Top
Begin typing your search above and press return to search.

फिर वे ''वंदे मातरम्'' के लिए आए!

मोदी राज में संसद समेत देश को चलाने वाली सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं की प्राथमिकताओं को जान-बूझकर सिर के बल खड़ा कर दिया गया है

फिर वे वंदे मातरम् के लिए आए!
X
  • राजेंद्र शर्मा

यह एक जानी-मानी सचाई है कि ''वंदे मातरम्'' भारत की आजादी की लड़ाई की सबसे प्रमुख प्रेरणादायी पुकारों में था। वंदे मातरम् गीत से भी बढ़कर, वंदे मातरम् का नारा देशभक्ति की पुकार बनकर, आजादी के दीवानों के सुरों में गूंजा। यह विशेष रूप से पिछली सदी के पहले के दशक में ''बंग भंग'' विरोधी आंदोलन के दौर से, आजादी की पुकार के प्रतीक के रूप में पहले बंगाल में और फिर देश भर में स्वीकार किया गया। इसी दौर में बंगाल में आधारित कुछ क्रांतिकारी ग्रुपों द्वारा भी ''वंदे मातरम्'' गीत को अपने प्रेरक-गीत के रूप में अपनाया गया।

मोदी राज में संसद समेत देश को चलाने वाली सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं की प्राथमिकताओं को जान-बूझकर सिर के बल खड़ा कर दिया गया है। इसके लिए अगर अब भी किसी प्रमाण की आवश्यकता थी, तो वह भी संसद के चालू सत्र में आंखों में चुभने वाले तरीके से सामने आ चुका है। पहले ही कतर कर बहुत छोटे कर दिए गए शीतकालीन सत्र में पहली ही विस्तृत बहस ''वंदे मातरम्'' पर हो रही है। यह तब है जबकि देश का मीडिया अधिकांशत: शासन द्वारा गोद लिए जाने के बावजूद, उसकी सुर्खियों में कम से कम तीन मुद्दों को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। इनमें पहला मुद्दा देश के बड़े हिस्से में जारी मतदाता सूचियों के गहन विशेष पुनरीक्षण से मचे हाहाकार का ही है। इसमें एक ओर करोड़ों लोगों को एक बार फिर नोटबंदी की तरह अनावश्यक परेशानियों में धकेले जाने का तथ्य है, तो दूसरी ओर अविवेकपूर्ण डैडलाइनों के चलते इस काम के बोझ के तले तीन दर्जन से ज्यादा ब्लाक लेवल आफीसरों की आत्महत्या से लेकर अकाल मौतों तक की सचाई है। दूसरा, करोड़ों लोगों को प्रभावित करने वाला ऐसा ही महत्वपूर्ण मुद्दा, राजधानी समेत देश के बड़े हिस्से में और विशेष रूप से उत्तरी भारत में प्रदूषण के घातक रूप लेने से पैदा हुई स्वास्थ्य इमर्जेेंसी का है। और तीसरा, इंडिगो द्वारा खड़े किए गए संकट के फूट पड़ने से पैदा हुए, देश भर में विमान यात्रियों के अभूतपूर्व संकट का है। पर इन तीनों संकटों पर चर्चा की मांगों को पीछे कर के, सबसे पहले और सबसे आगे, ''वंदे मातरम्'' पर समारोही बहस करायी जा रही है!

''वंदे मातरम्'' के कथित रूप से डेढ़ सौ वर्ष होने के मौके पर, साल भर चलने वाले देशव्यापी आयोजनों के हिस्से के तौर पर हो रही इस समारोही चर्चा में, मोदी सरकार की दिलचस्पी कितनी ज्यादा है, इसका अंदाजा एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लंबे भाषणा के साथ, लोकसभा में इस बहस की शुरूआत की है। हैरानी की बात नहीं होगी कि यही इस पूरे सत्र में प्रतिनिधि सदन में प्रधानमंत्री मोदी की आखिरी टिप्पणी बल्कि उनकी आखिरी उपस्थिति भी हो। लेकिन, इससे किसी को इसका भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह, 1950 में संविधान के स्वीकार किए जाने के साथ ही, राष्ट्रर गान के रूप में ''जन गण मन'' के अपनाए जाने के साथ ही, एक राष्ट्रर गीत के रूप में स्वीकार किए गए ''वंदे मातरम्'' के महत्व को पहचाने जाने और रेखांकित करने की चिंता को दिखाता है। अगर किसी को ऐसा भ्रम रहा भी होगा, तो प्रधानमंत्री के भाषण से तो अवश्य ही दूर हो गया होगा। पहले कुछ मिनटों को छोड़कर, प्रधानमंत्री का पूरा भाषण खासतौर पर कांग्रेस पर और आम तौर पर विपक्ष पर हमला करने पर ही केंद्रित था। इसमें इमर्जेंसी से लेकर, कश्मीर तक सब कुछ था। जाहिर है कि ''वंदे मातरम्'' का डेढ़ सौ वर्ष पर स्मरण, विपक्ष पर प्रधानमंत्री के ट्रेड मार्क हमले का एक बहाना भर था। और वंदे मातरम् को हथियाने की कोशिश भी।

