कोटड़ा के किले से निकली बाघा - भारमली की प्रेम कहानी
राजस्थान के बाड़मेर में कोटड़ा के योद्धा राव बाघजी और दासी भारमली की अमर प्रेम कथा आज भी गूंजती है।

बाड़मेर। राजस्थान के बाड़मेर में कोटड़ा के योद्धा राव बाघजी और दासी भारमली की अमर प्रेम कथा आज भी गूंजती है। मरुप्रदेश राजस्थान की प्रेम गाथाओं में मूमल-महेन्द्रा, ढोला-मारु एवं बाघा-भारमली की गाथायें सदियों से गूंज रही हैं।
थार के इस समुन्द्र में कई प्रेम गाथाओं ने जन्म लिया होगा, लेकिन बाघा - भारमली की प्रेम कथा राजस्थान के लोक जगत में विशिष्ट स्थान रखती है। समाज और परम्पराओं के विपरीत बाघा -भारमली की प्रेम कथा बाड़मेर जैसलमेर के कण कण में समाई है।
इस प्रेम कथा को रुठी रानी में अवश्य विस्तार मिला है, लेकिन स्थानीय तौर पर यह प्रेम कथा साहित्यकारों द्वारा उपेक्षित हुई है। चारण कवियों ने अपने ग्रन्थों में इस प्रेम कथा का उल्लेख अवश्य किया है। कोटड़ा के किले से जो प्रेम कहानी निकली वह बाघा- भारमली के नाम से अमर हुई।
मारवाड़ के पश्चिमी अंचल बाड़मेर जैसलमेर से सम्बन्धित यह प्रणय वृतान्त अब भी यहां की सांस्कृतिक परम्परा एवं लोकमानस में जीवन्त है।
उपर्युक्त प्रेमगाथा के नायक बाघजी राठौड़ राजस्थान में बाड़मेर जिले के कोटड़ा ग्राम के थे। वह शूर वीरता और दानशीलता के लिये जाने जाते थे। जैसलमेर के भाटियों के साथ उनके कुल का वैवाहिक संबंध होने के कारण वह उनका समधी (गनायत) थे।
कथानायिका भारमली जैसलमेर के रावल लूणकरण की पुत्री रानी उमादे की दासी थी। वर्ष 1536 में उमा दे का जोधपुर के राव मालदेव (1531- 62) से विवाह होने पर भारमली उमा दे के साथ ही जोधपुर आ गई। वह अप्रतिम सौंदर्य की स्वामिनी थी। विवाहोपरान्त मधुयामिनी के अवसर पर राव मालदेव को उमा दे रंगमहल में पधारने का अर्ज करने के लिये गई दासी भारमली के अप्रतिम सौंदर्य पर मुग्ध होकर राव जी भारमली के यौवन में ही रम गये। इससे राव मालदेव और रानी उमा दे में तकरार हो गई, रानी रावजी से सदा के लिये रूठ गयी। जिससे उमा दे रुठीरानी के नाम से प्रसिद्व हुई।
राव मालदेव के भारमली में ही रत होने से रानी उमा दे के पीहरवाले रुष्ट हो गये और उन्होंने राजकुमारी का वैवाहिक जीवन निर्द्वन्द्व बनाने के लिये अपने यौद्धा गनायत बाघजी को भारमली का अपहरण करने के लिए उकसाया। बाघजी भारमली के अनुपम रुपयौवन से मोहित हो गया और उसका अपहरण करके कोटड़ा ले आया। वह उसके मोहपाश में बंध गया। भारमली भी उसके बल और पौरुष से आकर्षिक होकर उसके प्रति समर्पित हो गई।
इस घटना से क्षुब्ध राव मालदेव ने कविराज आसानन्द को बाघजी को समझा बुझा कर भारमली को लौटा लाने के लिये भेजा। आसानन्द के कोटड़ा पहुंचने पर बाघजी और भारमली ने उनका इतना आदर सत्कार किया कि वह अपने आगमन का उद्देश्य भूलकर वहीं रुक गये। उनकी सेवा सुश्रुषा एवं हार्दिक विनयभाव से अभिभूत आसाजी का मन लौटने की सोचता ही नहीं था। उनके भाव विभोर चित्त से प्रेमीयुगल की हृदयकांक्षा कुछ इस प्रकार मुखरित हो उठी
जहं तरवर मोरिया, जहं सरवर तहं हंस।
जहं बाघो तहं भारमली, जहं दारु तहं मंस॥
तत्पश्चात आसान्नद बाघजी के पास ही रहे। इस प्रकार बाघ-भारमली का प्रेम वृतान्त प्रणय प्रवाह से आप्यायित होता रहा। बाघजी के निधन पर कवि ने अपना प्रेम तथा भाव ऐसे अभिव्यक्त किया
ठौड़ ठौड़ पग दौड़, करसां पेट ज कारणै।
रात दिवस राठौड़, बिसरसी नही बाघनै॥


