दुनिया का दादा क्यों फोड़ रहा है टैरिफ के सुतली बम?
अपनी सनक में लिए गए फैसलों से हाहाकार मचा देने के आदी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अब भारत पर 50 प्रतिशत टैरिफ लाद दिया है

- वर्षां भम्भाणी मिर्जा
ट्रम्प की ख़ब्त का कोई ओर-छोर नहीं है। जिस टैरिफ को वे एटम बम बता कर फोड़ते हैं उसकी ताकत सुतली बम से ज़्यादा की न हो क्योंकि इसके पहले मैक्सिको और कनाडा को वे अपना 51वां राज्य बनाने का मंसूबा भी ज़ाहिर कर चुके हैं। फिर उनका ग्रीनलैंड ख़रीदने का मन भी बन गया था। डेनमार्क के डेनिश साम्राज्य के तहत ही ग्रीनलैंड एक स्वतंत्र द्वीप है और इसके नागरिकों ने ही ट्रम्प को टका सा जवाब दे दिया था।
अपनी सनक में लिए गए फैसलों से हाहाकार मचा देने के आदी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अब भारत पर 50 प्रतिशत टैरिफ लाद दिया है। पहले 25 प्रतिशत की घोषणा के बाद अब 25 फीसदी का अतिरिक्त टैरिफ बतौर पैनल्टी इसलिए लगा दिया क्योंकि भारत ने रूस से तेल ख़रीदना (कुल 80 प्रतिशत आयात का 36 प्रतिशत) जारी रखा है; और रखेगा। इसके संकेत भी दे दिए। इसके उलट भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने तो यहां तक कह दिया कि अमेरिका भी तो रूस से यूरेनियम और खाद ख़रीदता है। यही सवाल जब अमेरिकी राष्ट्रपति से एक संवाददाता ने पूछा तो वे इसे सीधे ही टाल गए। 50 प्रतिशत टैरिफ पर विचार के लिए दुनिया के दादा ने भारत को तीन हफ़्तों का समय दिया है क्योंकि तब उनका एक दल ट्रेड डील पर बात करने के लिए भारत में होगा।
यह तो पता नहीं कि बातचीत क्या रुख लेगी, लेकिन अब भारत अमेरिका से पैनल्टी खाने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है। ऐसा तो ट्रम्प ने युद्ध सुलगाने वाले देशों के साथ भी नहीं किया। रूस और इजराइल के आगे अमेरिका की चाल ज़रा नहीं बदलती। विस्तारवादी चीन के आगे भी आंकड़ा 30 फ़ीसदी तक पहुंचा है। भारत के साथ केवल ब्राज़ील खड़ा है जिस पर भी 50 प्रतिशत वाला बम फोड़ा गया है। वहां के राष्ट्रपति लुला डी सिल्वा ने साफ़ कह दिया है कि ब्राज़ील व्यापार के नए अवसर तलाशेगा और अपने देश के उद्योगों को राहत देगा। उधर भारत के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल अभी रूस में हैं और जल्द ही विदेश मंत्री जयशंकर भी जाने वाले हैं। चीन के साथ भी भारत अपनी पॉलिसी शिफ्ट करता हुआ नज़र आ रहा है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस माह के आख़िर में चीन जाएंगे। उनकी यह यात्रा पूरे सात साल बाद हो रही है। ऐसा क्यों हुआ कि 'अब की बार ट्रम्प सरकार' से मज़बूत हुई यह दोस्ती उस कग़ार पर पहुंच गई जहां द्विपक्षीय व्यापार इस क़दर टूटने लगा?
