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15 अगस्त के बाद क्या?

15 अगस्त बीत गया। पंद्रह अगस्त भारत के आरोह-अवरोह भरे सुदीर्घ इतिहास का महत्वपूर्ण दिनांक है

15 अगस्त के बाद क्या?
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- डॉ. सुधीर सक्सेना

यह सुखद है कि पंद्रह अगस्त की बेला में हमें राष्ट्रव्यापी तिरंगा अभियान देखने को मिला और इसमें उन समूहों ने सोत्साह शिरकत की, जिनकी दैनंदिन परंपरा में तिरंगा अनुपस्थित रहा है। तिरंग त्रिदेव की भारतीय परंपरा की याद दिलाता है। वह बहुलता और सामासिकता का प्रतीक है। उसके रंग क्रमश: त्याग-बलिदान, शांति और हरीतिमा व समृद्धि के द्योतक है।

15अगस्त बीत गया। पंद्रह अगस्त भारत के आरोह-अवरोह भरे सुदीर्घ इतिहास का महत्वपूर्ण दिनांक है। शायद सबसे मानीखेज तारीख। इस दिन वैश्विक-परिदृश्य में एक ऐसा राष्ट्र उभरा, जिसने सत्याग्रह के बूते आजादी पाई थी और इस उपलब्धि में किसी एक समुदाय, कौम या वर्ग का नहीं, अपितु समग्र समाज का योगदान था। विश्व में सैन्य कार्रवाइयों विद्रोह और छल-छद्म से आजादी हासिल करने अथवा सत्ता-परिवर्तन की परंपरा रही है, लेकिन भारत का स्वतंत्रता-पर्व विरल और अभूतपूर्व प्रसंग था। हाड़मांस के एक कृशकाय व्यक्तित्व ने अपने तप:पूत अथक प्रयासों से उस बर्बर कुटिल सत्ता से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया, जिसके वैश्विक साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था। अंग्रेजों की विदाई तय थी, क्योंकि कोई भी सत्ता एक वर्ग, एक वर्ण, एक समूह, एक बल से लड़ सकती है, लेकिन कोटि-कोटि जनों के उस जागृत बल से नहीं लड़ और जीत सकती, स्वतंत्रता ही जिसका एकमेव अभीष्ट था। अपने इसी अपूर्व उपक्रम से गांधी महान है। वह अलीक शख्सियत हैं। सहस्राब्दी के महानायक है। मनुष्य की मुक्ति और उत्थान के तमाम योद्धाओं से भिन्न और अतुल्य है। उनसा तेजोमय व्यक्तित्व विश्व-इतिहास में दूसरा नहीं है।

बहरहाल, अब हम आजाद हैं। हम और हमारे समवयस्क लोग स्वतंत्र भारत में जनमें हैं, लिहाजा हम लोग खुशकिस्मत हैं। बिलाशक आजादी नेमत हैं, ऐसी नेमत, जिसकी महत्ता और कीमत को कूता नहीं जा सकता। वह अमूल्य और गर्वीली है। वह लाखों लोगों की शहादत और त्याग का नतीजा है। आजादी हमारी आत्मिक वृत्ति है। सिर्फ जातियां या कौमें ही आजादी नहीं चाहतीं। हर कोई बंधनों से मुक्ति चाहता है। गुलाम दासता की बेड़िया तोड़ना चाहते हैं। परिन्दे क़फ़स से आजादी चाहते हैं और शुभ्रता कालिमा से मुक्ति चाहती है। गुलामी कलंक है। स्वतंत्रता सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं होती। राजनीतिक स्वतंत्रता एक पड़ाव है; दूर के गंतव्य का एक महत्वपूर्ण पड़ाव। महात्मा गांधी और भगत सिंह जैसे महान नायकों ने इस तथ्य को बार-बार रेखांकित किया। स्वतंत्रता और स्वतंत्र समाज में बड़ा फासला है। बहुत कठिन है स्वतंत्रचेता समाज के निर्माण की डगर। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का लक्ष्य हासिल करना बड़ा कठिन है। महात्मा गांधी की आजादी की लड़ाई सिर्फ विदेशी दासता से मुक्ति की लड़ाई न थीं। वह भाषा की भी लड़ाई थी। अस्पृश्यता के खिलाफ संघर्ष के साथ ही उनका आंदोलन लैंगिक असमानता के विरूद्ध अहिंसक युद्ध भी था। वहां श्रम की गरिमा की पुनर्स्थापना का संकल्प भी था। वहां रूढ़ियों कुरीतियों-बेगारी, सामंतवाद, अशिक्षा, बाल-विवाह, भेदभाव, जातिवाद, दहेज प्रथा आदि से मुक्ति की जद्दोजहद भी थी।

