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देसी दीपावली की जरूरत क्यों है?

हमारे अधिकांश त्योहार खेती-किसानी से जुड़े हैं। कृषि सभ्यता के प्रतीक माने जाते हैं

देसी दीपावली की जरूरत क्यों है?
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  • बाबा मायाराम

पहले स्कूलों में लंबी छुट्टी (24 दिन की) हुआ करती थी, जिसे फसली छुट्टी भी कहते थे। इस दौरान बच्चे उनके मां-बाप के साथ खेतों के काम में मदद करते थे। खेती के तौर-तरीकों सीखते थे, आसपास के पर्यावरण से परिचित होते थे। ज़मीनी हकीकत से जुड़ते थे। रिश्तेदारों के घर जाते थे। अब यह छुट्टी कम हो गई है।

हमारे अधिकांश त्योहार खेती-किसानी से जुड़े हैं। कृषि सभ्यता के प्रतीक माने जाते हैं। लेकिन आज के दौर में कृषि सभ्यता में ठहराव आ गया है। खेती के साथ पशुपालन भी जुड़ा था, खेतों की बैलों से जुताई होती थी, जिसमें अब ट्रेक्टर व हारवेस्टर के आने से इसमें कमी आई है। आज के कॉलम में इन त्योहारों की परंपरा को याद करना जरूरी है, जिससे हम त्योहारों की भाईचारा व जोड़ने वाली परंपराओं को समझ सकें।

हम बचपन से दीपावली के त्योहार को देखते आ रहे हैं। इसकी तैयारी बहुत पहले से की जाती थी। दूरदराज रहने वाले परिजन छुट्टी में घर आते थे। उमंग व उत्साह का माहौल होता था। घर की साफ-सफाई, रंगरोगन, लक्ष्मी पूजा, गोवर्धन पूजा और अन्न (धन धान्य) की पूजा की जाती है। लेकिन अब इन त्योहारों पर बाजार का असर दिखाई देता है। आज रात-रात पर पटाखे फोड़े जाते हैं, उपहार दिए जाते हैं, घरों व सड़कों पर जगमग रंग-बिरंगे बल्बों से रोशनी की जाती है। इस सबमें त्योहार में जो उमंग व उत्साह होता था, पीछे छूटता जा रहा है।

पहले मिट्टी के दीये जलाए जाते थे। अब बिजली के बल्बों से रोशनी की जाती है। मिट्टी के दीये स्थानीय स्तर पर मिट्टी के बनाए जाते थे, जिन्हें बार- बार इस्तेमाल किया जा सकता है। मिट्टी अजर अमर है। अब इसकी जगह बिजली के बल्बों ने ले ली है। मोम के दीये भी आ गए हैं। लेकिन मिट्टी की जो खुशबू है, वह कहीं खो सी गई है।

खेती के पशुपालन जुड़ा है। इस मौके पर गाय-बैल को नहलाया-धुलाया जाता था। बैलों के प्रति विशेष प्रेम तब दिखाई देता है जब उन्हें दीपावली पर रंग-बिरंगी फीते, गेंठा, मुछेड़ी, नाथ और पट्टों से सजाया जाता है। दीपावली के बाद मड़ई-मेलों में बैलगाड़ी से लोग सपरिवार जाते हैं। गाय की पूजा की जाती है। उन्हें अनाज खिलाया जाता है। यानी गाय-बैल को समान रूप से सम्मान मिलता था।

हमारे नर्मदांचल में दीपावली के अगले दिन गोधन बनाई जाती है। देसी बीजों के जानकार बाबूलाल दाहिया बताते हैं कि गो -धन का आशय सीधे गो वंश से था, कृषि आश्रित समाज में घर में जितना गोवंश उतनी अच्छी खेती और उतनी ही सम्पन्नता। पुरानी खेती-किसानी में रूपये-पैसे की पूंजी का कही कोई स्थान नहीं था। गाय बैल ही सम्पन्नता के परिचायक होते थे।

अब रासायनिक खेती के दुष्परिणामों के मद्देनजर आज फिर किसान पुरानी पारंपरिक खेती को याद कर रहे हैं। बाबूलाल दाहिया बताते हैं कि 'हमारे सभी त्योहार खेती से जुड़े हैं। दीवाली भी इनमें से एक है। इसी समय खरीफ की फसलें पककर आने लगती हैं। खुशी व उल्लास का मौका होता है'। किसानों से ही अन्य जातियां जुड़ी हैं। इन सबको इनके काम, सामान व सेवाओं के बदले अनाज दिया जाता है, जिससे इनके घर में खुशियां आती हैं।

वे आगे बताते हैं कि 'इस मौके पर गाय-बैल को सजाया जाता है। उनकी पूजा की जाती है। हल-बक्खर जैसे कृषि-औजारों की पूजा की जाती है। यह वह समय होता है जब किसान के घर में खरीफ की फसल पककर घर आ जाती है- ज्वार, मक्का, चावल और उड़द जैसी दालें। अरहर की फसल को छोड़कर, वह बाद में आती है, सब फसलें आ जाती हैं।

