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विनाशकारी विकास की देन हैं ये कुदरती आपदाएं

पर्यावरण संरक्षण संबंधी कानूनों के तहत पहाड़ी और वन्य इलाकों में कोई भी औद्योगिक या विकास परियोजना शुरू करने के लिए स्थानीय पंचायतों की अनुमति जरुरी होती है

विनाशकारी विकास की देन हैं ये कुदरती आपदाएं
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  • अनिल जैन

पर्यावरण संरक्षण संबंधी कानूनों के तहत पहाड़ी और वन्य इलाकों में कोई भी औद्योगिक या विकास परियोजना शुरू करने के लिए स्थानीय पंचायतों की अनुमति जरुरी होती है, लेकिन राज्य सरकारें जमीन अधिग्रहण संबंधी अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए विकास के नाम पर आम तौर पर कंपनियों के साथ खड़ी नजर आती हैं।

पिछले महीने उत्तराखंड के उत्तरकाशी में बादल फटने से भीषण तबाही हुई थी तो सरकार के विकास प्रेमी राजनीतिक नेतृत्व, प्रशासन तंत्र और मीडिया ने मोटे तौर पर यही माना था कि उत्तराखंड में ऐसी कुदरती आपदाएं आती रहती हैं, लेकिन बात इतनी सामान्य नहीं है। दरअसल हिमालय के किसी भी क्षेत्र में आने वाली आपदा आम तौर पर स्थानीय नहीं होती है। उत्तराखंड के साथ ही पिछले एक हफ्ते से ज्यादा समय से पंजाब, कश्मीर, और हिमाचल प्रदेश में भीषण बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने से मची तबाही पिछले महीने उत्तरकाशी में आई आपदा का ही विस्तार है। ताजा आपदा में गांव के गांव डूब गए हैं, लाखों लोग बेघर हो गए हैं और करीब 500 लोगों के मारे जाने की खबर है। मारे गए लोगों का यह आंकड़ा सरकारी है, वास्तविक मृतक संख्या कहीं ज्यादा ही होगी।

इन आपदाओं को जलवायु चक्र में हो रहे परिवर्तन से भी जोड़कर देखा जाता है लेकिन असल में यह मनुष्य की खुदगर्जी और विनाशकारी विकास की भूख से उपजा संकट ही है। इस विकास के तहत पर्वतीय इलाकों में बड़े-बड़े बांध, बड़े-बड़े पॉवर प्रोजेक्ट, सीमेंट कांक्रीट की भारी-भरकम इमारतें, पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए ऑल वेदर रोड, मौज-मस्ती के लिए सितारा होटल, रिसोर्ट्स आदि आए दिन तबाही का सबब बन रहे हैं। अभी तो यह तबाही महज पहाड़ों तक सीमित है परन्तु विशेषज्ञों का मानना है कि यह जल्दी ही तराई के इलाकों तक पहुंचने वाली है और देश के बाकी हिस्से भी इससे अछूते नहीं रहेंगे।

पिछली बार जब 2013 में केदारनाथ और 2014 में कश्मीर में बाढ़ से भीषण विनाश हुआ था, तब तमाम अध्ययनों के आधार पर चेतावनी दी गई थी कि अगर पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई और नदियों के बहाव से अतार्किक छेड़छाड़ या उनका अंधाधुंध दोहन नहीं रोका गया तो नतीजे और ज्यादा व्यापक तथा भयावह होंगे। कुछ साल पहले पूर्वोत्तर में आए भूकंप के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग से जुड़े वैज्ञानिकों ने भी चेतावनी दी थी कि पहाड़ों और नदियों से छेड़छाड़ का सिलसिला रोका नहीं गया तो आने वाले समय में समूचे उत्तर भारत में भीषण तबाही मचाने वाला भूकंप आ सकता है। पिछले तीन वर्षों के दौरान दिल्ली सहित देश के कई इलाकों में भूकंप के झटके आ भी चुके हैं।