इसी को परिलक्षित कर एक भारतीय आत्मा पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने 'सिर के ऊपर पेट चढ़ाकर अपना सत्यानाश न कर तू। जनगणमन, अधिनायक तेरा, उसे विश्व का दास न कर तू' जैसी ओजभरी पंक्तियां लिखी थीं। पंद्रह अगस्त तक वह तारीख है, जो सूरज ढलने या रात गहराने से बीतती नहीं, बल्कि पटल पर बनी रहती है। वह हमें सोचने का साजोसामां देती है। सामूहिकता का पाठ पढ़ाती है और कुतुबनुमा मानिंद हमारे जीवन की दिशा तय कर समवेत सार्थक उपक्रमों के लिए प्रेरित करती है। पंद्रह अगस्त के बाद पंद्रह अगस्त का यही तकाजा और संदेशा है।

इन कसौटियों पर हम अपने आज को परखें तो हमें इस बात का आभास हो सकता है कि हम कहां खड़े हैं और विश्व परिदृश्य में गणतंत्र के तौर पर उभरने के उपरांत इस अमृतकाल तक हमने कितना और कैसा सफर तय किया है? हमारी यात्रा सार्थक रही है अथवा निरर्थक? हम इतिहास के गलियारे में कहीं उलटे पांव तो नहीं चल रहे हैं? कहीं हम पुनरूत्थानवादी शक्तियों से परिचालित तो नहीं है? हम अपने वक्त के तकाजों को बूझकर आगामी सुनहरे कल के लिये समवेत प्रयासों के विपरीत कहीं अतीत की गौरव स्थापना कर गुहांधकार में तो नहीं लौट रहे हैं? निर्विविादित: समय कठिन है। चुनौतियां संगीन है; घरेलू मोर्चे पर भी, सरहदों पर भी और राजनय के धरातल पर भी। विचारकों का बार-बार यह कहना अकारण नहीं है कि यह बेढब, हिंस्र और अराजक समय है, जहां असहमति के लिये कोई ठौर नहीं है और व्यवस्था या तो उसे अनसुना करने अथवा उसे कुचलने के फेर में है। प्रख्यात विचारक परकाला प्रभाकर ने संकटग्रस्त गणराज्य पर अपने आलेखों के संकलन 'नये भारत की दीमक लगी शहतीरें' में 'फादर स्टैन स्वामी का हत्यारा कौन' शीर्षक अध्याय में इसके अनेक संदर्भ उजागर किये हैं। उनकी और राजीव भार्गव की किताब 'राष्ट्र और नैतिकता हमारे आज के अनेक महत्वपूर्ण सवालों से जूझती है और चतुर्दिक फैलते बेहिसाब अंधेरे को दर्शाती है। परकाला स्पष्ट कहते हैं कि हिन्दुत्व को राष्ट्रीयता का सत्यापित सूचक मान लिया गया है। बात सही है, लेकिन क्या यह हिंदुत्व ही वास्तविक और प्रतिनिधि हिन्दुत्व है? इसी से यह यह प्रश्न भी उभरता है कि आगामी समय में भारत गणराज्य अनेक धर्मों के प्रति कैसे सलूक से गुजरेगा, जबकि संविधान ने उसे सेक्यूलर और समाजवादी विशेषण से नवाजा है। राजीव सचान के शब्दों का आसरा लें तो क्या लिबरल या उदार लोकतंत्र की अवधारणा विकृतियों के लिये अभिशप्त है? क्या इस लोकतंत्र में लोग कहने को नागरिक हैं, अन्यथा प्रजा का अस्तित्व कायम है। क्या यह सक्रिय नागरिक के गमन और निश्चेष्ट प्रजा के आगमन का दु:सह काल है? सचान का यह कहना सच है कि राज्यविहीनता कोई कुदरती आपदा नहीं, आदमी का पैदा किया हुआ संकट है। यह सरहदों की सनक में पगलाये नवगठित राष्ट्र राज्यों की पैदाइश है।

