विश्व खाद्य दिवस : हर थाली में अन्न, हर जीवन में गरिमा
भुखमरी और खाद्य सुरक्षा के महत्व के प्रति जागरूकता बढ़ाने, हर साल 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस मनाया जाता है

- अरुण कुमार डनायक
भारत की नीति दिशा—हरित क्रांति से लेकर मिशन पोषण 2.0 तक—यह दर्शाती है कि उद्देश्य केवल भूख मिटाना नहीं, बल्कि हर नागरिक के थाल में संतुलित, पौष्टिक और सम्मानजनक भोजन सुनिश्चित करना है। बेहतर भविष्य की राह तभी खुलेगी जब खाद्यान्न का अधिकार नारे से निकलकर नीति और व्यवहार का हिस्सा बने।
भुखमरी और खाद्य सुरक्षा के महत्व के प्रति जागरूकता बढ़ाने, हर साल 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस मनाया जाता है। यह दिवस वर्ष 1945 में स्थापित संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की वर्षगांठ पर आयोजित होता है और 1981 से इसे विश्व स्तर पर मनाया जा रहा है। वर्ष 2025 की थीम 'बेहतर जीवन और बेहतर भविष्य के लिए खाद्यान्न का अधिकार' है। गत वर्ष की थीम भोजन को अनाज, फल, सब्ज़ियां, दालों , प्रोटीन और अन्य पोषक तत्वों के समग्र रूप में देखती थी, जबकि इस वर्ष का फोकस 'खाद्यान्न' पर है—मानव जीवन के मूलभूत आहार पर ध्यान देकर स्थायी और पौष्टिक समाज की नींव रखना। यह संकेत देती है कि सरकारें अनाज वितरण, भंडारण और सब्सिडी पर विशेष ध्यान देंगी, ताकि हर नागरिक तक अन्न की पहुंच सुनिश्चित हो।
भारत की भोजन परंपरा आदि काल से समृद्ध रही है, जहां भोजन को केवल पेट भरने का नहीं, जीवन संतुलन का आधार माना गया है। तुलसीदासकृत रामचरितमानस में राम-सीता विवाह के अवसर पर परोसे गए विविध व्यंजनों की प्रशंसा मिलती है—
'चारि भांति भोजन बिधि गाई,
एक-एक बिधि बरनि न जाई॥'
आयुर्वेद में भी भोजन के छह रसों— मधुर, खट्टा, लवण, तीखा, कड़वा और कसैला— को शरीर के पोषण और संतुलन के लिए आवश्यक बताया गया है। गांधीजी ने आरोग्य कुंजी में लिखा कि- शाकाहारी व्यक्ति को दिन में तीन बार संतुलित आहार—दूध, अनाज, हरी सब्ज़ियां, घी, गुड़ और फल सहित लेना चाहिए। उन्होंने बौद्धिक जीवन वाले व्यक्ति के लिए प्रतिदिन लगभग 1300 ग्राम भोजन सुझाया।
भारत खाद्य सुरक्षा के प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध है, फिर भी भूख और कुपोषण चुनौतीपूर्ण बने हुए हैं। वैश्विक भूख सूचकांक 2025 में भारत 127 देशों में 107वें स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र संघ का दावा है कि हिंसक संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और आर्थिक असमानता बड़ी आबादी को भूख से पीड़ित कर रहे हैं जबकि ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि औपनिवेशिक दौर में भी भोजन की कमी थी। एफएओ के अनुसार, 2021-23 में भारत की 13.7 प्रतिशत आबादी कुपोषित थी, जो 16.6प्रतिशत (2020-22) से कम है, फिर भी विशाल जनसंख्या और असमानता के संदर्भ में यह चिंताजनक है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार 35.5 प्रतिशत बच्चे बौनेपन, 32.1प्रतिशत कम वजन और 7.7प्रतिशत गंभीर रूप से कम वजन की समस्या से ग्रस्त हैं। पोषण ट्रैकर (जून 2025) भी इन तथ्यों की पुष्टि करता है । ये आंकड़े केवल भोजन की नहीं, बल्कि आहार विविधता की कमी, मातृ-शिशु देखभाल की अपर्याप्तता, महिलाओं की निम्न स्थिति, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और स्वच्छता ढांचे की खामियों को भी उजागर करते हैं।
