नौकरशाही को खोखला कर रहा भ्रष्टाचार का कीड़ा
पंंजाब में पुलिस के एक उप महानिरीक्षक (डीआईजी) को भ्रष्टाचार के मामले में गिरफ्तार किया गया है

- जगदीश रत्तनानी
स्वतंत्रता और अखंडता मिथक बन गए हैं। स्वाभिमान का न होना ही आदर्श हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने के लिए अक्सर सुना जाने वाला रोना एक समूह के लिए अर्थहीन साइडबार है जिनकी पहचान आत्म-संरक्षण के लिए झुकना और पहला अवसर मिलते ही शोषण करना है। अभी तक आया अनुभव इस पनपने वाली सड़ांध की पुष्टि करता है।
पंंजाब में पुलिस के एक उप महानिरीक्षक (डीआईजी) को भ्रष्टाचार के मामले में गिरफ्तार किया गया है। यह मामला एक ही समय में दुस्साहस, घृणित और वीभत्सता का प्रतीक है। जिस नौकरशाही को कभी 'भारत का स्टील फ्रेम' कहा जाता था, उसमें एक अधिकारी की इस तरह की लूट और उसका शीर्ष पद पर सामान्य काम-काजी जीवन व्यतीत करना नौकरशाही के भीतर पतन और इसके सामान्यीकरण की सीमा को दर्शाता है। ऐसा संभव नहीं है कि इस अधिकारी का अत्यधिक लालच उनके साथियों और सरकार को मालूम न हो लेकिन इससे पता चलता है कि बल में पथभ्रष्टता को किस हद तक स्वीकार किया जाता है। आरोपी आईपीएस अधिकारी हरचरण सिंह भुल्लर की हिरासत के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और राज्य के सतर्कता ब्यूरो (विजिलेंस ब्यूरो) के बीच टकराव के कारण मामला और जटिल हो गया। भुल्लर के यहां से 7.5 करोड़ रुपये की नकदी, लग्जरी कारों का संग्रह, 2.5 किलोग्राम वजन के सोने के आभूषण, 26 लग्जरी घड़ियां और परिवार के सदस्यों और संदिग्ध बेनामी संस्थाओं के नाम पर लगभग 50 अचल संपत्तियों के दस्तावेज़ जब्त किए गए हैं। एक तरह से यह लूट का खुला मामला है लेकिन दूसरे स्तर पर सीबीआई व राज्य के बीच की खींच-तान एक गहरी सड़ांध, संबंधों की जटिलता और राजनीतिक निहितार्थ के उद्देश्यों की ओर इशारा करती है। इस केस में जो कुछ भी सामने आता है, वह अलग बात है लेकिन सीबीआई के खिलाफ पहले से ही मिले सभी सबूतों के मद्देनजर अपना बचाव करने के लिए भुल्लर को कड़ी मेहनत करनी होगी। इन सबूतों में एक वॉयस कॉल भी शामिल है जिसमें आरोपी अपने बिचौलिए को दी गई रिश्वत के बारे में आगे के कदमों पर चर्चा करता है।
यह मामला असामान्य तो है किन्तु अनोखा नहीं। नौकरशाही अपने कई लोगों की रक्षा करती है। उसके बाद भी नियमित अंतराल पर घोटाले सामने आते हैं जिससे समय-समय पर झटके लगते हैं जो हमें बताते हैं कि भ्रष्टाचार भारतीय समाज में स्थायी रूप से है और नौकरशाही में पनपता है। यह बीमारी जटिल है और विभिन्न रूपों और अंदाजों में आती है तथा संरक्षण की राजनीति से प्रेरित है। रिश्वतखोरी, भ्रष्ट प्रथाओं के बड़े कैनवास का एक हिस्सा है जिसमें (विशेष रूप से वर्तमान भारतीय संदर्भ में) क्रोनिज़्म, जांच एजेंसियों का दुरुपयोग या विशिष्ट रूप से धन का प्रयोग शामिल हैं जिन्हें 'विलफुल डिफॉल्ट' कहा जाता है।
फिर भी सिस्टम की जटिलता की वजह से बीमारी को अनियंत्रित रूप से जारी रखने की अनुमति देने का कोई कारण नहीं है। आईआईएम कोलकाता में मैनेजमेंट सेंटर फॉर ह्यूमन वैल्यूज के संस्थापक और दिवंगत शिक्षाविद एसके चक्रवर्ती ने 1997 में एक पेपर में 'घोर भ्रष्टाचार' और 'सूक्ष्म अनैतिकता' के बीच अंतर के बारे में बात की थी। अगर 'सूक्ष्म अनैतिकता' को पहचानना और लड़ना चुनौतीपूर्ण है, तो 'घोर भ्रष्टाचार' को आसानी से देखा जा सकता है और वह सजा पाने का हकदार है। यदि भ्रष्टाचार ग्रीक पौराणिक कथाओं वाला 'बहुत से सिरों वाला राक्षस' है तो पहले कौन सा सिर काटा जाए, इस बात पर चर्चा करने से अधिक महत्वपूर्ण है कि जो सिर स्पष्ट दिखाई दे रहा है उसे पहले काटा जाए। मजबूत कदम उठाने की अनिच्छा गहरी निराशा और असहायता की भावना को जन्म देती है। चक्रवर्ती ने कहा: 'क्या हम एक बीमार और निराश समाज की ओर बढ़ रहे हैं? भले ही भौतिक समृद्धि में वृद्धि हो पर क्या आने वाली पीढ़ियां इस तरह की विरासत के लिए आभारी होंगी?' बेशक, अधिकांश भारतीयों की भौतिक समृद्धि में वृद्धि नहीं हुई है। उदारीकरण के पक्ष में कुछ प्रमुख तर्क, कि भ्रष्ट लाइसेंस-परमिट-राज को ध्वस्त कर दिया जाएगा और बाजार के कब्जे में आने पर भ्रष्टाचार को अपने आप रोक दिया जाएगा- खोखले साबित हुए हैं। घोर भ्रष्टाचार अपने स्थान पर ही जमा हुआ है। राष्ट्र पर एक व्यापारिक-राजनीतिक आधारित भ्रष्टाचार के सूक्ष्म रूप का बोझ और अधिक है जो राज्य के संसाधनों को लूटता है तथा आम आदमी की कीमत पर नियमों को झुकाता है।