कहना कठिन है कि इन 'हांकों' और 'खदेड़ो' अभियानों के क्या नतीजे निकलेंगे? वे लोमहर्षक भी हो सकते हैं। क्या गरीबों और हाशिये के लोगों के मूलभूत अधिकारों के लिए लड़ना आगे और मुश्किल होता जायेगा? क्या लोग सच के लिये हलफनामा उठाने से कतरायेंगे? प्रश्न यह भी है कि घृणा की मानसिकता अंतत: हमें कहां ले जायेगी? दंभ और सत्ता में बने रहने की ज़िद क्या गुल खिलायेगी? अमेरिका में फेडरेलिस्ट पार्टी ने सन्1798 में राजद्रोह कानून बनाया था। कानूनन आलोचना जुर्म हुई। बड़ी संख्या में विपक्षी दंडित हुये। राष्ट्रपति जॉन एडम्स पर टिप्पणी के एवज में रिपब्लिकन सांसद ने जेल की हवा खाई। मगर परिवर्तन ही शाश्वत है, अत: सत्ता बदली और विपक्षी थॉमस जेफरसन राष्ट्रपति बने। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की थी कि असहमति लोकतंत्र का फक़त सेफ्टी वाल्व नहीं है, बल्कि सार्थक सामाजिक जीवन जीने के लिए भी महत्वपूर्ण है। भारत में असहमति और मत-मतांतर की भव्य और सुदीर्घ परंपरा रही है। लोकतंत्र में 'लोक' ही सर्वोपरि है। हमारा संविधान भी 'वी द पीपुल' की बात करता है। स्वतंत्रता दिवस पर यह कामना अनुचित नहीं कि इस महादेश में 'जनगणमन अधिनायक' के जयगान की परंपरा अक्षुण्ण रहेगी।

यह सुखद है कि पंद्रह अगस्त की बेला में हमें राष्ट्रव्यापी तिरंगा अभियान देखने को मिला और इसमें उन समूहों ने सोत्साह शिरकत की, जिनकी दैनंदिन परंपरा में तिरंगा अनुपस्थित रहा है। तिरंग त्रिदेव की भारतीय परंपरा की याद दिलाता है। वह बहुलता और सामासिकता का प्रतीक है। उसके रंग क्रमश: त्याग-बलिदान, शांति और हरीतिमा व समृद्धि के द्योतक है। 15 अगस्त, सन् 47 को एक महादेश जनमा था; जनपदों सूबों, रियासतों के भेदों से ऊपर एक महादेश, सार्वभौम गणतंत्र जिसकी नियति था। संविधान ने से शक्ति और संकल्प दिया। इन अर्थों में 15 अगस्त और 26 जनवरी एकमेक होते हैं। संविधान हमारी ताकत है और एकता, अखंडता और सार्वभौमिकता की गारंटी भी। यह संविधान भी पंद्रह अगस्त का ऋ णी है। वस्तुत: भारत छोड़ों आंदोलन 15 अगस्त और पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी की भूमिका रचता है। याद रखें कि पंद्रह अगस्त पंद्रह अगस्त को खत्म नहीं होता। वह प्रेरक है और उत्प्ररेक भी। निस्संदेह, पंद्रह अगस्त के बाद क्या का उत्तर भी पंद्रह अगस्त की प्रासंगिता और महत्ता में निहित है।


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