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बिहार में सूखा तो यूपी में बहार है

एक दौर में नीतीश कुमार देश भर में शराबबंदी की बात करते थे। उनके महिला समर्थन के मिथ में शराबबंदी को भी कारण माना जाता है लेकिन इसे साबित करना आसान नहीं है।

बिहार में सूखा तो यूपी में बहार है
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अरविन्द मोहन

एक दौर में नीतीश कुमार देश भर में शराबबंदी की बात करते थे। उनके महिला समर्थन के मिथ में शराबबंदी को भी कारण माना जाता है लेकिन इसे साबित करना आसान नहीं है। इस सवाल पर एनडीए में उनकी साझीदार भाजपा और अन्य दल भी चुप्पी ही साधे हुए हैं। एनडीए के छोटे दलों की छोड़ भी दें तो भाजपा की चुप्पी के पीछे काफी बड़े कारण है।

बिहार जाना हो तो सावधान होकर जाइए। बार्डर आते ही आपकी ऐसी तलाशी शुरू होगी कि आप सचमुच में अपमानित महसूस करेंगे। और यह तलाशी भी एक जगह नहीं या एक बार न होकर बार-बार होगी। चुनाव हैं तो यह अभियान बढ़ा है वरना वैसे भी राज्य पुलिस का यह प्रिय काम बन गया है क्योंकि बिहार में शराबबंदी है। चुनाव में भी सौ करोड़ से ज्यादा की जो धर-पकड़ हुई है उसमें शराब और ड्रग्स का हिस्सा अस्सी फीसदी से ज्यादा है जो अन्य राज्यों की तुलना में बहुत अधिक है। वहां नकदी जब्त होने का हिस्सा ज्यादा हुआ करता है और यह तब है जबकि बिहार चुनाव में कोई भी दल शराबबंदी को मुद्दा नहीं बना रहा है। शुरू में प्रशांत किशोर इस मुद्दे को उठाया रहे थे लेकिन लोगों में इसका असर खास न देखकर चुप्पी सी साध ली है। वह नीतीश कुमार और जदयू भी इसे नहीं उठा रहे हैं जो इसे ले आये हैं। एक दौर में नीतीश कुमार देश भर में शराबबंदी की बात करते थे। उनके महिला समर्थन के मिथ में शराबबंदी को भी कारण माना जाता है लेकिन इसे साबित करना आसान नहीं है। इस सवाल पर एनडीए में उनकी साझीदार भाजपा और अन्य दल भी चुप्पी ही साधे हुए हैं।

एनडीए के छोटे दलों की छोड़ भी दें तो भाजपा की चुप्पी के पीछे काफी बड़े कारण है। आज वह सिर्फ मुल्क में ही नहीं, देश के अधिकांश राज्यों में शासन कर रही है। शराब ही आज राज्यों की आमदनी का मुख्य स्रोत है और उस पर प्रतिबंध या उसके करों में कमी-बेसी करना पूरी तरह राज्य सरकार के हाथ में है। इस मुद्दे पर नीतीश कुमार सरकार के फैसलों की आलोचना तो आत्मघाती होगा ही, तारीफ भी मुश्किल है। ऐसी हालत में हर जगह उसकी सरकारों को जवाब देना मुश्किल होगा। उसके लोग भी मानते हैं कि शराबबंदी से बिहार को राजस्व का भारी नुकसान हुआ है तो साथ ही वहां शराब की बिक्री का एक पूरा अवैध नेटवर्क बन गया है और वह हर कहीं शराब उपलब्ध करा देता है। नकली शराब बनाने का धंधा भी चल रहा है। और भाजपा समेत काफी सारे दलों का मानना है कि यह नेटवर्क राजद से जुड़े लोग चलाते हैं। कई बार यह आरोप भी लगता है कि बिहार पुलिस बाकी धंधे छोड़कर शराब पकड़ने और उस बहाने कमाई करने में लगी रहती है। इस चक्कर में पुलिस की सामान्य जिम्मेदारियों का निर्वहन भी ठीक से नहीं होता।