जवाब अंग्रेज़ी में लिखने वाले एक पद्मश्री पत्रकार के लेख में खोजा जा सकता है। अमूमन वे इस सरकार के विचार से अलग होकर कम ही लिखते हैं लेकिन इस बार उन्होंने लिखा है। लेख में सवाल है कि अमेरिका के साथ ऐसी नौबत क्यों आई? लेख के मुताबिक लगभग एक दशक से ऐसा लगता रहा था कि भारत अमेरिका का मज़बूत सहयोगी है। वाशिंगटन से मुक़ाबला करने में पाकिस्तान और बांग्लादेश हमसे बेहतर रहे जबकि हमारे यहां मोदी इकोसिस्टम तो आतंरिक सियासी संघर्ष का शिकार हो गया। सरकार को ऑपरेशन सिंदूर के दौरान अमेरिका को यूं नहीं नकारना चाहिए था। संसद की बहस में यह ध्वनि और स्पष्ट हुई कि सरकार यह नहीं स्वीकारना चाह रही है कि ऑपरेशन सिंदूर को रोकने में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की कोई भूमिका रही। क्या हो जाता जो सरकार कह देती कि 'धन्यवाद ट्रम्प जी, पाकिस्तान को सद्बुद्धि देने और उसे खुद को विनाश से बचाने के लिए!'
पत्रकार का सवाल वाजिब है। आखिर कूटनीति इसे ही तो कहा जाता है और यहां इस बार हम चूके हैं। युद्ध का रुकना कब ग़लत हुआ है। वे लिखते हैं- 'शुरुआत में भारत नरेन्द्र मोदी की नई सरकार के साथ लगातार अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रहा था, जो अपने चरम पर उस वक्त दिखा, जब भारत मंडपम में मोदी से हाथ मिलाने और गले लगने के लिए जी-20 देशों के शासनाध्यक्ष कतार में खड़े नजर आए। भारत दुनिया को और खास तौर से पश्चिम को उपदेश पिला रहा था। यह सब मिलकर सत्तातंत्र के विरोधाभास के दो धु्रवों का पहला धु्रव बनाता है। दूसरा धु्रव तब उभरता है जब जी-20 शिखर सम्मेलन में अमेरिका, कनाडा और दबे रूप से ब्रिटेन के साथ रिश्तों में खटास उभरती है। सिख अलगाववादी नेता हरदीप सिंह निज्जर और गुरपतवंत सिंह पन्नू मसले की छाया उभरी, लेकिन ट्रूडो के कनाडा को छोड़ किसी ने कोई हंगामा नहीं खड़ा किया। पहला झटका लगा, जब तत्कालीन अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने घोषणा की कि बाइडेन को नई दिल्ली में जनवरी में होने वाले क्वाड शिखर सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया गया है और गणतंत्र दिवस की परेड में मुख्य अतिथि बनने का भी न्यौता दिया गया है। उन्होंने इसे रद्द कर दिया, तो फ्र ांस के राष्ट्रपति ने हमें शर्मिंदगी से बचा लिया। इस समय तक हमारा विरोधाभास उभर आया था और उसमें वृद्धि हो रही थी। एक दशक तक यही धारणा बनी रही कि पश्चिमी खेमा भारत को एक महत्वपूर्ण रणनीतिक सहयोगी मानता है। चीन के साथ उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी सेक्टरों में तनाव के दौरान अमेरिकी मदद की खामोश स्वीकृति भी उभरी। हम खुद को पश्चिम का अपरिहार्य व अनिवार्यत: स्वाभाविक सहयोगी मानकर खुश होते रहे लेकिन फिर उसके प्रति इंदिरा युग वाली चिढ़ उभरने लगी थी। लेख का अंत दिलचस्प है जो कहता है- ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्योंकि राहुल गांधी ने संघर्षविराम होने के चंद घंटे के भीतर ही पहला वार कर दिया था कि सरकार ने मध्यस्थता स्वीकार की। राहुल गांधी सरकार को अपना एजेंडा बदलने के लिए अक्सर उकसाते रहते हैं। यह सब पीड़ित होने के गहरे भाव में और इज़ाफा ही करता है।
