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साल 2025: भारत के दामन में कांटे ही कांटे

हर कैलेंडर वर्ष अपने दामन में तमाम तरह की कड़वी-मीठी यादें समेटे हुए बिदा होता है

साल 2025: भारत के दामन में कांटे ही कांटे
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  • अनिल जैन

भारत सरकार भले ही दावा करे कि आर्थिक तरक्की के मामले में पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि वैश्विक आर्थिक मामलों के तमाम अध्ययन संस्थान भारत की अर्थव्यवस्था का शोकगीत गा रहे हैं। वैश्विक स्तर पर भारत की साख सिर्फ आर्थिक मामलों में ही नहीं गिर रही है, बल्कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी, मानवाधिकार और मीडिया की आजादी में भी भारत की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग इस साल पहले से बहुत नीचे आ गई है।

हर कैलेंडर वर्ष अपने दामन में तमाम तरह की कड़वी-मीठी यादें समेटे हुए बिदा होता है। ये यादें अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को लेकर भी होती हैं और राष्ट्रीय घटनाओं से सम्बन्धित भी। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, विज्ञान और खेल आदि क्षेत्रों से जुड़ी कड़वी-खट्टी-मीठी यादों की वजह से उस साल को याद किया जाता है। कोई-कोई साल भीषण प्राकृतिक अथवा मानव निर्मित आपदाओं के लिए भी इतिहास के पन्नों में यादगार साल के तौर पर दर्ज हो जाता है।

अगर भारत के संदर्भ में देखें तो वर्ष 2025 चौंकाने वाले राजनीतिक घटनाक्रमों और सामाजिक टकरावों के साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा को पड़ोसी देशों से मिलती चुनौतियों, अभूतपूर्व बेरोजगारी व महंगाई के चलते आम लोगों के लिए दुश्वारियों से भरा रहा। न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं की साख पर पहले से उठ रहे सवाल और ज्यादा गहरे हुए। सरकार की ओर से संसद और संविधान की अवहेलना का सिलसिला भी जारी रहा। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे संवैधानिक मूल्यों पर सत्ता प्रतिष्ठान के हमले बदस्तूर होते रहे। हमेशा की तरह प्राकृतिक आपदाओं के साथ ही भ्रष्टाचार जनित मानव निर्मित आपदाओं का सिलसिला भी इस साल भी जारी रहा। देश भर में, खास कर उत्तर भारत में यौन अपराधों का ग्राफ तेजी से बढ़ता रहा। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश पर एक हिंदुत्ववादी वकील द्वारा जूता उछालने और संसद में सत्तारूढ़ पार्टी के एक सांसद द्वारा सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पर देश को गृहयुद्ध में झोंकने का आरोप लगाना भी इस साल की उल्लेखनीय घटना रही।

वर्ष 2025 की शुरुआत प्रयागराज इलाहाबाद में हुए कुंभ से हुई थी। एक महीने तक चले इस विश्वस्तरीय धार्मिक आयोजन के दौरान सरकारी सूचना के मुताबिक 36 लोग मारे गए, जबकि गैर सरकारी अनुमानों के मुताबिक 100 से ज्यादा लोगों की मौत हुई और अनगिनत लोग घायल हुए। कुंभ के सिलसिले में ही फरवरी महीने में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में भी 20 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। इन दो दुर्घटनाओं से ऐसे आयोजनों के दौरान भीड़ प्रबंधन में सरकारी तंत्र की कमजोरी और लापरवाही एक बार फिर उजागर हुई।

इसके बाद जून के महीने में अहमदाबाद में एयर इंडिया के विमान गिरने की दर्दनाक घटना, उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा और बेंगलुरू में आईपीएल की जीत के जश्न में मची जानलेवा भगदड़ भी देश को गहरे जख्म दे गई। अहमदाबाद की विमान दुर्घटना में 241, उत्तराखंड त्रासदी में 100 से ज्यादा और बेंगलुरू की भगदड़ में 17 लोग मारे गए। साल के आखिरी महीने में देश की एकमात्र एयरलाइंस सेवा इंडिगो में कुप्रबंधन के चलते तीन दिन तक विमान सेवाएं ठप रहीं, जिससे देश भर के हवाई अड्डों पर अभूतपूर्व अफ़रा-तफ़री मची और लाखों लोग बुरी तरह परेशान हुए। यह पूरा संकट सरकार के निजीकरण और एकाधिकार वाले मॉडल का नतीजा रहा।

इन सभी घटनाओं के दरमियान ही 25 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकवादियों के हमले 27 पर्यटक मारे गए। इस हमले ने कश्मीर घाटी में कमजोर सुरक्षा व्यवस्था के साथ ही आतंकवाद खत्म होने के केंद्र सरकार के दावे की भी कलई खोल दी। इस हमले के बाद जवाबी कार्रवाई करते हुए भारतीय सेना ने 6 मई की रात को ऑपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तान और उसके कब्जे वाले कश्मीर में स्थित आतंकवादियों के ठिकानों पर हवाई हमले किए, जिससे दोनों देशों के बीच युद्ध जैसे हालात बन गए। चार दिन तक दोनों देशों के बीच हुए सैन्य टकराव के बाद संघर्ष विराम हुआ। इस ऑपरेशन सिंदूर के दौरान बेशक भारतीय सेना ने अपना पराक्रम दिखाया लेकिन भारतीय राजनीतिक नेतृत्व के कूटनीतिक प्रयास पाकिस्तान के खिलाफ विश्व राजनीति को प्रभावित करने में नाकाम रहे। इसके विपरीत पाकिस्तान पहली बार वैश्विक शक्तियों का समर्थन हासिल करने में कामयाब होता दिखा।

ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद हुए संघर्ष विराम ने भारत और अमेरिका के बीच संबंधों पर भी प्रतिकूल असर डाला। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कई बाद दावा किया कि भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम उन्होंने कराया, लेकिन भारत के शीर्ष नेतृत्व की ओर से एक बार भी उनके दावे का खंडन नहीं किया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति के आक्रामक आत्मप्रदर्शन के आगे भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुप्पी को दुनिया ने उसकी बेबसी के रूप में देखा। अमेरिका से रिश्तों में खिंचाव के चलते भारत ने चीन और रूस के साथ अपने सर्द पड़े रिश्तों में गरमाहट लाने के प्रयास किए।

वैश्विक राजनीति में कमजोर प्रदर्शन के साथ ही साल 2025 में अर्थव्यवस्था के चरमराने का सिलसिला भी जारी रहा, जिसके नतीजे के तौर पर देश में गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई। यह बढ़ोतरी किस स्तर तक पहुंच गई है, यह जानने के लिए ज्यादा पड़ताल करने की जरूरत नहीं है। इसकी स्थिति को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के जरिए बहुत आसानी से समझा जा सकता है। खुद सरकार का दावा है कि इस योजना के तहत देश के 80 करोड़ राशनकार्ड धारकों को हर महीने मुफ्त राशन दिया जा रहा है। हालांकि इसके बावजूद सरकार की ओर से अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर लोगों को दिखाई जा रही है। विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था बनने का दावा करते हुए आंकड़ों की बाजीगरी के जरिये जीडीपी की विकास दर को 8.2 फीसदी बताया जा रहा है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत दुनिया के देशों में 136वें नंबर पर है और ढोल पीटा जा रहा है कि भारत जल्दी ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और विकसित राष्ट्र बन जाएगा।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत गिरने का सिलसिला इस साल भी बना रहा और वह सबसे बुरी तरह पिटने वाली एशियाई मुद्रा बन गया। प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी कहा करते थे कि 'जिस देश की करेंसी गिरती है, उस देश की आबरू भी गिर जाती है', लेकिन अब मोदी सरकार के मंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ता रुपये की कीमत गिरने के फायदे बता रहे हैं। पिछले तीन वर्षों के दौरान भारत सरकार ने अपना खर्च चलाने के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष दो-दो बार पैसे लिए थे और इस साल उसने जनता पर टैक्स का बोझ बढ़ाया, शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट में कटौती की और सरकारी उपक्रमों व सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने का सिलसिला जारी रखा। यही नहीं, पैसे के अभाव में ही उसे मनरेगा जैसी कल्याणकारी योजना को भी बंद करना पड़ा, जो कि ग्रामीण अर्थव्यस्था का बहुत बड़ा सहारा बनी हुई थी।

भारत सरकार भले ही दावा करे कि आर्थिक तरक्की के मामले में पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि वैश्विक आर्थिक मामलों के तमाम अध्ययन संस्थान भारत की अर्थव्यवस्था का शोकगीत गा रहे हैं। वैश्विक स्तर पर भारत की साख सिर्फ आर्थिक मामलों में ही नहीं गिर रही है, बल्कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी, मानवाधिकार और मीडिया की आजादी में भी भारत की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग इस साल पहले से बहुत नीचे आ गई है। हालांकि भारत सरकार ऐसी रिपोर्टों को तुरंत खारिज कर देती है; और सरकार के प्रचार तंत्र का हिस्सा बन चुका मीडिया का एक बडा हिस्सा भी इस मामले में सरकार के सुर में सुर मिलाता है, जबकि यह रेटिंग हमारे यहां होने वाले चुनावी सर्वेक्षण या एग्जिट पोल की तर्ज पर नहीं, बल्कि तथ्यों पर आधारित होती है।

बहुत मुमकिन है कि इस पूरे सूरत-ए-हाल से बेखबर हिंदुत्ववादी विचारधारा के संगठन और विकास का झांसा देकर सत्ता में आए उनके लोग देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने मंसूबे को पूरा करने की दिशा में इस साल को भी अपने लिए उपलब्धियों से भरा मान लें, क्योंकि इस साल उसने राजनीतिक स्तर पर दो बड़ी कामयाबी हासिल की है। उसने दिल्ली में आम आदमी पार्टी को सत्ता से बेदखल कर 27 साल बाद अपनी सरकार बनाई है और बिहार में उसने पहली बार सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सत्ता में अपनी साझेदारी बरकरार रखी है। हालांकि दोनों ही जगह उसकी कामयाबी में चुनाव आयोग की विवादास्पद भूमिका मददगार रही।

वैसे सावरकर-गोलवलकर प्रणित हिंदुत्व की विभाजनकारी विचारधारा को बढ़त तो 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से ही मिलने लगी थी लेकिन उसके दूरगामी नतीजे 2019 से आना शुरू हुए थे जो साल 2024 में और अब 2025 में तो बहुत साफ तौर पर नजर आए हैं। कुल मिलाकर इस समय देश का जो परिदृश्य बना हुआ है, वह आने वाले सालों में हालात और ज्यादा संगीन होने के संकेत दे रहा है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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