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यह सुधार नहीं करेक्शन है

लाल किले से प्रधानमंत्री द्वारा जीएसटी दरों में कमी की तैयारी वाली घोषणा के बाद से बाजार उछल रहा है

यह सुधार नहीं करेक्शन है
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- अरविन्द मोहन

जीएसटी ने इसके साथ मिलकर छोटे उद्यमियों की कमर तोड़ दी क्योंकि उनके लिए इस व्यवस्था के लिए जरूरी तकनीकी ज्ञान वाला एकाउंटेंट रखना संभव हुआ न क्रेडिट सिस्टम के अपने अदानों के खर्च के आधार पर कर माफी का आवेदन करना। इस क्रेडिट और कर वसूली के हिसाब को साथ पेश करके रिफंड मांगना और भी जटिल पहेली है।

लाल किले से प्रधानमंत्री द्वारा जीएसटी दरों में कमी की तैयारी वाली घोषणा के बाद से बाजार उछल रहा है, कंपनियां मन ही मन मलाई खाने लगी हैं, अर्थशास्त्री इसे आर्थिक सुधार का रुका हुआ फैसला या दूसरी खेप बताने लगे है और अर्थव्यवस्था को होने वाले 'लाभ' को लेकर तरह-तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं। आधिकारिक बैठकों का दौर भी शुरू हो चुका है और उम्मीद है कि 20 और 21 तारीख को होने वाली राज्यों के वित्त मंत्रियों की बैठक में केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इन बदलाओं की घोषणा कर दें। वैसे प्रधानमंत्री की घोषणा के तत्काल बाद ही यह खबर भी आ गई कि आम तौर पर 12 फीसदी रेट घटकर 5 फीसदी और 28 फीसदी वाला रेट कम करके 18 फीसदी कर दिया जाएगा। इसके बाद छोटी कारों फ्रिज, टीवी वगैरह के सस्ते होने के अनुमान मोटे-मोटे अक्षरों में बताए जाने लगे कि कारों के 75 हजार सस्ता होने का अनुमान है तो दीपावली के अवसर के लिए स्टाक बढ़ाने की खबर भी स्वाभाविक है। बाजार और आम लोगों में स्वागत का माहौल होना स्वाभाविक है।

लंबी चर्चा और मतभेदों के चलते रुके पड़े जीएसटी का फैसला शुरू से विवादों में रहा है। बहुत तरह के उत्पाद करों और वैट की जगह जीएसटी लगाए जाने के मोदी सरकार के फैसले के बाद से ही उस पर कईतरह की आपत्तियां दर्ज कराई गई हैं और उसे लेकर तकलीफ की शिकायत भी आम रही है। किस चीज पर कर बढ़ा किस पर घटा यह लिस्ट तो बहुत बड़ी है लेकिन पाठ्यपुस्तकों समेत कुछ ऐसी चीजों को पहली बार कर के दायरे में लिया गया जिसे अभी तक कभी कर वसूलने की चीज नहीं माना गया था। यह भी हुआ कि वही चीज खुले में, डिब्बे में या टेबल पर सर्व होने के साथ-साथ तीन-तीन दर पर टैक्स वसूलने का माध्यम बनी। होटल में खाने पर सर्विस टैक्स है या नहीं यह आज तक विवाद का विषय ही रही। फिर भी मामले लोकल टैक्स के लिए छोड़ देने से भी एक रेट पर देश भर में कर वसूली की बात हवाई ही रही। और यह मात्र संयोग है कि जब जीएसटी का फैसला हुआ था उसे आसपास प्रधानमंत्री ने नोटबंदी लाकर पूरी अर्थव्यवस्था को झकझोर दिया था। मोटा अनुमान है कि उससे हमारी अर्थव्यवस्था में गिरावट आई-करीब दो फीसदी की।