तब क्या वाकई सरकार विपक्ष की भूल-भुलैया में फंस जाती है। जातिगत जनगणना में भी यही हुआ। इस गणना को सर्वथा नकारने वाली सरकार ने फिर इसे कराने की ठान ली। कुछ महीने पहले बिहार में राहुल गांधी की ज़िद और ललकार ने भी सरकार को प्रेरित किया। बिहार में उन्होंने कहा था- 'पहला कदम यह पता लगाना है कि सच्ची स्थिति क्या है। जाति जनगणना को हम छोड़ने वाले नहीं हैं।'
इससे पहले भी राहुल गांधी संसद में ख़म ठोक चुके थे कि, 'अर्जुन की ही तरह उन्हें भी केवल मछली की आंख दिख रही है और वे जातीय जनगणना करा कर रहेंगे।' वे द्रोणाचार्य द्वारा गुरु दक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा लिए जाने का उदाहरण देकर कह रहे थे कि आपने किस-किस का अंगूठा काटा है, हम यह जानकर ही दम लेंगे।
भारत-अमेरिका के बीच इस तनाव की वजह जानने का एक सवाल जब एआई चैटजीपीटी से पूछा जाता है तो जवाब आता है- साल 2023 में यूएस डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस ने एक भारतीय नागरिक को पन्नू की हत्या की कोशिश का आरोपी ठहराया था और ऐसा ही एक मामला कनाडा में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या से भी जुड़ा देखा गया। इन घटनाओं ने विदेशी धरती पर भारतीय ख़ुफ़िया विभाग को संदेह की निगाह से देखने पर मजबूर किया। समय-समय पर अमेरिकी सरकार और मानव अधिकार संगठनों ने भी भारत में प्रेस की आज़ादी और धार्मिक स्वतंत्रता के मसलों को गंभीर माना। भारत की ओर से असहमत आवाज़ों और गैर सरकारी संगठनों पर सख्ती भी एक वजह रही। अमेरिका में विदेश नीति के केंद्र में लोकतंत्र और मानव अधिकार का नैरेटिव काम करता है, लिहाज़ा तनाव भी बढ़ा। यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में रूस से तेल ख़रीदना भी एक वजह है। बहरहाल इन तमाम कारणों से अलग राष्ट्रपति ट्रम्प जो टैरिफ का खेल चला रहे हैं, उसे खुद अमेरिकी कानून ही शक्ति का दुरुपयोग बता रहा है। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को हिला देने वाले ट्रम्प का असल विरोध भी शायद उन्हीं के देश से होगा क्योंकि लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी को वहां बुनियादी हक़ माना गया है। नोबेल पुरस्कार विजेता (2008) और अर्थशास्त्र के जानकार पॉल क्रुगमैन ने भी कह दिया है कि व्यापार को लेकर ट्रंप जो भी कर रहे हैं वह ग़ैरक़ानूनी है और आंकड़े बता रहे हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था अब धीमी हो चली है।
वैसे ट्रम्प की ख़ब्त का कोई ओर-छोर नहीं है। जिस टैरिफ को वे एटम बम बता कर फोड़ते हैं उसकी ताकत सुतली बम से ज़्यादा की न हो क्योंकि इसके पहले मैक्सिको और कनाडा को वे अपना 51वां राज्य बनाने का मंसूबा भी ज़ाहिर कर चुके हैं। फिर उनका ग्रीनलैंड ख़रीदने का मन भी बन गया था। डेनमार्क के डेनिश साम्राज्य के तहत ही ग्रीनलैंड एक स्वतंत्र द्वीप है और इसके नागरिकों ने ही ट्रम्प को टका सा जवाब दे दिया था। ट्रम्प की यही क़ारोबारी मानसिकता पूरी दुनिया में खलबली मचा रही है जिसका कोई आधार नज़र नहीं आता। अलबत्ता एक पासा है जो जब-तब उछाल दिया जाता है। सोचिए, जो शायर अकबर इलाहाबादी इस दौर में होते तो अपनी ग़ज़ल के इस शेर में क्या कुछ बदलाव करते। काश कि कवियों जैसा थोड़ा सब्र भी इन हुक्मरानों में आया होता-
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं,
बाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीददार नहीं हूं।।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)


