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रूदादे-सफर-देहदान जैसे जटिल विषय का बखूबी चित्रण

पंकज सुबीर एक गजलकार, संपादक, कथाकार और उपन्यासकार हैं

रूदादे-सफर-देहदान जैसे जटिल विषय का बखूबी चित्रण
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- सुधा ओम ढींगरा

पंकज सुबीर एक गजलकार, संपादक, कथाकार और उपन्यासकार हैं। पंकज सुबीर का नया उपन्यास 'रूदादे-सफर' है। यह उपन्यास जिस भूमि पर लिखा और तराशा गया है, उसकी आधे हिस्से की सूखी और आधे हिस्से की गीली माटी है। दोनों हिस्सों को एक साथ लेकर चलना, जिससे कोई हिस्सा कमजोर न पडे, लेखन का कमाल होता है।

विज्ञान और चिकित्सा जैसे शुष्क विषय और संबंधों जैसे भावुक और संवेगों से भरपूर विषय को लेकर उपन्यास रचा गया है। दो विपरीत विषयों का ताना-बाना बुन कर पंकज सुबीर ने पिता और पुत्री के रिश्ते पर एक खूबसूरत उपन्यास लिखा है। माँ और बेटी के रिश्ते पर तो काफी लिखा गया है, पर पिता और बेटी के रिश्ते पर बहुत कम लिखा गया है। पंकज सुबीर ने इस उपन्यास में बखूबी पिता-पुत्री की भावनाओं का चित्रण किया है। चिकित्सा विज्ञान में एनॉटमी पर भी खूब शोध से लिखा है। उपन्यास में लेखक ने एनॉटमी, रिश्तों और भावनाओं के ऐसे पैटर्न डाले हैं, कि सबने मिल कर उपन्यास को विशाल बना दिया है। चिकित्सा विज्ञान में एनॉटमी पर लिखा गया यह उपन्यास हिन्दी साहित्य को नायाब तोहफा है।

पंकज सुबीर की कहन शैली पाठक को बाँधे रखती है। कहन के साथ-साथ चित्रात्मक विवरण का उत्तम प्रयोग हुआ है, उसी का कमाल है कि एनाटॅमी जैसे शुष्क विषय को मनोभावों की चाशनी में ऐसा मिलाया है कि पता ही नहीं चलता कब भावनाओं में बहते-बहते एनॉटमी का ज्ञान भी मिल जाता है। पंकज सुबीर के पास किस्सागोई की कला है, जिसका उपयोग कर इस उपन्यास को रोचक और अंत तक उत्सुकता जगाए रखने वाली कृति बना दिया है।

डॉ. राम भार्गव और डॉ. अर्चना भार्गव के माध्यम से लेखक ने पिता-पुत्री के रिश्ते को बडी शिद्दत से अभिव्यक्त किया है। इसने कई जटिल समस्याओं को सुलझाया है और कठिन परिस्थितियों का मुकाबला किया है। घटनाओं की भरमार और उतार-चढाव नहीं और न ही कई अन्तरकथाएँ चलती हैं। जो कथा व पात्र साथ चलते हैं, वे कथ्य की बुनावट और आकार देने में सहयोगी बनते हैं। लेखक ने पिता-पुत्री के प्यार में माँ को अलग-थलग नहीं होने दिया। बल्कि माँ के गुस्से वाले स्वभाव के बावजूद बेटी अर्चना की नजरों में माँ की छवि डॉ. राम भार्गव बहुत गरिमामय बनाते हैं। माँ के बारे में बेटी को बताते हैं- हम वही बनते हैं जो हमें हमारी जिंदगी शुरू के बीस-पच्चीस वर्षों में बनाती है, हमारा स्वभाव, हमारी आदतें, हमारी पसंद-नापसंद, सब कुछ हमारे जीवन के शुरू के पच्चीस सालों में तय हो जाता है। तुम्हारी मम्मी वही है जो उनको जिंदगी ने बना दिया है। वे अपनी मर्जी से ऐसी नहीं हुई। जब भी कोई हमेशा कडवा बोलता है, तो असल में वह हमको कडवा नहीं बोल रहा होता है, जिंदगी ने उसके साथ जो अन्याय किया है, वह उस अन्याय के प्रति अपनी प्रतिक्रिया दे रहा होता है। वह अपने आप में नहीं होता है । हम यह समझ लेते हैं कि यह कडवाहट हमारे प्रति है, जबकि हम अगर ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है।'