इन सारी आपदाओं और उनके मद्देनजर दी गई चेतावनियों का एक ही केंद्रीय संकेत रहा है कि हिमालय को लेकर अब हमें गंभीर हो जाना चाहिए। दुनिया के जलवायु चक्र में तेजी से हो रहे परिवर्तन के चलते हिमालय का मामला इसलिए भी बहुत ज्यादा संवेदनशील है क्योंकि यह दुनिया की ऐसी बड़ी पर्वतमाला है, जिसका अभी भी विस्तार हो रहा है। इस पर मंडराने वाला कोई भी खतरा सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि चीन, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार आदि देशों के लिए भी संकट खड़ा कर सकता है।

इस खतरे की तमाम चेतावनियों और आहटों के बावजूद न तो सरकारें सचेत हैं और न ही आम लोग। दोनों की ओर से विनाशकारी विकास की गतिविधियां धड़ल्ले से जारी हैं। इस सिलसिले में मध्य हिमालयी भूभाग की कच्ची चट्टानें काटकर बनाए जा रहे विशाल बांधों के अलावा चार धाम ऑल वेदर रोड परियोजना उल्लेखनीय है, जिसका काम इस समय वहां जोर-शोर से जारी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस स्वप्निली परियोजना के काम की तेजी और मशीनों का शोर इतना ऊंचा है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के नोटिसों की फड़फड़ाहट भी किसी को सुनाई नहीं देती। यह चार हिंदू तीर्थों बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को आपस में चौड़ी और हर मौसम में खुली रहने वाली आठ लेन की सड़क से जोड़ने की परियोजना है। इस परियोजना के तहत धडल्ले से साफ किए जा रहे जंगल और पहाड़ों को काटने के लिए किए जा रहे विस्फोट ही वहां आपदा को न्योता दे रहे हैं।

हिमालय पर्वतमाला को भले ही दुनिया में सबसे नई पर्वतमाला माना जाता हो, लेकिन तथ्य यह भी है कि इसी हिमालय की गोद में दुनिया की कई महान सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ है। कॉकेशश से लेकर भारत के पूर्वी छोर से भी आगे म्यांमार में अराका नियोमा तक सगरमाथा यानी माउंट एवरेस्ट की अगुवाई में फैली हुई विभिन्न पर्वतमालाएं हजारों वर्षों के दौरान विभिन्न सभ्यताओं के उत्थान और पतन की गवाह रही हैं। इन्हीं पर्वतमालाओं के तले सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर मोहनजोदड़ो की सभ्यता तक का जन्म हुआ। इन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं की बर्फीली चट्टानों ने साईबेरिया की बर्फीली हवाओं के थपेड़ों से समूचे दक्षिण एशिया के बाशिंदों की रक्षा की और इस इलाके में दूर-दूर तक फैले हुए किसानों, वनवासियों और अन्य समूहों को फलने-फू लने में भी भरपूर मदद की।

विडंबना यह है कि जिन पर्वतमालाओं की छांह तले यह सब संभव हो पाया, आज वही पर्वतमालाएं मनुष्य की खुदगर्जी और सर्वग्रासी विकास की विनाशकारी अवधारणा की शिकार होकर पर्यावरण के गंभीर खतरे से जूझ रही हैं। इस खतरे से न सिर्फ इन पहाड़ों का बल्कि इनके गर्भ में पलने वाले प्राकृतिक ऊर्जा और जैव संपदा के असीम स्रोतों और इन पहाड़ों से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है। पिछले वर्षों के दौरान केदारनाथ और कश्मीर की बाढ़ तथा नेपाल और पूर्वोत्तर के भूकंप जैसी भीषण त्रासदियों और उसके बाद से लेकर अब तक जारी तमाम छोटी-बड़ी त्रासदियों की प्रकृति भले ही अलग-अलग किस्म की रही हों, लेकिन ये सभी एक तरह से हिमालय के क्षेत्र में हुई हैं और इनका एक ही संकेत है कि हिमालय को लेकर अब हमें गंभीर हो जाना चाहिए।

