यह महंगाई नहीं, नग्न बाजारवाद का बेशर्म परीक्षण है!
जब आपूर्ति कम होती है तो बाजार में चीजें दिखाई नहीं पड़ती हैं और उनकी कालाबाजारी होती है

- अनिल जैन
जब आपूर्ति कम होती है तो बाजार में चीजें दिखाई नहीं पड़ती हैं और उनकी कालाबाजारी होती है। अभी न तो जमाखोरी हो रही है, न ही कालाबाजारी। हो रही है तो सिफ़र् और सिफ़र् बेहिसाब-बेलगाम मुनाफाखोरी। इसे नग्न बाजारवाद का बेशर्म परीक्षण भी कह सकते हैं। जाहिर है कि सरकार या सरकारों ने अपने आपको जनता से काट लिया है। यह हमारे लोकतंत्र का बिल्कुल नया चेहरा है- घोर जनद्रोही और शुद्ध बाजारपरस्त।
इस समय राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से आ रही तमाम दारुण खबरों के बीच आम आदमी के लिए सबसे ज्यादा निराश-हताश करने और डराने वाली खबर यह है कि उसे महंगाई से राहत मिलने के कोई आसार नहीं हैं। 'बहुत हुई महंगाई की मार...' का नारा लगाकर 2014 में प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी, उनकी सरकार और उनकी पार्टी तो अब कभी भूल से भी महंगाई का नाम नहीं लेती। दो महीने पहले स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले से संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, 'मैं जल्दी ही एक बड़ा फैसला लेने जा रहा हूं, जो आपको 'डबल दिवाली' का अहसास कराएगा।' उन्होंने वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी की दरों में सुधार करने की बात करते हुए कहा था कि लोगों को दिवाली का तोहफा मिलेगा और उनका जीवन आसान होगा। फिर पिछले महीने यानी सितंबर की 21 तारीख को राष्ट्र के नाम संदेश में उन्होंने जीएसटी की दरों में कटौती का ऐलान करते हुए दावा किया कि इससे आम लोगों को 2.5 लाख करोड़ रुपये की अनुमानित बचत होगी। उन्होंने यह दावा भी किया कि जीएसटी की दरों में सुधार से रोजमर्रा की कई जरूरी चीजें कर मुक्त और कई चीजें सिर्फ पांच फीसदी टैक्स के दायरे में आ गई हैं। प्रधानमंत्री ने अपनी इस घोषणा को 'जीएसटी बचत उत्सव' का नाम दिया।
प्रधानमंत्री की इस घोषणा का मीडिया ने जोर-शोर से प्रचार किया। खुद सरकार ने भी मोदी को 'गरीबों का मसीहा' बताते हुए इसके प्रचार-प्रसार पर अरबों रुपये फूंक डाले। जबकि हकीकत यह है कि जीएसटी की दरों में कटौती का यह फैसला जीएसटी परिषद की 56वीं बैठक में लिया गया था। गौरतलब है कि देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्री जीएसटी परिषद के सदस्य हैं। इसलिए जीएसटी की दरों में कटौती का फैसला अकेले प्रधानमंत्री का नहीं बल्कि सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की सहमति से लिया गया था। ऐलान पीएम ने किया था। अगर सभी राज्य सहमत नहीं होते तो यह फैसला नहीं हो सकता था।
बहरहाल गाजे-बाजे के साथ हुई प्रधानमंत्री की घोषणा के बावजूद बाजार में रोजमर्रा की जरूरत की वस्तुओं मसलन अनाज, दाल-दलहन, आटा, चीनी, मसाले, सब्जी, फल, दूध, खाद्य तेल, घी, दवाई, साबुन, कपड़ा, चप्पल-जूते आदि की कीमतों में रत्ती भर की कमी नहीं आई है। हां, कुछ चीजों के दामों में पहले की अपेक्षा कुछ बढ़ोतरी जरूर हो गई है। पेट्रोल और डीजल के दाम पहले से ही बढ़े हुए हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनके दामों में निरंतर कमी आ रही है।
ऐसा नहीं कि महंगाई का कहर हाल के वर्षों में कोई पहली बार टूटा हो। महंगाई पहले भी होती रही है। जरूरी चीजों के दाम पहले भी अचानक बढ़ते रहे हैं, लेकिन थोड़े समय बाद फिर नीचे भी आए हैं परन्तु इस समय तो मानो बाजार में आग लगी हुई है। वस्तुओं की लागत और उनके बाजार भाव में कोई संगति नहीं रह गई है। इस मामले में आम आदमी लाचार और असहाय होते हुए जिस सरकार से आस लगाए हुए है कि वह कुछ करेगी, वह सरकार सिर्फ निर्गुण विकास, स्वदेशी और राष्ट्रवाद का बेसुरा राग अलापते हुए जनता को आत्मनिर्भर बनने की नसीहत दे रही है।
कीमतों की इस दोहरी मार ने आम आदमी के भोजन के इंतज़ाम को इकहरा कर दिया है। इस सिलसिले में सरकार की ओर से कभी-कभार दी जाने वाली सफाई भी कतई विश्वसनीय नहीं है। मानसून का कमज़ोर रहना या पर्याप्त बारिश नहीं होना, ऐसा कारण नहीं है कि इनका असर सभी चीजों पर एक साथ पड़े। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि कीमतें इतनी ज्यादा होने के बावजूद बाजार में किसी भी आवश्यक वस्तु का अकाल-अभाव दिखाई नहीं पड़ता। जब आपूर्ति कम होती है तो बाजार में चीजें दिखाई नहीं पड़ती हैं और उनकी कालाबाजारी होती है। अभी न तो जमाखोरी हो रही है, न ही कालाबाजारी। हो रही है तो सिफ़र् और सिफ़र् बेहिसाब-बेलगाम मुनाफाखोरी। इसे नग्न बाजारवाद का बेशर्म परीक्षण भी कह सकते हैं। जाहिर है कि सरकार या सरकारों ने अपने आपको जनता से काट लिया है। यह हमारे लोकतंत्र का बिल्कुल नया चेहरा है- घोर जनद्रोही और शुद्ध बाजारपरस्त।