अचरज की बात नहीं है कि वंदे मातरम् और उसके लेखक, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को हथियाने की हड़बड़ी में, नरेंद्र मोदी इस प्रसिद्घ बंगला लेखक का एक प्रकार से अपमान ही कर बैठे। जाहिर है कि अपने से करीब सौ साल पहले हुए, बंकिम चंद्र चैटर्जी को प्रधानमंत्री का झूठी निकटता का प्रदर्शन करने की कोशिश में ''बंकिम दा'' संबोधित करना, बंगालियों को काफी खटका होगा। बंगाली परंपरा में सम्मान जताने के लिए ''दा'' का प्रयोग किया तो जाता है, लेकिन बोलने वाले की अपनी पीढ़ी के लोगों के लिए ही। अपने से पहले की पीढ़ियों के लोगों के लिए इसी का प्रयोग, सम्मान के बजाए अनादर का सूचक ही बन जाता है। लोकसभा में ही इस पर विरोध जताये जाने पर, प्रधानमंत्री को आइंदा इसे नहीं दुहराने का आश्वासन भी देना पड़ा।

हैरानी की बात नहीं है कि इस बहस में विपक्ष की कतारों से यह सवाल भी बार-बार उठता रहा कि सत्ताधारी संघ-भाजपा परिवार की, ''वंदे मातरम्'' को हथियाने की बल्कि विपक्ष के खिलाफ अपना हथियार बनाने की यह कोशिश क्यों? इस क्यों का जवाब, अन्य चीजों के अलावा अगले साल के शुरू में होने जा रहे बंगाल के विधानसभाई चुनाव में हैं? इस चुनाव में जीत के लिए संघ-भाजपा ने, अपनी केंद्र सरकार समेत और यहां तक चुनाव आयोग समेत, अपने सारे औजारों को पहले ही लगा दिया है। मोदी सरकार में नंबर दो, अमित शाह तो चुनावों के अगले चक्र में विशेष रूप से बंगाल और तमिलनाडु में, भाजपा की जोरदार जीत का एलान भी कर चुके हैं। ''वंदे मातरम्'' और बंकिम चंद्र पर उमड़ा अतिरिक्त प्रेम, इस चुनाव के लिए ही एक पैंतरा है। बंगाल के पिछले चुनाव के समय नेताजी, सुभाष चंद्र बोस को इसी तरह से हथियाने और हथियार बनाने की कोशिश की गयी थी। काठ की हांड़ी बार-बार तो चूल्हे पर चढ़ा नहीं सकते। इस चुनावी सीजन में बंकिम की बारी है।

यह एक जानी-मानी सचाई है कि ''वंदे मातरम्'' भारत की आजादी की लड़ाई की सबसे प्रमुख प्रेरणादायी पुकारों में था। वंदे मातरम् गीत से भी बढ़कर, वंदे मातरम् का नारा देशभक्ति की पुकार बनकर, आजादी के दीवानों के सुरों में गूंजा। यह विशेष रूप से पिछली सदी के पहले के दशक में ''बंग भंग'' विरोधी आंदोलन के दौर से, आजादी की पुकार के प्रतीक के रूप में पहले बंगाल में और फिर देश भर में स्वीकार किया गया। इसी दौर में बंगाल में आधारित कुछ क्रांतिकारी ग्रुपों द्वारा भी ''वंदे मातरम्'' गीत को अपने प्रेरक-गीत के रूप में अपनाया गया। इससे पहले, बंकिम चंद्र की बंगाल के सन्यासी विद्रोह पर आधारित उपन्यास कृति में, ''आनंद मठ'' में इसे प्रार्थना गीत के रूप में प्रकाशित किया जा चुका था।

वैसे मूल कविता ''वंदे मातरम्'', बंकिम चंद्र के उपन्यास से और पहले लिखी गयी थी। और साहित्यालोचकों के अनुसार, यह कविता दो अलग-अलग हिस्सों में लिखी गयी थी या कहना चाहिए कि मूल कविता अपेक्षाकृत छोटे शुरूआती दो छंदों के रूप में थी, जिसे बाद का अंश जोड़कर, उपन्यास की प्रार्थना के रूप में बढ़ा दिया गया था। बाद का अंश अपने स्वर, शैली, लय, सब में पहले अंश से काफी भिन्न है। रवींद्रनाथ टैगोर इस कविता से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने ही पहली बार इसे स्वरबद्घ कर, बंकिम के सामने प्रस्तुत भी किया था। यह इस गीत के इतिहास का एक पक्ष है।

