किताब के बहाने डॉ कफील को घेरने की कोशिश
साल 2017 में गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी के कारण बच्चों की मौत के बाद चर्चा में आए डॉ कफील खान एक बार फिर सुख़िर्यों में हैं

साल 2017 में गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी के कारण बच्चों की मौत के बाद चर्चा में आए डॉ कफील खान एक बार फिर सुख़िर्यों में हैं। उनके और पांच अज्ञात लोगों के खिलाफ उस किताब को लेकर मामला दर्ज किया गया है, जो डॉ कफील ने दो साल पहले 'द गोरखपुर हॉस्पिटल ट्रेजेडी : अ डॉक्टर्स मेमॉयर ऑफ़ अ डेडली मेडिकल क्राइसिस' शीर्षक से लिखी और प्रकाशित करवाई थी।
लखनऊ के एक व्यापारी मनीष शुक्ला ने पुलिस को की गई अपनी शिकायत में कहा है कि इस किताब के जरिए राज्य सरकार को उखाड़ फेंकने और केंद्र के खिलाफ बातें कही गई हैं। शुक्ला ने आरोप लगाया है, कि लोगों को सरकार के ख़िलाफ़ भड़काने और समाज में विभाजन पैदा करने के लिए डॉ. कफ़ील ख़ान द्वारा लिखी गई किताब बांटी जा रही है।' भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं और प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम के उल्लंघन के तहत दर्ज शिकायत के अनुसार, डॉ. कफील खान की किताब उनके समर्थकों को 'धन जुटाने और अपनी बेगुनाही साबित करने के लिये बेची जा रही है।'
एक खबरिया वेबसाइट के मुताबिक मनीष शुक्ला ने बताया है कि उसने चार-पांच लोगों को फोन पर इस साज़िश के बारे में चर्चा करते हुए सुना। जबकि दूसरी वेबसाइट ने शिकायत का संदर्भ देते हुए लिखा है कि मनीष शुक्ला 1 दिसंबर को किसी काम से माताजी की बगिया गए थे। वहां गुमटी के पीछे चार-पांच लोग बातचीत कर रहे थे। वे सभी राज्य सरकार, उनके मंत्रियों व वरिष्ठ अफसरों को लेकर अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे। वे कह रहे थे कि 'डॉ कफील ने गुप्त रूप से एक किताब छपवाई है, उसे प्रदेश भर में बांटा जा रहा है। वे लोग को किताब लोकसभा चुनाव से पहले समुदाय विशेष के हर शख्स तक पहुंचाने की बात कर रहे थे और कह रहे थे कि किसी भी कीमत पर सरकार को उखाड़ फेंकना है, चाहे इसके लिए दंगा ही क्यों न करवाना पड़े।' शुक्ला ने कहा कि साजिश करने वाले अपनी बातें सुने जाने की भनक लगते ही मौके से भाग खड़े हुए। इस प्रकरण पर आज़ाद अधिकार सेना के अध्यक्ष अमिताभ ठाकुर- जो खुद भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे हैं, ने सवाल उठाया है।
उन्होंने कहा है कि जानबूझकर परेशान करने के लिए यह एफआईआर दर्ज की गई है और कई ऐसी धाराएं लगाई गई है जो स्वयं मामला दर्ज करने के लिए दी गई तहरीर से ही नहीं बनती हैं। इनमें कूटरचना से जुड़ी धाराएं, 465, 467, 471 और किसी पूजा स्थल को क्षतिग्रस्त करने से जुड़ी धारा 295 शामिल है।
श्री ठाकुर ने कहा कि किताब को चोरी-छिपे छपवाये जाने का आरोप भी पूरी तरह गलत दिखाई पड़ता है क्योंकि वह तो ऑनलाइन उपलब्ध है। ऐसा मालूम होता है कि सत्ताधारी पार्टी के विरोध में पुस्तक लिखने के कारण डॉ. कफील के खिलाफ यह मामला दर्ज किया गया है। कृष्णा नगर थाने के एसएचओ जितेंद्र प्रताप सिंह ने भी कहा कि अभी तक किताब में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला है। आज़ाद अधिकार सेना के अध्यक्ष और एसएचओ- दोनों के कथन से साफ़ है कि डॉ. कफील को फिर बलि का बकरा बनाने की कोशिश की जा रही है। वेबसाइट 'द क्विंट' से बातचीत में डॉ कफील खान ने कहा भी कि 'आप देखिए, चुनाव आ रहे हैं और एक पंचिंग बैग की ज़रूरत है। वे ज़ाहिर तौर पर फिल्म के लिए शाहरुख़ खान को तो नहीं छू सकते, लेकिन मेरे ख़िलाफ़ तो कार्रवाई कर सकते हैं।' मालूम हो कि डॉ. कफील ने कुछ दिन पहले ही शाहरुख खान की फ़िल्म जवान का एक हिस्सा अपनी किताब से प्रेरित बताया था और उसके लिये शाहरुख को धन्यवाद भी दिया था।
ये पहली बार नहीं है जब सरकार से असहमत या उसके विरोधी किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ केवल शक या सुनी सुनाई बातों की बिना पर कार्रवाई कर दी गई हो। खुद डॉ कफील अपने कर्तव्य में लापरवाही बरतने के आरोप में महीनों जेल में रहे और फिर अदालत ने बाइज्ज़त उनकी रिहाई का हुक्म दिया। अभी भी कई मामले उनके ख़िलाफ़ चल रहे हैं। सवाल ये है कि उनकी किताब जब दो साल से ऑनलाइन ही सही, बाज़ार में है और ऐसी है कि उससे किसी सरकार को ख़तरा पैदा हो सकता है तो इतने दिन प्रशासन और पुलिस चुप क्यों बैठे रहे?
जिस देश में ज़रा ज़रा सी बात पर लोगों की भावनाएं आहत होने के मामले फ़ौरन कायम हो जाते हैं, सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वालों को नक्सली या आतंकवादी बता दिया जाता है, क्रिकेट टूर्नामेंट में दूसरे देश की जीत पर लोग बिना देर किये गाली-गलौज करने लगते हैं और उस देश की टीम के कप्तान की पत्नी और बेटी से बलात्कार की धमकी देने लगते हैं, वहां एक 'ख़तरनाक' किताब को दो साल तक क्यों बर्दाश्त किया जाता रहा? क्या शिकायत करने वाले ने उस किताब को खुद पढ़ा भी है या महज खुसुर-पुसुर सुनकर उसने किताब के बारे में धारणा बना ली? या फिर शुक्ला जी को शरलक होम्स समझकर उनकी बात को सच मान लिया गया? कहीं ऐसा तो नहीं कि डॉ. कफील को ताउम्र सलाखों के पीछे न रख पाने की खुन्नस उनकी किताब के बहाने निकाली जा रही हो?