पारंपरिक तौर पर होली का त्यौहार प्राकृतिक रंगों से मनाते आ रहे हैं। जैसे पलाश के फूलों को उबाल कर रंग बनाया जाता था, जो काफी अच्छा रंग होता था। दीवाली में भी चौक इत्यादि आटे से बनाए जाते थे। मिट्टी के दीया जगमग करते थे। गोवर्धन पूजा के दौरान फू ल, पत्तियां व कई तरह के घास को पूजास्थल पर रखा जाता था।

लेकिन अब कृत्रिम रंगों का इस्तेमाल होता है। दीपावली पर रंगोली बनाई जाती है, उसमें कृत्रिम रंगों का इस्तेमाल होता है। कृत्रिम रंगों से रंगोली बनाएंगे तो उससे प्रदूषण होगा। अक्सर त्योहारों में रंगोली बनाई जाती है, दूसरे दिन उसे साफ कर दूसरी रंगोली बनाई जाती है। विशेषकर, दशहरा-दीवाली के दौरान घर-घर में यही देखा जाता है। यह रंगोली अगले दिन कचरे में जाती है। उसके जहरीले रंग मिट्टी, पानी में पहुंचकर प्रदूषण फैलाते हैं। यह कचरा संस्कृ ति है। इसमें हम कितनी सफाई करें, दूसरे दिन फिर कचरा पैदा हो जाता है। इसलिए हमें ऐसी जीवनशैली की जरूरत है, जिसमें कचरा पैदा ही न हो। यह संस्कृति पूर्व में गांव में देखी जाती थी।

लम्बे अरसे से मनुष्य ऐसा करते आ रहे हैं। कई तरह के पेड़-पौधों, पत्तियों, फलों के रस से रंग बनाए जाते हैं। पौधों में रंग बनाने की विशेषता के साथ ही औषधीय गुण भी होते हैं, जिनका उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में होता रहा है। प्राकृतिक व जैविक रंगों की विशेषता यह है कि इनका रंग आसानी से धुल जाता है, जबकि ऑईल पेंट आसानी से साफ नहीं होता, और शरीर की त्वचा के लिए हानिकारक माना जाता है।

इसके अलावा, पहले स्कूलों में लंबी छुट्टी (24 दिन की) हुआ करती थी, जिसे फसली छुट्टी भी कहते थे। इस दौरान बच्चे उनके मां-बाप के साथ खेतों के काम में मदद करते थे। खेती के तौर-तरीकों सीखते थे, आसपास के पर्यावरण से परिचित होते थे। ज़मीनी हकीकत से जुड़ते थे। रिश्तेदारों के घर जाते थे। अब यह छुट्टी कम हो गई है।

लेकिन अब यह लम्बी छुट्टी नहीं होती। शिक्षा से कृषि का जुड़ाव दिखाई नहीं देता है। हाथ से उत्पादन करके सीखने को प्रेरित नहीं किया जाता है। शिक्षा से श्रम का मूल्य गायब है, इसलिए नई पीढ़ी खेती से दूर होती जा रही है। हालांकि इसके और भी कारण हैं, पर यह भी कारण है। अब नई पीढ़ी की खेती में रूचि नहीं है। वे खेती नहीं करना चाहते। इसलिए खेती-किसानी अब पिछड़ती जा रही है।

बाबूलाल दाहिया कहते हैं कि 'अब गांव, खेती, अनाज, लोक कला, संस्कृति पीछे होते जा रहे हैं। औद्योगिक सभ्यता आगे बढ़ रही है। एक दिवाली भागती हुई सभ्यता की प्रतीक बन गई है तो दूसरी दिवाली कृ षि सभ्यता मानो ठहर गई है। एक तरफ दिवाली में गगनचुंबी इमारतों में होने वाली दिवाली की पार्टियों का शोर है तो दूसरी तरफ दिवाली अब गांवों में उजड़ती दिख रही है, खेती और गांव उजड़ती हुई सभ्यता के प्रतीक बन रहे हैं।'

कुल मिलाकर, हमें दीपावली के मौके पर पारंपरिक खेती को याद करना जरूरी है। देसी बीजों की हल-बैल की टिकाऊ खेती की आज पहले से ज्यादा जरूरत है। पशुपालन के साथ खेती होती थी। मनुष्य और गाय-बैल में मूक समझौता था। वे हमें दूध व गोबर देते थे। उनकी गोबर खाद से हमारे खेत उर्वरक होते थे। हम उन्हें फसलों के डंठल चराते थे। इस तरह एक चक्र बना रहता था। शिक्षा में भी श्रम का मूल्य का समावेश जरूरी है, जो कुछ हद तक पूर्व में था। उत्पादन के साथ शिक्षा, जिसे गांधी ने नई तालीम कहा था, उसकी जरूरत है। इसके साथ ही सादगी व बिना प्रदूषण की दीपावली, जो हमारी परंपरा रही है, उसे कायम रखने की जरूरत है। लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे?


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