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उम्मीद के बीज बोने वाले आदिवासी

मौजूदा दौर में देश-दुनिया में जलवायु बदलाव ज्वलंत समस्या मानी जा रही है। यह एक वैश्विक समस्या है, पर हम इसे कम करने के लिए स्थानीय स्तर पर कुछ काम कर सकते हैं

उम्मीद के बीज बोने वाले आदिवासी
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मैं कई बार इस अनोखी हरियाली यात्रा को देखने-समझने गया हूं। एक बार मुझे श्रमिक आदिवासी संगठन के कार्यकर्ता राजेन्द्र गढ़वाल बैतूल जिले के करीब एक दर्जन गांवों और कस्बों में ले गए थे, ये गांव शाहपुर व चिचौली विकासखंड के अंतर्गत आते हैं। पाहावाड़ी, टेटरमाल, डुमका, चूनाहजूरी, पीपलबर्रा, बोड़, चीरापाटला, चिचौली, शाहपुर गया।

मौजूदा दौर में देश-दुनिया में जलवायु बदलाव ज्वलंत समस्या मानी जा रही है। यह एक वैश्विक समस्या है, पर हम इसे कम करने के लिए स्थानीय स्तर पर कुछ काम कर सकते हैं। इसके साथ ही हमारे देश में बेरोजगारी भी बड़ी समस्या है। इन दोनों के मद्देनजर मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में आदिवासियों ने पिछले डेढ़ दशक से पेड़ लगाने की पहल की है। आज इस क़ॉलम में इस पर चर्चा करना चाहूंगा, जिससे पर्यावरण के साथ आजीविका का कैसे संरक्षण किया जा सकता है, इसे समझा जा सके। पेड़ ही भविष्य की उम्मीद हैं।

समाजवादी जन परिषद और श्रमिक आदिवासी संगठन के बैनर तले यह अभियान करीब डेढ़ दशक से चल रहा है। इसे हरियाली यात्रा का नाम दिया गया है। बरसों की मेहनत अब रंग लाने लगी है। आदिवासियों के द्वारा रोपे गए पौधे अब फल देने लगे हैं। इन फलों को आपस में बांटकर भी पेड़ लगाने का संदेश दिया जाता है। आदिवासियों ने अपने घर के आसपास, खाली पड़ी जमीन पर, खेतों में और जंगल में फलदार पेड़ लगाए हैं।

श्रमिक आदिवासी संगठन के राजेन्द्र गढ़वाल कहते हैं कि फलदार पेड़ हर दृष्टि से उपयोगी हैं। इससे हरियाली बढ़ेगी, कुपोषण दूर होगा, जैव विविधता बचेगी और पर्यावरण भी बचेगा। मिट्टी का कटाव रूकेगा और पानी का संचय होगा। पेड़ों पर पक्षी आएंगे, वे कीट नियंत्रण करेंगे। आदिवासियों के भोजन में पोषक तत्व होंगे, उनका स्वास्थ्य ठीक होगा और इन फलों की बिक्री से आमदनी भी बढ़ेगी।

वे आगे बताते हैं कि इस साल भी यह अभियान चलाया गया। जुलाई से अगस्त तक यह अभियान चलाया गया। इसके तहत् गांव, कस्बों और बैतूल जैसे शहर में पेड़ों के साथ रैली निकालकर यह अभियान चलाया गया। रैली में आदिवासी पौधे सजाकर, ढोल-टिमकी के साथ गीत व नारों व पर्चे बांटकर पेड़ लगाने का संदेश देते हैं। उन्होंने बताया कि पेड़ लगाने की मुहिम की तैयारी गर्मी के मौसम से ही शुरू हो जाती है। बीजों को एकत्र करना, उनकी साफ-सफाई करना, उनका रख-रखाव करना और पौधे तैयार करना और फिर उन्हें लगाना।

श्रमिक आदिवासी संगठन के कार्यकर्ता राजेन्द्र गढ़वाल बताते हैं कि यहां पहले अच्छा जंगल हुआ करता था। वह आदिवासियों के भूख और जीवन का साथी था। यहां से उन्हें कई तरह के कंद मूल, मशरूम, शहद, अचार, महुआ और हरी पत्तीदार भाजियां मिलती थीं। जंगल ही उनका पालनहार था। अब वैसा जंगल नहीं रहा। गांवों में रोजगार भी नहीं है।

मैं कई बार इस अनोखी हरियाली यात्रा को देखने-समझने गया हूं। एक बार मुझे श्रमिक आदिवासी संगठन के कार्यकर्ता राजेन्द्र गढ़वाल बैतूल जिले के करीब एक दर्जन गांवों और कस्बों में ले गए थे, ये गांव शाहपुर व चिचौली विकासखंड के अंतर्गत आते हैं। पाहावाड़ी, टेटरमाल, डुमका, चूनाहजूरी, पीपलबर्रा, बोड़, चीरापाटला, चिचौली, शाहपुर गया।