यह तर्क देना आसान है कि पंजाब के डीआईजी का मामला और भ्रष्टाचार के अन्य सनसनीखेज मामले प्रणाली का एक छोटा सा हिस्सा हैं जो दूसरे तरीके से काम करते हैं। उस आत्मसंतोष को खरीदना उस तबाही के प्रति आंखें बंद करना है जिसे दूसरों ने 'भारतीय लोकतंत्र का अभिशाप' कहा है। आईएएस और आईपीएस कैडर सहित देश की शीर्ष रैंक वाली नौकरशाही की भर्ती करने वाले संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने हाल ही में 100 साल पूरे किए हैं। इस आयोग को डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर के इस कथन पर विचार करना चाहिए कि, 'लोक सेवा आयोग का कार्य उन लोगों को चुनना है जो सार्वजनिक सेवा के लिए उपयुक्त हैं'।
क्या भर्ती प्रक्रिया गलत है या सिस्टम के पास नए अधिकारियों को अपने क्लब में शामिल करने का एक तरीका है? इनमें से कुछ कठिन प्रश्न हैं जिनका हल नहीं निकल सकता जब तक कि यूपीएससी योग्यता के अर्थ पर गहरे सवाल उठाने के बजाय नए लोगों के साथ जश्न के मूड में होता है। इस योग्यता का मूल्यांकन कैसे किया जाता है या तेजी से बदलते परिवेश में इसकी पुरानी दुनिया की परीक्षण प्रणालियों की अर्थहीनता दिखाई देती है। अधिकारियों की नियुक्ति की शर्तें अपने आप में आरामदायक और गैर-मांग वाली हैं। वे क्लब की जीवन भर की सदस्यता की मानसिकता को प्रोत्साहित करते हैं जिससे बेदखल करना मुश्किल है।
प्रणाली उन उम्मीदवारों को प्रोत्साहित करती है जो सरकार में उच्चतम स्तर पर नियुक्तियों के साथ आने वाले भत्ते, जीवन भर रोजगार के सुरक्षा जाल एवं विशेषाधिकारों की एक विस्तृत श्रृंखला को पसंद करते हैं तथा डॉ. अम्बेडकर ने जिस जिज्ञासा, रचनात्मकता और सार्वजनिक सेवा के विचार की बात कही थी उसको अनदेखा करते हैं। यह तर्क देना संभव है कि प्रशासनिक सेवा सभी गलत कारणों से उम्मीदवारों को आकर्षित करती है ताकि उनका पूल अपने आप में एक प्रकार का भ्रष्टाचार हो। प्रशासनिक सेवाओं के स्तर में गिरावट का एक वैध कारण राजनीतिक हस्तक्षेप है पर जब मुठभेड़ के नाम पर की गई हत्याओं, बुलडोजर न्याय या वास्तव में विपक्ष के नेता राहुल गांधी और योगेंद्र यादव जैसे स्वतंत्र पर्यवेक्षकों द्वारा कथित चुनाव आयोग के गंभीर उल्लंघनों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई जाती है तो समग्र रूप से नौकरशाही के चरित्र पर भी सवाल उठता है। इसके बजाय आईएएस ऑफिसर्स एसोसिएशन ने मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कु मार के बचाव में आना उचित समझा जबकि 2019 में चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को क्लीन चिट देने का विरोध करने वाले चुनाव आयुक्त अशोक लवासा के मामले में एसोसिएशन चुप रहा और उन्हें अपने परिवार के सदस्यों को आयकर नोटिस के साथ निशाना बनाते देखा। लवासा उच्च सत्यनिष्ठा वाले एक दुर्लभ अधिकारी थे।
स्वतंत्रता और अखंडता मिथक बन गए हैं। स्वाभिमान का न होना ही आदर्श हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने के लिए अक्सर सुना जाने वाला रोना एक समूह के लिए अर्थहीन साइडबार है जिनकी पहचान आत्म-संरक्षण के लिए झुकना और पहला अवसर मिलते ही शोषण करना है। अभी तक आया अनुभव इस पनपने वाली सड़ांध की पुष्टि करता है। यह विफल प्रणाली सुधार से परे हो सकती है। जिन नौकरशाहों ने अग्निवीर कार्यक्रम को तैयार करने में मदद की ताकि सैनिक पांच साल की नौकरी के बाद चले जाएं, उन्हें यह बताने की जरूरत है कि इस तरह के कार्यक्रम को आईएएस और आईपीएस पर लागू किया जाना चाहिए। एक निश्चित अवधि तक सेवा करने के बाद योग्यता या पद के बजाय केवल उसके सेवाकाल के आधार पर 'समय-आधारित पदोन्नति' ही आधार बना हुआ है। बाबुओं को आयोजित पदों या पद पर बिताए गए समय के बजाय उनके मुख्य प्रदर्शन संकेतक (केपीआई) के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने एक बार कहा था, 'जब आपके पास उन लोगों के लिए दिल नहीं है, जिनकी आप सेवा करते हैं, तो मुझे आपकी तथाकथित योग्यता से क्या लेना-देना है?'
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