पुष्पा भार्गव यानी अर्चना की माँ के तेज स्वभाव, और कडवा बोलने की कमी को कितनी खूबसूरती से डॉ.भार्गव ने अपनी बेटी के सामने रखा है। अक्सर लेखकों से ऐसी चूक हो जाती है कि एक का प्यार दर्शाते हुए दूसरा साथी खलनायक या खलनायिका बन जाता है। पंकज सुबीर ने रिश्तों में बहुत संतुलन रखा है। उपन्यास का प्रारंभ जहाँ से होता है, वहाँ ऐसा लगता है कि यह भी एक माता, पिता के अलगाव का दंश झेलने वाली बेटी की कहानी है, जिसमें सारी नकारात्मकता माँ के हिस्से में रखी जानी है। लेकिन जैसे-जैसे उपन्यास आगे बढता है, वैसे-वैसे पाठक रिश्तों की नयी व्याख्याएँ, नई परिभाषाएँ सीखता है, समझता है। रिश्तों का समीकरण बिलकुल नए रूप में पाठक के सामने आता है। पिता और पुत्री के बीच जो कोमल रिश्ता है, एक-दूसरे को समझने की समझ से भरा जो संबंध है, उसके कारण माँ अलग-थलग नहीं हो जाती। उपन्यास में माँ का पात्र जो प्रारंभ में पाठक के मन में एक शंका पैदा करता है, वह अंत तक आते-आते पाठकों का प्रिय पात्र हो जाता है, बावजूद इसके कि यह पिता और पुत्री की कहानी है।

उपन्यास अकेलेपन की भी नए सिरे से व्याख्या करता है। वह अकेलापन जो अर्चना के जीवन में है। अर्चना का प्रेम परवान नहीं चढता, और माँ की मृत्यु के बाद वह पिता के अकेलेपन की खातिर शादी नहीं करवाती। संगीत का शौक उसके अकेलेपन को भरता है। लेखक के कहन कौशल ने उसका भी बहुत सुंदर चित्रण खींचा है- एकाकीपन अपने आप में उदास और भूरे रंग का होता है, उस पर इसमें अगर अतीत के पन्नों से रिस-रिसकर आ रही स्मृतियों का धूसर रंग भी मिल रहा हो तो यह उदासी बहुत बेचैन कर देने वाली हो जाती है। अर्चना को ही पता है कि पूरे समय गाने सुनकर घर में संगीत की उपस्थिति रखकर वह अपने आप को भ्रम में रखने का प्रयास कर रही है कि वह अकेली नहीं है।

मगर जब आप अपने ही मन को भुलावे में रखने की कोशिश करते हैं, छलावा देने का प्रयास करते हैं तो आप शत प्रतिशत मामलों में असफल सिद्ध होते हैं। आपका मन हमेशा आपसे एक कदम आगे ही चलता है। बस आपकी हर चाल समझता है। आप उसे भुलावा देते हैं और वह भुलावा खा जाने का भुलावा आपको देता है। मन...कितने गह्वर है इसके अंदर... इसकी खलाएँ छिपी हुई है इसके अंदर। जब तक हम जिंदा रहते हैं तब तक विचारों के कितने सितारे टूट-टूट कर इन खलाओं में समाते हैं। अकेलेनपन के ऐसे कई चित्र इस उपन्यास में पाठक को मिलते हैं। ये सारे चित्र इतनी कलात्मकता के साथ बनाए गए हैं, कि अकेलापन भी एक तरह की रूमानियत से भरा हुआ दिखाई देता है।

यह उपन्यास संवादों के माध्यम से कहानी को बहुत अच्छे से पाठक तक संप्रेषित करता है। संवाद इतनी सहज और बोलचाल की भाषा में लिखे गये हैं कि पाठक उपन्यास को पढते समय अपने आप को उस बातचीत का हिस्सा समझने लगता है। पुष्पा जी का कैंसर के अंतिम दिनों में बेटी से संवाद बहुत भावुक कर देता है। जिस तरह पिता, बेटी को माँ की कमियों का कारण और उससे पैदा हुए उसके स्वभाव के बारे में बडी मोहब्बत से बताता है, उसी तरह माँ, अर्चना को उसके पिता के स्वभाव और असूलों के प्रति अपनी भावनाएँ बडे प्यार और आदर से बताती है। बेटी अर्चना को अपने माँ-बाप के प्यार और एक दूसरे के प्रति उनके सम्मान का पता चलता है। लेखक ने बडे ही सुंदर तरीके से अलग-अलग स्थलों पर इस तरह का चित्रण कर उपन्यास को उदासियों के बीच रोचक और रिश्तों को मर्यादित बना दिया है। डॉ. राम भार्गव और पुष्प भार्गव अस्सी के युग का दंपति है, उस समय का दाम्पत्य समर्पण, सम्मान और आदर पर टिका था, यही उनका प्रेम था। इजहार कम होता था, केयरिंग और शेयरिंग में अधिक छलकता था।