बैतूल जिले का यह इलाका आदिवासी बहुल है। यहां गोंड-कोरकू आदिवासी रहते हैं। खेती में मक्का ही मुख्य फसल है। जमीन ऊंची-नीची व हल्की है। सिंचित जमीन नहीं है। आदिवासियों का जीवन जंगल पर ही निर्भर है। वे बूढ़ादेव की पूजा करते हैं। यहां कभी आदिवासियों का राज था। पहाड़ों पर उनके टूटे-फूटे किले उनकी याद दिलाते हैं। लेकिन पहले जैसा जंगल भी अब नहीं रहा। इसलिए लोगों को मजबूर होकर रोजगार के लिए पलायन करना पड़ता है।

हरियाली अभियान के तहत् कटहल, आम, बादाम, जाम, नींबू, मौसंबी, संतरा, रीठा, मुनगा, अनार, आंवला, बील, आचार, जामुन,काजू, छीताफल, बेर इत्यादि कई फलदार पेड़ लगाए जा रहे हैं। ग्राम बोड़ के कुंवर सिंह और समोती ने अपने खेत के पेड़ दिखाए।

इस पूरे अभियान से कुछ बातें समझी जा सकती हैं। आज के जलवायु बदलाव के दौर में खेती की सोच बदलनी होगी। रासायनिक और मशीनी खेती में ठहराव आ चुका है। वृक्षों के साथ खेती का तालमेल बिठाना होगा। पेड़ों व मौसमी फसलों की मिली-जुली खेती करनी होगी। पहले ऐसा ही था। खेतों में महुआ, आम और आंवले जैसे कई तरह के पेड़ थे। महुआ खाते थे। उसके कई तरह के व्यंजन व भूंजकर खाया जाता था। केवल वार्षिक फसलों से लोगों की गुजर नहीं होगी। आज बहुत लागत लगाने और मेहनत करने के बावजूद किसानी घाटे का सौदा है। किसान आत्महत्या कर रहे है। फिर अधिक रासायनिक व कीटनाशकों के उपयोग से भूजल जहरीला हो रहा है। खासतौर से कम उपजाऊ वाले इलाकों में तो और भी मुश्किल है।

इस दृष्टि से भी हरियाली अभियान उपयोगी है। चाहे भले ही अच्छी उपजाऊ वाले खेतों में हम वार्षिक व मौसमी खेती करते रहें, लेकिन कम पानी वाली व अपेक्षाकृत कम उपजाऊ ढोंगा ( ऊंची-नीची) टीले वाली जमीनों में पेड़ लगाए जा सकते हैं। फिर इन पेड़ों का जमीन में नमी बनाए रखने में प्रमुख योगदान होता है। पेड़ों से गिरी पत्तियां व टहनियां नमी को बचाती हैं, साथ ही जैव खाद बनाती हैं। पेड़ों की जड़ें गहरी होती हैं, वे पोषक तत्वों को बांधे रखती हैं।

भोजन में फलों के शामिल होने से स्वस्थ रहने में मदद मिलती है। कुपोषण तो दूर होता ही है, भोजन की गुणवत्ता भी बढ़ती है। इनमें पोषक तत्व तो होते ही हैं, रेशा अधिक होने से वे कई बीमारियों से बचाते हैं। पेड़ों से ईंधन के लिए लकड़ियां मिलती हैं। तापमान को पेड़ नियंत्रित करते हैं। हवा देते हैं। कार्बन को सोखते हैं।

जिन इलाकों में वर्षा का कोई भरोसा नहीं है, मौसम की अनिश्चितता है, जो कि बढ़ रही है, उन इलाकों में खेतों में फलदार पेड़ होना, खाद्य सुरक्षा के लिए बहुत उपयोगी होगा। और इनके अतिरिक्त होने पर कुछ हद आर्थिक सुरक्षा होती है। धरती पर हरियाली चादर कई तरह से उपयोगी व सार्थक है।

इस सबके साथ मनुष्य और प्रकृति के बीच टूटता रिश्ता फिर से जुड़ेगा। मनुष्य ने प्रकृति पर आधिपत्य की सोच अपनाई है, उसी का परिणाम है आज का पर्यावरण का संकट। संसाधनों के बेजा दोहन की होड़। हरियाली अभियान जैसी पहल ने मनुष्य और प्रकृति के सहअस्तित्व की राह दिखाई है, जो आज पर्यावरण के संकट के हल के साथ मनुष्य के अस्तित्व के लिए भी बहुत जरूरी है। फिर स्थानीय आदिवासियों के सहयोग से जंगल व पर्यावरण बचाए जा सकते हैं। पेड़ लगाने के इस काम में सरकार को दिलचस्पी लेना चाहिए और इस अनोखे अभियान में सहयोग करना चाहिए ताकि इसे और बेहतर ढंग से किया जा सकता है। इस पूरे अभियान से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, इसका अनुकरण किया जा सकता है। लेकिन क्या नए साल में इस दिशा में कुछ कर सकते हैं?


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