वर्तमान समय में बापू की बुनियादी तालीम
वर्ष 1937 में जब वर्धा में 'नई तालीम' पर डॉ ज़ाकिर हुसैन समिति काम कर रही थी तो के टी शाह जैसे अत्यंत ही विद्वान शिक्षक और शिक्षाविद से गांधी जी ने पूछा - 'के टी, आप कैसी शिक्षा बना रहे हैं अपने बच्चों के लिए'

- अजीत अवस्थी
बापू के शिक्षा महाअख्यान की चाहना यही थी कि बच्चे को अक्षर ज्ञान के साथ उसके कौशल विकास पर ध्यान देकर उसे स्वरोज़गार की दिशा दी जाए। साथ ही बच्चों में कल्पनाशीलता, जिज्ञासा, तर्कशीलता पूरी तरह से विकसित हो ताकि वह ईमानदारी और बेईमानी में फर्क समझे। बच्चों में यह समझ भी विकसित हो कि सही क्या है
वर्ष 1937 में जब वर्धा में 'नई तालीम' पर डॉ ज़ाकिर हुसैन समिति काम कर रही थी तो के टी शाह जैसे अत्यंत ही विद्वान शिक्षक और शिक्षाविद से गांधी जी ने पूछा - 'के टी, आप कैसी शिक्षा बना रहे हैं अपने बच्चों के लिए'? केटी ने जवाब दिया बापू आप ही बताइए ना- कैसी शिक्षा होनी चाहिए? इस पर गांधी जी ने उत्तर दिया - मान लो,मैं किसी एक कक्षा में जाता हूं और वहां एक सवाल पूछता हूं कि अगर मैंने एक सेब चार आने में खरीदा और उसे एक रुपए में बेच दिया तो मुझे क्या मिलेगा? अगर इस सवाल के जवाब में सारी कक्षा के बच्चे यह कह उठे कि 'आपको इस बेईमानी पर दो साल की सजा मिलेगी' तो मैं मान लूंगा कि हम शिक्षा का ईमान निभा रहे हैं। किसी चीज़ में जरूरत से ज्यादा मुनाफा कमाना देश के साथ बेईमानी है इसलिए हमें प्रयास यह करना चाहिए कि शिक्षा से ऐसे संस्कार और मूल्य दिए जाएं जिससे बच्चों में ईमानदारी का गुण विकसित हो।
गांधी जी का शिक्षा दर्शन बेहद व्यापक और जीवनोपयोगी है। वे मानते थे कि शिक्षा मनुष्य में निहित सर्वश्रेष्ठ को बाहर लाने की क्षमता है। उन्होंने शिक्षा के मुख्य सिद्धातों, उद्देश्यों तथा शिक्षा की योजना को मूर्त रूप देने का प्रयत्न किया।
गांधी जी शिक्षा के विकास का उद्देश्य बुद्धि विकास तक सीमित नहीं मानते थे, उनकी दृष्टि में शरीर के साथ-साथ आत्मा का विकास भी शिक्षण का अंग होगा चाहिए। 31 जुलाई 1937 के 'हरिजन' में उन्होंने लिखा-'शिक्षा से मेरा अभिप्राय यह है कि बालक की, प्रौढ़ के शरीर, मन तथा आत्मा को उत्तम क्षमताओं को उद्धरित किया जाए और बाहर प्रकाश में लाया जाए। अक्षर-ज्ञान न तो शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है और ना उसका आरंभ। यह तो मनुष्य की शिक्षा के कई साधनों में से केवल एक साधन है। अक्षर-ज्ञान पाना अपने आप में शिक्षा नहीं है। इसलिए मैं बच्चों की शिक्षा का श्रीगणेश उसे कोई उपयोगी दस्तकारी सिखाकर और जिस क्षण से वह अपनी शिक्षा का आरंभ करे, उसी क्षण से उसे उत्पादन के योग्य मानकर करूंगा। मेरा मानना है कि इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है।'
गांधी जी की अध्यक्षता में वर्ष 1937 वर्धा में 'अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलनज् आयोजित हुआ था। इस सम्मेलन में विनोबा भावे, काका कालेलकर तथा ज़ाकिर हुसैन भी सम्मलित हुए थे। सम्मेलन के बाद एक प्रस्ताव पास किया गया। इस प्रस्ताव में मोटे तौर पर तीन बिंदुओं पर जोर दिया गया-बच्चों की 7 वर्ष तक राष्ट्रव्यापी नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा, शिक्षा का माध्यम मातृभाषा और सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि इस दौरान दी जाने वाली शिक्षा हस्तशिल्प