एक पुत्री के लिए पिता अक्सर 'रोल मॉडल' होता है। पुत्री में पिता की छवि भी कई बार देखने को मिलती है। रुदादे-सफर में डॉ. अर्चना अपने पिता डॉ. राम भार्गव का ही रूप है। डॉ. अर्चना का अपने पिता के प्रति निश्छल भावनाओं को दर्शाता यह उपन्यास अपने साथ एनॉटमी और देहदान जैसे जटिल विषयों को भी उकेरता चलता है।
एनाटॅमी एक रूखा विषय है और देहदान एक सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी। दोनों अलग-अलग छोर हैं। रिश्तों और भावनाओं की बौछारों में इन दोनों छोरों को जिस तरह मिलाया और समाहित किया गया है, यह लेखक के वर्षों के अनुभव का कमाल है।

देहदान को हमेशा संस्कारों से जोड कर अलग कर दिया जाता है, पर रुदादे-सफर में लेखक ने देहदान की उपयोगिता, उसके महत्व तथा उसकी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी को जिस बखूबी से चित्रित किया है, उसकी तारीफ किये बिना नहीं रह सकती। लेखक ने संस्कारों के महत्त्व को भी कम नहीं होने दिया। उपन्यास में देहदान के कई सारे पहलुओं को उजागर किया गया है, जिनको पढते समय पाठक को देहदान का महत्त्व समझ में आता है। लेकिन यह सरोकार उपन्यास पर कहीं भी थोपा हुआ नहीं लगता, या कहीं भी ऐसा नहीं महसूस होता कि देहदान की बात उपन्यास की धारा में शामिल नहीं है। मूल कथा में ही देहदान को इस तरह पिरोया गया है, कि पिता और पुत्री के भावानात्मक संबंधों पर लिखी गई इस कहानी में देहदान जैसा सरोकार भी बहुत खामोशी से कहानी का हिस्सा बन जाता है। इस उपन्यास के एक पक्ष की निस्संकोच चर्चा करना चाहूँगी, एनॉटमी और केडावर (मृत व्यक्ति का शरीर) का ज्ञान जिस सहजता से इसमें दिया गया है, वह बुद्धि और मन को भारी नहीं करता, बल्कि शारीरिक संरचना और शरीर विज्ञान की बहुत-सी जानकारियाँ आसानी से मिलती हैं।

मेडिकल व्यवसाय में बुरी तरह फैल रहे भ्रष्टाचार को भी इस उपन्यास में बडे शोध के साथ बुना गया है। उल्लेखनीय है कि यह उपन्यास चिकित्सा शिक्षा की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, मुख्य पात्र भी चिकित्सक हैं, उसके बाद भी यह उपन्यास चिकित्सा जगत् में इन दिनों व्याप्त सभी प्रकार के भ्रष्टाचार पर बात करता है। सप्रमाण पूरी भ्रष्ट व्यवस्था को परत दर परत खोलता जाता है। साथ ही चिकित्सा व्यवसाय के आने वाले एक भयावह कल का भी चित्र पाठक के सामने प्रस्तुत करता है।।

लेखक ने गीतों और गजलों की मृदुलता का उपयोग कर रूखेपन के खतरे को दूर किया है। जैसे कठोर पानी को मृदु बनाने के लिए जिस प्रकार विभिन्न सामग्रियों का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार इस उपन्यास में भी पंकज सुबीर ने गानों और गजलों का उपयोग किया है, उपन्यास में मृदुलता लाने के लिए। कुछ बेहद लोकप्रिय गजलों का बहुत सुन्दर तरीके से उपयोग उपन्यास को रुचिकर बनाता है। विशेषकर आबिदा परवीन द्वारा गाई गई कुछ गजलें तो जैसे कहानी का ही हिस्सा बन जाती हैं। बहुत पहले प्रसारित हुए दूरदर्शन के धारावाहिक इसी बहाने में चित्रा सिंह द्वारा गाई गई निदा फाजली की गजल के शेर पर इस उपन्यास का अंत होता है-

अब जहाँ भी हैं वहीं तक लिखो रूदादे-सफर
हम तो निकले थे कहीं और ही जाने के लिए...
उपन्यास का शीर्षक भी इसी शे'र से चुना गया है...

लेखन कुशलता का कमाल है, उपन्यास का अंत बडा अप्रत्याशित है। हालाँकि डॉ. अर्चना के बेहोश होकर गिरने के साथ-साथ पाठक भी बेचैन हो जाता है, पर यह अंत उपन्यास को बहुत ऊँचाई प्रदान कर गया है।


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