पहाड़ी इलाकों में पर्यटन को बढ़ावा देना राजस्व के अलावा स्थानीय लोगों के रोजगार की दृष्टि से जरूरी माना जा सकता है। फिर भी, इसकी आड़ में हिमालयी राज्यों की सरकारें होटल-मोटल, पिकनिक स्थल, शॉपिंग मॉल आदि विकसित करने, बिजली, खनन और दूसरी विकास परियोजनाओं और सड़कों के विस्तार के नाम पर निजी कंपनियों को मनमाने तरीके से पहाड़ों और पेड़ों को काटने की धड़ल्ले से अनुमति दे रही हैं। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य- सबकी दास्तानें एक जैसी दर्दनाक हैं। ये सभी इलाके कई विशिष्ट कारणों से सैलानियों के आकर्षण के केंद्र हैं, इसलिए कई निजी कंपनियों ने यहां कारोबारी गतिविधियां शुरू कर दी हैं। हालांकि स्थानीय बाशिंदे और पर्यावरण के लिए काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन इन इलाकों में पहाड़ों और वनों की कटाई के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन सरकारी सरपरस्ती हासिल होने के कारण ये आपराधिक कारोबारी गतिविधियां निर्बाध रूप से चलती रहती हैं।

पर्यावरण संरक्षण के मकसद से ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में बाहरी लोगों के जमीन-जायदाद खरीदने पर कानूनन पाबंदी है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में इन पहाड़ी राज्यों की सरकारों के लिए इस कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है और कई कंस्ट्रक्शन कंपनियां पहाड़ों में अपना कारोबार फैला चुकी हैं। जिन इलाकों में दो मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने पर रोक थी, वहां अब बहुमंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो गई हैं। बड़ी इमारतें बनाने और सड़कें चौड़ी करने के लिए जमीन को समतल बनाने के लिए विस्फोटकों के जरिए पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई-छंटाई से पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि थोड़ी सी बारिश होने पर वे धंसने लगते हैं और पहाड़ों का जनजीवन कई-कई दिनों के लिए गड़बड़ा जाता है। पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण का कारोबार फैलने के साथ ही सीमेंट, बिजली आदि का उत्पादन करने वाली कंपनियों ने भी इन इलाकों में प्रवेश कर लिया है। कुछ अध्ययनों से यह भी जाहिर हो चुका है कि संचार सुविधाओं के लिए लगे टावरों से निकलने वाली तरंगों की वजह से बादलों का संतुलन बिगड़ता है और वे अचानक फटकर संकट पैदा कर देते हैं।

पर्यावरण संरक्षण संबंधी कानूनों के तहत पहाड़ी और वन्य इलाकों में कोई भी औद्योगिक या विकास परियोजना शुरू करने के लिए स्थानीय पंचायतों की अनुमति जरुरी होती है, लेकिन राज्य सरकारें जमीन अधिग्रहण संबंधी अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए विकास के नाम पर आम तौर पर कंपनियों के साथ खड़ी नजर आती हैं। इन सबके खिलाफ जन-प्रतिरोध का किसी सरकार पर कोई असर नहीं होता देख अब लोगों ने अदालतों की शरण लेनी शुरू कर दी है, लेकिन अब तो अदालतें भी आमतौर पर वैसे ही फैसले देती हैं जैसे सरकार चाहती हैं।

दरअसल, पहाड़ों को और पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरत है एक व्यापक लोक चेतना अभियान की, जिसका सपना पचास के दशक में डॉ. राममनोहर लोहिया ने 'हिमालय बचाओ' का नारा देते हुए देखा था या जिसके लिए गांधीवादी पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने 'चिपको आंदोलन' शुरू किया था। हालांकि संदर्भ और परिप्रेक्ष्य काफी बदल चुके हैं लेकिन उनमें वैकल्पिक सोच के आधार-सूत्र तो मिल ही सकते हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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