष लोगों को इस बात को लेकर भ्रमित कर रहा है।'

सवाल यह है कि सरकार इस बाबत अपना सीधा व स्पष्ट बयान क्यों अब तक जारी नहीं कर पाई और कोर्ट के सामने भी अपना पक्ष नहीं रख सकी कि आरक्षण की व्यवस्था बनी रहेगी तथा सम्बन्धित वर्गों को कोई नुकसान नहीं होने जा रहा है। इसके पीछे खुद सरकार दोषी है। जनता की यह धारणा बन गई है कि केन्द्र सरकार आरक्षण विरोधी है। यह धारणा विकसित करने में स्वयं भारतीय जनता पार्टी का हाथ है। लोकसभा चुनाव के पहले जब भाजपा ने 370 और 400 पार का नारा लगाना शुरू किया था तो उसका मकसद संविधान को बदलना बतलाया गया था। यह बात भाजपा के कई उम्मीदवार सार्वजनिक तौर पर कहते रहे। अनंत हेगड़े, अरूण गोविल, लल्लू सिंह, ज्योति मिर्धा आदि चुनावी रैलियों में ऐलान करते रहे कि भाजपा को इतना बड़ा बहुमत इसलिये चाहिये क्योंकि उसे संविधान बदलना है। कहना न होगा कि भाजपायी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग सदा से इसी विचार के रहे हैं।

भारत बंद को लेकर मायावती ने आरक्षण पर मंडराते खतरे के लिये भाजपा के साथ ही कांग्रेस को भी जिम्मेदार ठहराया है। हालांकि इसके लिये कांग्रेस कैसे जिम्मेदार है, यह तो उन्होंने स्पष्ट नहीं किया पर यह इसलिये गलत है क्योंकि दलितों, ओबीसी एवं आदिवासियों के जिस आरक्षण के अधिकार को हड़पने के लिये भाजपा लालायित रही, उसका सबसे पहले मुकाबला तो कांग्रेस ने किया था, न कि मायावती ने। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनावों में और पांच माह पहले हुए लोकसभा चुनावों में बसपा की जो दुर्गति हुई उसका मुख्य कारण यही था कि उसका वोट बैंक कांग्रेस तथा समाजवादी पार्टी की ओर खिसक गया। भाजपा की आरक्षण विरोधी नीति का मायावती ने कभी भी प्रखर विरोध नहीं किया। जो भी हो, भारत बंद बहुजन चेतना की जागृति ही है।


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