जीएसटी ने इसके साथ मिलकर छोटे उद्यमियों की कमर तोड़ दी क्योंकि उनके लिए इस व्यवस्था के लिए जरूरी तकनीकी ज्ञान वाला एकाउंटेंट रखना संभव हुआ न क्रेडिट सिस्टम के अपने अदानों के खर्च के आधार पर कर माफी का आवेदन करना। इस क्रेडिट और कर वसूली के हिसाब को साथ पेश करके रिफंड मांगना और भी जटिल पहेली है और आंकड़ों का 'मिसमैच' जहां व्यवसायी का पैसा उलझा देता है, कर विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों के लिए अतिरिक्त आमदनी का अवसर बन जाता है। ये मामले कितनी बड़ी संख्या में हैं और कितनी बड़ी मात्रा में रिफंड जाता है यह हिसाब किसी को भी चकरा देगा। लेकिन असल में यह इस कर प्रणाली में मौजूद दोष को ही बताता है। जिस पैसे को बाद में लौटाना है वह वसूला ही क्यों जाए? और यह बात आसानी से कही जा सकती है कि सरकारी फैसला कर में कमी का होगा, झमेलों में कमी का नहीं। सरकार पूरी प्रक्रिया पर पुनर्विचार नहीं कर रही है, कोई रुका हुआ सुधार नहीं आने वाला है। यह मात्र एक करेक्शन है।

कल के सुपर दोस्त और आज के दुश्मन नंबर एक ट्रम्प महाराज के फैसलों ने इसकी जरूरत बनाई है और सरकार ने भी जल्दी से हां किया है क्योंकि इस करेक्शन की जरूरत बढ़ गई है। ट्रम्प के फैसलों से पूरा आर्थिक माहौल भारी उदासी और अनिश्चितता से भर गया है। बाजार के जानकारों का मानना है कि अगर अभी घोषित सारे रेट उसी तरह लागू हुए तो जीएसटी वसूली में 8.6 फीसदी की कमी आएगी जो केंद्र और राज्यों के राजस्व का मात्र 0.25 फीसदी ही रहेगा और अगले वित्त वर्ष में यह 0.12 फीसदी फी रहेगा। अगर करखनिया उत्पादन और सेवा क्षेत्र ने कर घटाने से अपने कामकाज में सुधार किया तो यह कमी भी खत्म हो जाएगी और सरकार कर वसूली की परेशानियों या कर ढांचे के स्वरूप में बदलाव इसलिए नहीं करेगी क्योंकि जीएसटी ने हर छोटे बड़े व्यवसायी और सेवादार को इनफारमल सेक्टर से निकालकर फार्मल सेक्टर में ला दिया है और सूचना तकनीक के नेटवर्क की निरंतर निगरानी में पहुंचा दिया है। इससे टैक्स सर्विलांस बढ़ा है और सरकार की कमाई भी बढ़ते हुए लगभग 12 लाख करोड़ रुपए तक पहुँच गई है। इस निगरानी से सिर्फ जीएसटी का लाभ नहीं है, इससे पीएफ खातों का हिसाब बढ़ा है और बिना नौकरियां या रोजगार दिए मजदूरों की संख्या बढ़ाने का दावा होने लगा है। उत्पादन के आंकड़ों में भी फर्क आया है क्योंकि वहां भी खरीद-बिक्री और क्रेडिट पॉइंट के आधार पर कर राहत का खेल कई तरह से चलता है।

अभी तक किसी भी स्तर पर यह चर्चा नहीं है कि सरकार पेट्रोलियम उत्पादों को भी जीएसटी की सामान्य सूची में ला देगी जबकि यह बात शुरू से कही जाती रही है। हम जानते हैं कि जब से यह व्यवस्था बनी है सरकार पेट्रोलियम उत्पादों को बाहर रखकर हर साल दो ढाई लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त कर वसूल रही है और कभी कीमत घटाने पर लाभ उपभोक्ताओं को नहीं दिया जाता। पेट्रोल के बड़े व्यापारी मालामाल हुए हैं या सरकार। पर इस बार यह चर्चा है कि सरकार आनलाइन गेमिंग को 40 फीसदी कर वाले सुपर ग्रुप में लाकर मोटा राजस्व वसूलेगी। इसका धंधा बहुत तेज हुआ है (एक साल में लगभग छह गुना वृद्धि है) और आनलाइन सट्टेबाजी कराने में सरकार के लिए कोई नैतिक संकट नहीं है। इसी तरह बड़ी कारों और एसयूवी वाहनों की बढ़ती मांग भी उसके खजाने को भरने के लिए काफी हैं। सिगरेट, तंबाकू और गुटका पर ज्यादा कर का तर्क समझा जा सकता है लेकिन पेट्रोल-डीजल को जीएसटी से बाहर रखना, सट्टेबाजी को बढ़ावा देकर खजाना भरना सामान्य तर्क से बाहर है। और फिर भी कोई इसे रिफ़ार्म कहे तो यह बात हजम नहीं होती।


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