बाबूजी का अपनापन
अर्जुन सिंह कैबिनेट के चार वरिष्ठ मंत्री- स्व. झुमुकलाल भेडिय़ा, मनकूराम सोढ़ी, वेदराम जी एवं डा. टुमनलाल एक बार बाबूजी से मिलने 45 बंगले स्थित आवास पर आये

- आनंद शर्मा
अर्जुन सिंह कैबिनेट के चार वरिष्ठ मंत्री- स्व. झुमुकलाल भेडिय़ा, मनकूराम सोढ़ी, वेदराम जी एवं डा. टुमनलाल एक बार बाबूजी से मिलने 45 बंगले स्थित आवास पर आये। बाबूजी का भी 11.30 बजे मंत्रालय में किसी से मिलने का समय तय था। चारों मंत्री सुबह 9.30 पर बंगले पर पहुंच गये, चाय-नाश्ते करते हुए इधर-उधर की बातें करते हुए लगभग 11.15 तक सोफे पर जमे बैठे रहे। चूंकि बाबूजी को भी 11.30 पर मंत्रालय पहुंचना था। वे तीन-चार बार उठकर बाहर आये ताकि वे लोग समझ जाएं और विदा लें। लेकिन वे लोग सोफे पर बैठे गप्प मारते रहे। आखिर बाबूजी ने बड़े ही कठोर शब्दों में उनसे कहा- जब मेरे जैसे बेकार आदमी के पास आप लोग 3-3 घंटे बिता रहे हैं तो सरकार और जनता का काम आप लोग कब और कैसे करते होंगे, सोचकर मुझे आश्चर्य होता है। चारों चुपचाप उठे और अपने-अपने गन्तव्य की ओर रवाना हो गये। बाबूजी भी तत्काल मंत्रालय चले गए।
आद. बाबूजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालना तो सूर्य के सामने दीपक जलाने जैसा है। मैंने उनके सानिध्य में लगभग दो दशक व्यतीत किये हैं। उन जैसे सहज-सरल एवं परोपकारी व्यक्ति मेरे 65 बसंत व्यतीत होने के बावजूद नहंी मिला। अपनों पर अपार स्नेह, प्यार के साथ ही पूरा भरोसा करते थे। उनके साथ बिताये कुछ क्षणों का उल्लेख करना चाहता हूं।
1. मैं उनके निवास पर ही रहता था। उनके एक निकट के मित्र पुलिस मेंं जनसंपर्क अधिकारी के पद पर पदस्थ थे। आद. बाबूजी के पास राजनेताओं और बड़े-बड़े नौकरशाहों का आना-जाना था। उस दौरान पुलिस कर्मचारियों ने एक यूनियन बनाई, उसमें कई मेरे परिचित थे, वे लोग अक्सर मेरे पास आते और प्रेस नोट वगैरह लिखवाते। पी.आर.ओ. साहब को यह बात पता थी और उन्हें यह नागवार भी लगा। उन्होंने बाबूजी से शिकायत करते हुए कहा कि कहीं ऐसा न हो कि यह आपके अखबार में भी हड़ताल न करवा दे। बाबूजी ने तत्काल कहा कि आइन्दा ऐसी बात कभी मत करना। मुझे भरोसा है कि जहां मेरा एक बूंद पसीना बहेगा, वहां ये खून की धार बहा देगा। ऐसा अटूट भरोसा आज के समय में कौन करता है?
2. बाबूजी के कारण मेरा जनसंपर्क विभाग में काफी आना-जाना था। सुदीप बनर्जी डायरेक्टर थे। वहां पर 85 कर्मचारी दैनिक वेतन भोगी के रूप में कार्यरत थे। बाबूजी के प्रभाव को वे जानते थे इसलिये मैं जब भी वहां जाता सारे के सारे मुझे घेर लेते कि बाबूजी से कहकर हम लोगों को परमानेंट करवा दो। बनर्जी साहब उनकी बात नहीं टालेंगे। उन दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों को अहम जिम्मेदारियों का दायित्व भी सौंप रखा था। उस दौरान उन्हें 18 रु. प्रतिदिन पारिश्रमिक दिया जाता था। जो नियमित कर्मचारी थे, वे तो गप्प मारते इधर-उधर घूमते रहते और बेचारे दैनिक वेतन भोगी कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहते।
समस्या यह थी कि आद. बाबूजी से यह बात करे तो कौन- मेरी भी हिम्मत नहीं होती थी। मैंने उनसे अपने लिए भी कभी कुछ नहीं मांगा था। एक दिन मैंने हिम्मत करके 5 लोगों को बंगले पर बुलवाया और बाबूजी से उनकी मजबूरियां बताईं। तब थोड़ा सा मुस्कुराकर बोले-भाई! इसमें मैं क्या कर सकता हूं, अपने संचालक से मिलिए और बात कीजिए। इसके बावजूद उनकी परेशानियां बाबूजी के दिमाग में बैठ गई और उन्होंने बनर्जी साहब से खुद बात की। उन्होंने कहा कि इस मामले में मुख्यमंत्री ही कुछ निर्णय ले सकते हैं। बाबूजी ने तत्काल मुख्यमंत्री से बात की और अगले दिन ही तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह जी ने सन 84 के बाद के समस्त दैनिक वेतन भोगियों को स्थाई करने का आदेश जारी कर दिया। ऐसे परोपकारी व्यक्तित्व आज के समय में कहां हैं?
3. एक बार आद. बाबूजी घर पर किसी बात को लेकर नाराज़ हो गये। उस समय उनके साथ दीपक भैया और मणि भाभी थे। बाबूजी के कमरे में परिवार के लोग बहुत कम आते-जाते थे। सिर्फ मेरा बेरोक-टोक आना जाना था। उस दिन अपने कमरे से नहीं निकले, जबकि 6-6.30 बजे तक वे नित्यकर्म से फारिग होकर खाने की मेज पर चाय पीने आ जाते थे। लेकिन उस दिन उनसे किसी की पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मणि भाभी ने मुझे फोन किया। मैं प्रेस परिसर में ही था, दौड़ लगाते हुए बंगले पहुंचा। भाभी चाय तैयार कर उदास बैठी थी, मुझे देखते ही बोली, भैया बाबूजी आज कमरे से बाहर ही नहीं आये पता नहीं क्यों! मैं बाबूजी के कमरे में गया, उन्होंने कनखियों से देखा बोले कुछ नहीं। कमरे से मैं निकल कर किचन में भाभी के पास गया और कहा कि चाय केतली में भर दीजिए। फिर मैंने कप प्लेट उठाकर डायनिंग टेबल पर रख दिया और कमरे में जाकर बाबूजी से कहा- चाय रखी है। उन्होंने कनखियों से फिर निहारा और चुप-चाप डायनिंग टेबल पर आकर चाय पीने लगे। ऐसा अपनापन और स्नेह आज दूर की कौड़ी है?
उनके साथ जुड़ी हजारों स्मृतियां हैं। दो दशक साथ व्यतीत हो गये, उन्होंने कभी भी मुझसे तेज आवाज में बात नहीं की, न ही कभी सीधे कोई काम बताया। कभी उनकी इच्छा होती तो कहते, यदि ऐसा हो जाए तो कैसा रहेगा। इस वाक्य को पकड़कर चाहे कुछ भी करना पड़ता, हम लोग करने को तत्पर रहते।
आद. बाबूजी की जन्मशती पर उनके चरणों में कोटिश: श्रद्धा सुमन अर्पित।