इसी इतिहास का दूसरा पक्ष यह है कि बीस और तीस के दशकों तक आते-आते, इस गीत के एक राष्ट्रर गीत के रूप उपयोग के साथ ही, उसकी सीमाएं भी सामने आने लगीं। वंदे मातरम् के नारे से भिन्न यह गीत, जो मूलत: बंग-माता की प्रार्थना के रूप में था और जिसका बाद का हिस्सा विशेष रूप से बंगला-संस्कृत मिश्रित भाषा में था और इसलिए पूरे देश द्वारा इसे अपनाया जाना आसान नहीं था। एक और बड़ी समस्या, इस कविता में विशेष रूप से बाद के हिस्से में, देवी दुर्गा के रूप की कल्पना थी, जो एक बहुधार्मिक राष्ट्ररीय आंदोलन के प्रतीक के रूप में, इसकी स्वीकार्यता को मुश्किल बनाती थी। यह समस्या इस तथ्य से और भी बढ़ जाती थी कि यह गीत जिस आनंदमठ उपन्यास से लिया गया था, उसमें ब्रिटिश शासन के मजिस्टे्रट होने के नाते बंकिम चंद्र ने, अंगरेजों को नाखुश करने से बचने के लिए, बाद में सन्यासी विद्रोह की कहानी को अंगरेजों के बजाए, मुसलमान शासकों के खिलाफ लड़ाई के रूप में मोड़ दिया था। इससे ''वंदे मातरम'' गीत की देवी की छवि की गैर-हिंदुओं के लिए स्वीकार्यता और मुश्किल हो जाती थी।

इसी पृष्ठभूमि में और एक ओर मुस्लिम लीग तथा दूसरी ओर हिंदू महासभा के ''वंदे मातरम्'' के विरोध के बीच, जब राष्ट्ररीय आंदोलन की मुख्य धारा के रूप में कांग्रेस ने 1937 में अपने राष्ट्ररीय कार्यक्रमों में ''वंदे मातरम्'' गाए जाने का नियम बनाया, इसके साथ ही यह भी तय किया कि इस गीत के पहले दो बंद ही गाए जाएंगे। यह निर्णय सबसे बढ़कर रवींद्र नाथ टैगोर की सम्मति से और गांधी समेत तमाम राष्ट्ररीय आंदोलन के शीर्ष नेताओं की सहमति से लिया गया। रवींद्र बाबू ने बाद में इस संबंध में लिखा भी था कि क्यों उनकी राय में ऐसा करने की जरूरत थी। यही निर्णय देश के आजाद होने के बाद, ''वंदे मातरम्'' के राष्ट्रर गान के समांतर, राष्ट्रर गीत के रूप में स्वीकार किए जाने तक पहुंचा है। लेकिन, ''वंदे मातरम्'' के सर्व-स्वीकार्य रूप में अपनाए जाने के हिंदू महासभा व शेष संघ परिवार और मुस्लिम लीग, दोनों के विरोध की परंपरा ऐसा लगता है कि अब भी बनी हुई है। मोदी की भाजपा ''वंदे मातरम्'' का सम्मान करने के नाम पर, उसी विरोध को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है।

और यह किया जा रहा है, ''वंदे मातरम्'' के डेढ़ सौ साल पूरे होने के सेलिब्रेशन के नाम पर। मकसद है, बंगाल के और अन्य राज्यों के भी चुनाव के मौके पर, यह संदेश देने की कोशिश करना कि विपक्ष हिंदू-विरोधी है क्योंकि वह अन्य धर्मों को मानने वालों और खासतौर पर मुसलमानों को भी साथ लेकर चलना चाहता है, जिसे संघ परिवार मुस्लिम तुष्टीकरण कहकर बदनाम करता है। यही आरोप वह गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्ररीय आंदोलन की मुख्यधारा पर भी लगाता था। दूसरी ओर, भाजपा ही हिंदू-हितकारी है क्योंकि वह अन्य धर्मावलंबियों को जान-बूझकर चोट पहुंचाने की हिमायत करती है। सांप्रदायिक धु्रवीकरण का वही काम जो एकदम तात्कालिक रूप से, भाजपा से लेकर तृणमूल और कांगे्रस तक आवाजाही करते रहे, विधायक हुमायूं कबीर के बंगाल में बाबरी मस्जिद बनाने के एलान के विरोध में, भाजपा समेत संघ परिवार द्वारा कोलकाता में ब्रिगेड मैदान में ''सामूहिक गीता पाठ'' के नाम पर बड़ी संख्या में लोगों को एका कर के किया गया है, वही इससे थोड़े बारीक तरीके से ''वंदे मातरम्'' के गौरवान्वयन के नाम पर किया जा रहा है!

बेशक, इस सब का तात्कालिक मकसद मोदी सरकार की चौतरफा विफलताओं की तरफ से संसद समेत देश भर का ध्यान हटाना तो है ही। और यह सब इसके भरोसे के साथ किया जा रहा है कि मोदी केे संघ-भाजपा परिवार को कभी इसका जवाब नहीं देना पड़ेगा कि अगर, संघ परिवार की दृष्टिï में एक उद्बोधन गीत के रूप में का इतना ही सम्मान था, तो आरएसएस को अपनी प्रार्थना के रूप में उसे स्वीकार करने से किसने रोका था? कांग्रेस ने फिर भी ''वंदे मातरम्'' का शुरू का हिस्सा अपनाया था, आरएसएस ने क्यों पूरे के पूरे ''वंदे मातरम्'' को छोड़कर, पहले मराठी की अपनी प्रार्थना को और बाद में संस्कृत की ''नमस्ते सदा वत्सले...'' का अपनाया था।

(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it