या उत्पादक कार्य पर केंदित हो। इसके अलावा पर्यावरण हस्तकला, अंक गणित, समाज शास्त्र, भूगोल-इतिहास की शिक्षा की व्यवस्था भी हो। गांधी जी इन विषयों के साथ ही प्राथमिक स्तर पर बच्चों को संगीत-कला और व्यायाम की शिक्षा को भी अनिवार्य समझते थे। शिक्षा के संदर्भ में गांधीजी ने कहा-'शिक्षा की मौजूदा व्यवस्था न सिर्फ फिजूलखर्ची वाली है, बल्कि सचमुच ही नुकसानदायक भी है। लड़के अपने अभिभावकों से, अपने गांवों से, अपने पारंपरिक कौशलों से बिछुड़ जाते हैं। वे बेचारगी में छोटे-मोटे बाबूगीरी वाले कामों पर निर्भर हो जाते हैं और तो और बुरी आदतें व शहरी नकचढ़ापन अपना लेते हैं तथा गांव में किए जाने वाले सारे शारीरिक श्रम को, जिन पर हम सभी निर्भर हैं, जरिया समझने लगते हैं।'
गांधीजी अपने काल में शिक्षा को जिस नजरिये से देखकर उस पर विचार सेतु बना रहे थे,सौ बरस बाद के भारत की बदली हुई सामाजिक,भौगोलिक,आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के बीच क्या उस नजरिए का सेतु ज्यों का त्यों खड़ा रह सकता है? बापू ने शिक्षा में श्रम की प्रतिष्ठा पर जोर दिया। उस समय देश की सामाजिक परिस्थितियां ऐसी शिक्षा व्यवस्था की मांग कर रही थी। इसी तासीर को समझ कर उन्होंने सुझाव दिए कि प्राइमरी शिक्षा में ट्रेडिशनल श्रम आधारित कामों को सिखाया जाना चाहिए। जैसे कुम्हार के पैतृक व्यवसाय वाले बच्चों को मिट्टी के बर्तन, खिलौनो आदि के निर्माण को सिखाना, बढ़ई के पैतृक व्यवसाय वाले बच्चों को कारपेंटर के काम को सिखाना, कृषि आधारित व्यवसाय वाले बच्चों को कृषि, बागवानी आदि को सिखाना। ताकि बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के बाद श्रम करने से जी न चुराएं और मानव श्रम आधारित अपने पैतृक व्यवसाय को आगे ले जाएं।
आज के परिदृश्य में देश की तासीर वैसी नहीं रही है। परंपरागत पैतृक व्यवसाय श्रम आधारित नही रह गए है।अब संसाधनों की उपलब्धता है और मशीनरी का युग है। तब श्रम आधारित शिक्षा पर ही ज़ोर देना कितना उचित होगा? इसे दूसरे तरह से सोचने पर यह ज़रूर लगता है कि बापू के सुझावों को अबके समय के हिसाब से बदलाव करके मान्यता दी जानी चाहिए। जैसे प्राथमिक स्तर पर कई तरह के मशीनरी काम को सिखा कर बच्चों में नए तरह के कौशल विकसित किए जा सकते हैं। यद्यपि ये वो दौर है जब बच्चा स्कूल जाने के पहले ही मोबाइल, कंप्यूटर पर तरह-तरह के गेम, सर्चिंग, सर्फिंग करना सीख जाता है। तब यह कहा जा सकता है कि जिन कामों को बच्चे बारहवीं कक्षा के बाद आईटीआई के माध्यम से ट्रेड लेकर सीखते थे,अब प्राथमिक कक्षाओं में सिखाना आसान हो चला है। कई तरह के व्यावसायिक कौशल विकास पर आधारित शिक्षा दी जा सकती है, जिससे बच्चे अक्षर ज्ञान के साथ-साथ उन योग्यताओं को भी हासिल कर सकेंगे जो भविष्य में उन्हें आत्मनिर्भर और रोजी-रोटी कमाने के काम में आएगी। लेकिन यह भी जरूरी है की शिक्षा में श्रम का तिरस्कार ना किया जाए ।
बापू के शिक्षा महाअख्यान की चाहना यही थी कि बच्चे को अक्षर ज्ञान के साथ उसके कौशल विकास पर ध्यान देकर उसे स्वरोज़गार की दिशा दी जाए। साथ ही बच्चों में कल्पनाशीलता, जिज्ञासा, तर्कशीलता पूरी तरह से विकसित हो ताकि वह ईमानदारी और बेईमानी में फर्क समझे। बच्चों में यह समझ भी विकसित हो कि सही क्या है और गलत क्या। बच्चों को श्रम,ईमानदारी, तर्कशीलता, कल्पनाशीलता की कॉकटेल घुट्टी पिलाई जाए।