तीन दशक पहले तक जब किसी चीज के दाम असामान्य रूप से बढ़ते थे तो सरकारें कुछ तो हस्तक्षेप करती थीं। यह अलग बात है कि इस हस्तक्षेप का कोई खास असर नहीं होता था, क्योंकि उस मूल्य वृद्धि की वजह वाकई उस चीज की दुर्लभता या अपर्याप्त आपूर्ति होती थी। यह स्थिति पैदा होती थी उस वस्तु के कम उत्पादन की वजह से। अब तो सरकारों ने औपचारिकता या दिखावे का हस्तक्षेप भी बंद कर दिया है। वे बिल्कुल बेफ़िक्र हैं- महंगाई का कहर झेल रही जनता को लेकर भी और जनता को लूट रही बाजार की ताकतों को लेकर भी।
कुछ साल पहले तक महंगाई पर लगाम लगाने के मक़सद से रिज़र्व बैंक भी हरक़त में आता था और अपने स्तर पर कुछ कदम उठाता था, लेकिन अब महंगाई उसकी चिंता के दायरे में नहीं आती। उसकी स्वायत्ता का अब अपहरण हो चुका है। अब उसका पूरा ध्यान सरकार के दुलारे शेयर बाजार को तंदुरुस्त बनाए रखने और सरकार की गड़बड़ियों को छुपाने में लगा रहता है।
महंगाई को लेकर सिर्फ सरकार ही नहीं, बल्कि समूची राजनीति उदासीन बनी हुई है। पहले जब महंगाई बढ़ती थी तो उस पर संसद में चर्चा होती थी। विपक्ष सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा करता था। सरकार भी महंगाई को लेकर चिंता जताती थी। वह महंगाई के लिए जिम्मेदार बाजार के बड़े खिलाड़ियों को डराने या उन्हें निरुत्साहित करने के लिए कठोर कदम भले ही न उठाती हो, पर सख्त बयान तो देती ही थी। अब तो ऐसा भी कुछ नहीं होता। कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के दस वर्ष के कार्यकाल में 16 मर्तबा संसद में महंगाई के सवाल पर बहस हुई। उससे पहले एनडीए सरकार के छह वर्ष के कार्यकाल में भी 8 मर्तबा इस सवाल पर संसद में लम्बी बहसें हुई थीं। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल यानी 16वीं लोकसभा में भी तीन बार संसद में महंगाई पर चर्चा हुई, लेकिन उनके दूसरे कार्यकाल यानी 17वीं लोकसभा के किसी भी सत्र में महंगाई पर कोई चर्चा नहीं हुई। मौजूदा यानी 18वीं लोकसभा के भी अब तक चार सत्र बीत चुके हैं पर महंगाई का ज़िक्र तक नहीं हुआ है। विपक्ष की ओर से यह मुद्दा उठाने की कोशिश भी की गई तो उसे या तो सत्तापक्ष की नारेबाजी और शोर-गुल में दबा दिया गया या फिर स्पीकर और सभापति ने मुद्दे को उठाने से ही रोक दिया।
पाकिस्तान में टमाटर और प्याज के दाम बढ़ने को लेकर कई-कई दिनों तक शोर मचाने वाला भारत का टेलीविज़न मीडिया भी अपने देश की महंगाई का कभी भूले से भी ज़िक्र नहीं करता। याद नहीं आता कि पिछले दस वर्षों में किसी टीवी चैनल ने महंगाई के मुद्दे पर कोई बहस आयोजित की हो। किसी अन्य विषय पर बहस के दौरान विपक्षी दल का कोई प्रवक्ता अगर महंगाई का सवाल छेड़ भी देता है तो चैनल के एंकर की ओर से उसे यह कहते हुए झिड़क दिया जाता है कि वह बहस को मुद्दे से भटकाने का प्रयास न करे। इसी वजह से मुनाफाखोरों, जमाखोरों और कालाबाजारियों को मीडिया की ओर से भी अभयदान मिला हुआ है।
अगर बढ़ी हुई कीमतों का कुछ हिस्सा उत्पादकों तक पहुंच रहा होता या अनाज और सब्ज़ियां उगाने वाले किसान मालामाल हो रहे होते, तब भी कोई बात थी। ऐसा भी नहीं हो रहा है। इस अस्वाभाविक महंगाई का लाभ तो बिचौलिए और मुनाफाखोर बड़े व्यापारी उठा रहे हैं। वैसे मीडिया की सर्वव्यापकता और सक्रियता के दौर में किसी भी सरकार के लिए निर्धारित कीमतों पर चीजें बिकवाना कोई मुश्किल काम नहीं है। ऐसा करने का नकारात्मक नतीजा यह हो सकता है कि कुछ दिनों के लिए आवश्यक वस्तुएं बाजार से गायब ही हो जाएं। बाजार बनाम सरकार का असली मोर्चा यही होगा। इस मोर्चे पर सरकार को बिचौलियों, जमाखोरों और सट्टेबाजों के खिलाफ सख्ती से पेश आना होगा, क्योंकि चीजों का बनावटी अभाव पैदा कर उनके दामों में मनमानी बढ़ोतरी ये लोग ही करते हैं। सरकार में अगर थोड़ी भी हिम्मत और ईमानदारी हो तो वह बाजार को बेलगाम होने से रोक सकती है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