भारत में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक में प्रोटीन, विटामिन तथा खनिज व कैल्शियम की कमी व्यापक रूप से पाई जाती है, जिसके कारण वे कमजोर मांसपेशियों, हड्डी के रोग और रक्ताल्पता आदि से पीड़ित रहते हैं। भोजन में इन आवश्यक तत्वों की कमी स्वास्थ्य के साथ- साथ कार्यक्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। सरकार इन आवश्यक तत्वों की भरपाई के लिए प्राकृतिक आहार के बजाय रासायनिक पूरकों पर निर्भर होती जा रही है, जो स्थायी उपाय नहीं है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (1947) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (2013) ने पिछले एक दशक में अपना दायरा बढ़ाया है। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना से लगभग 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज मिला, जिससे कठिन समय में न्यूनतम खाद्यान्न सुनिश्चित हुआ। फिर भी उच्च / छिपी बेरोजगारी, स्थिर ग्रामीण मजदूरी और बढ़ती खाद्य कीमतों के कारण खाद्य सुरक्षा पूरी तरह सुनिश्चित नहीं हो सकी है।
भारत ने खाद्यान्न उत्पादन में उल्लेखनीय प्रगति की है। हरित क्रांति ने देश को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाया; 1950 में 5 करोड़ टन उत्पादन था, जो आज लगभग 33 करोड़ टन तक पहुंच गया है। प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्ध खाद्यान्न लगभग 510 ग्राम है। श्वेत क्रांति ने भारत को विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक बनाया और प्रति व्यक्ति दूध उपलब्धता 450 ग्राम प्रतिदिन तक पहुंच गई। नीली क्रांति के तहत मछली उत्पादन 7 लाख टन से बढ़कर 175 लाख टन हुआ। 2023 में अंतरराष्ट्रीय बाजरा वर्ष घोषित होने के बाद भारत ने 'श्री अन्न योजना' शुरू की, जो पौष्टिक और जलवायु-सहिष्णु अनाजों के उत्पादन और उपभोग को बढ़ावा देती है। खाद्यान्न का अधिकार केवल उपलब्धता का नहीं, बल्कि सतत कृषि और प्राकृतिक संसाधनों के संतुलन का भी प्रश्न है।
भारत की खाद्य प्रणाली में महिलाओं की भूमिका निर्णायक रही है; खेत से रसोई तक वे पोषण सुरक्षा की वास्तविक वाहक हैं। उनका सशक्तिकरण ही खाद्य सुरक्षा और पोषण सुधार की स्थायी नींव है। महिला और बाल विकास मंत्रालय की प्रमुख योजना मिशन पोषण 2.0 ने 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों, गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और किशोरी बालिकाओं को पोषण सहायता प्रदान कर भारत की प्रतिबद्धता को मजबूत किया है। रुपये 35153 करोड़ के प्रावधान वाली यह योजना विश्व के सबसे बड़े बाल्यावस्था विकास कार्यक्रमों में से एक है।
हालांकि भारत की खाद्य नीति अभी भी मुख्यत: अनाज वितरण पर केंद्रित है, जिससे संतुलित पोषण सीमित रह गया है। भोजन का अधिकार अभियान और कार्यकर्ता लंबे समय से पीडीएस में दाल, तेल, बाजरा और अन्य पोषक तत्व शामिल करने की मांग कर रहे हैं। देश की 55फीसदी आबादी पौष्टिक आहार का खर्च नहीं उठा पा रही है। इसलिए खाद्य सुरक्षा को मज़दूरी, रोज़गार और मूल्य स्थिरता से जोड़ना अत्यंत आवश्यक है। मनरेगा और अन्य रोजगार योजनाओं में मजदूरी दरें मुद्रास्फीति के अनुसार तय होनी चाहिए, ताकि लोग पोषक भोजन वहन कर सकें। खाद्य सुरक्षा तभी संभव है जब गांधीजी का सपना—हर हाथ को काम और हर पेट को अन्न—वास्तव में साकार किया जाए।
भारत की नीति दिशा—हरित क्रांति से लेकर मिशन पोषण 2.0 तक—यह दर्शाती है कि उद्देश्य केवल भूख मिटाना नहीं, बल्कि हर नागरिक के थाल में संतुलित, पौष्टिक और सम्मानजनक भोजन सुनिश्चित करना है। बेहतर भविष्य की राह तभी खुलेगी जब खाद्यान्न का अधिकार नारे से निकलकर नीति और व्यवहार का हिस्सा बने—ताकि हर थाली में अन्न और हर जीवन में गरिमा सुनिश्चित हो। भविष्य का भारत तभी सशक्त होगा, जब हर बच्चा भूख नहीं, आशा लेकर सोएगा।
(लेखक गांधी विचारों के अध्येता व सामाजिक कार्यकर्ता हैं )