बिहार की शराबबंदी से अगर पुलिस वालों का कु छ लाभ-घाटा होगा तो उसके सीमावर्ती प्रदेशों को भी लाभ है और सबसे बड़ी सीमा उत्तर प्रदेश से लगती है। नेपाल और झारखंड का नंबर भी है लेकिन शराब की तस्करी में उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर होगा। पकड़ी गई शराब में उसकी सीमा पर जब्त माल का आकार-प्रकार भी इसकी पुष्टि करता है। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार के अति व्यावहारिक और 'लाभदायीÓ शराब नीति ने जिस तरह से राज्य में शराब की खपत और साथ ही सरकार के खजाने में वृद्धि की है वह चौंकाने वाला है। पिछले वित्त वर्ष में उत्तर प्रदेश को शराब की बिक्री से 51000 करोड़ रुपए का राजस्व मिला जो कि राज्यों के सालाना बजट से ज्यादा है। और भले ही शराब पीने के मामले में उत्तर प्रदेश वाले अभी पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों और दक्षिण के राज्यों से पीछे हों पर वे जल्दी ही पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों को पीछे छोड़ सकते हैं। हमारे मानस में पंजाब ही सबसे ज्यादा शराब खपत करने वाला है लेकिन वास्तविकता में अब वह तेलंगाना के आधे में रह गया है।

उत्तर प्रदेश के बारे में भविष्यवाणी करने का आधार उसकी नई शराब नीलामी नीति की व्यावहारिकता, नीतियों में निरन्तरता और शराब के व्यापारियों द्वारा इसे पसंद करना कारण है। उत्तर प्रदेश में शराब की दुकान के लिए आप आनलाइन नीलामी में हिस्सा ले सकते हैं और इस चलते कीमतों में घालमेल की गुंजाइश एकदम कम हो गई है। ऊपर से नीतियों में स्थिरता ने बाहर से आकार प्रदेश में कारोबार करने वालों को निश्चिंत कर दिया है। अब यह सवाल मत उठाइएगा कि एक संन्यासी मुख्यमंत्री यह सब कैसे कर लेते हैं। असल में यह काम नौकरशाही का है और उन्होंने ही बियर और देसी के साथ विदेशी शराब बेचने की दुकानें चलाने की अति-लाभदायक नीति बनाई है। अब इससे प्रदेश के लोगों का क्या लाभ है वह भले विवादास्पद हो लेकिन उससे कोविड पूर्व का 24 हजार करोड़ का राजस्व 51 हजार करोड़ पार कर गया है जो नई शराब नीति डेढ़ साल पहले आई है। उसमें शराब और गांजा-भांग की सभी चार तरह की दूकानों के लिए आनलाइन नीलामी और लाटरी की व्यवस्था हो गई है। और पहली ही नीलामी में न सिर्फ चार लाख से ज्यादा आवेदक आये बल्कि 27 हजार से ज्यादा दुकानें नए मालिकों के हवाले हो गईं। प्रोसेसिंग फीस के रूप में ही 2000 करोड़ की कमाई हो गई और देश भर में इस नई नीति की व्यावहारिकता का डंका बजने लगा।

इस व्यावहारिकता में बिहार से लगे कस्बों और शहरों में दुकानों की बाढ़ और उनसे मोटा राजस्व पाना भी एक सफलता थी। कुशीनगर जिले के तमकुहीराज जैसे छोटे कस्बे में जब सिद्धार्थनगर में कारोबार करने वाले व्यवसायी को दुकान मिल गई तो वह यह देखकर हैरान था की पुराने शहर में अद्धा-पौवा और बोतल खरीदने वाले थे तो यहां एक साथ कई-कई बोतल। बिहार में आती-जाती गाड़ियां अकसर बार्डर के इन ठिकानों पर रुककर माल उठाती हैं। गाजीपुर, कुशीनगर, चंदौली, बलिया, देवरिया और सोनभद्र जिलों को भी इसी के चलते ज्यादा राजस्व मिलना शुरू हुआ। ऐसा ही लाभदायक फैसला सिर्फ बियर या आईएफएमएल अर्थात कंट्री मेड फ़ारेन लिकर की दूकानों को बंद करके कम्पोजिट दुकान खोलने का भी था। मध्य प्रदेश और राजस्थान की तरह ही करीब दस हजार कम्पोजिट दुकानें खोली गईं। कहना न होगा कि ये दोनों राज्य भाजपा शासित है और भाजपा एक तरफ तो उनसे यह सीख लेती है लेकिन बिहार की सीख कहीं भी लागू करने का प्रयास नहीं करती।


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