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खामोश की जातीं पर्यावरण बचाने वालों की आवाज़ें

वैश्विक स्तैर पर पर्यावरण कार्यकर्ताओं पर मंडरा रहे भयावह संकट को उजागर करने वाली हाल की 'ग्लोबल विटनेस' रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2012 से अब तक पर्यावरण संरक्षण के लिए संघर्ष करते हुए 2,106 कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है

खामोश की जातीं पर्यावरण बचाने वालों की आवाज़ें
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  • कुमार सिद्धार्थ

आज जब जलवायु संकट के प्रभाव दुनिया के हर कोने में महसूस किए जा रहे हैं - बाढ़, सूखा, जंगल की आग, समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी- ऐसे समय में पर्यावरण रक्षकों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। रिपोर्ट कुछ अहम सुझाव भी देती है - जैसे पर्यावरण रक्षकों की सुरक्षा के लिए विशेष कानून बनाना, उनके खिलाफ दमनकारी मुकदमों को रोका जाना और जिम्मेदार कंपनियों की जवाबदेही तय करना, लेकिन यह तभी संभव है जब नागरिक समाज, मीडिया और आम जनमानस इन मुद्दों को अपने विमर्श के केंद्र में लाएं।

वैश्विक स्तैर पर पर्यावरण कार्यकर्ताओं पर मंडरा रहे भयावह संकट को उजागर करने वाली हाल की 'ग्लोबल विटनेस' रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2012 से अब तक पर्यावरण संरक्षण के लिए संघर्ष करते हुए 2,106 कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। इनमें से एक-तिहाई से अधिक हत्याएं लैटिन अमेरिका में हुईं। अकेले वर्ष 2023 में कम-से-कम 196 लोगों की जानें गईं। इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि पर्यावरण की रक्षा करने वाले लोग आज भयंकर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक खतरों का सामना कर रहे हैं। खनन, औद्योगिक और निर्माण परियोजनाओं के खिलाफ खड़े होने के कारण ये कार्यकर्ता सत्ता और पूंजी के निशाने पर आ जाते हैं।

'ग्लोबल विटनेस,' जो बीते ढाई दशक से तेल, गैस, खनन और वन क्षेत्रों में मानवाधिकारों और पर्यावरणीय शोषण की जांच करता रहा है, ने इस रिपोर्ट को 200 से अधिक देशों के पर्यावरण कार्यकर्ताओं से बातचीत के आधार पर तैयार किया है। रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से 90 फीसदी से अधिक लोगों को शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताड़ना का सामना करना पड़ा है और 25 फीसदी से अधिक पर हिंसक हमले हुए हैं। 70 फीसदी हत्याएं खनन, बड़े बांधों और जंगलों की कटाई के खिलाफ आंदोलन करने वालों की हुई हैं।

रिपोर्ट बताती है कि विकास की आड़ में स्थानीय समुदाय, विशेषकर आदिवासी, किसान, महिलाएं और मछुआरे, खास निशाने पर हैं। जब ये समुदाय अपनी ज़मीन, जंगल और नदियों के संरक्षण की आवाज उठाते हैं, तो या तो उन्हें झूठे मामलों में फंसाया जाता है या फिर वे गोलियों का शिकार होते हैं। कोलंबिया, फिलीपींस, ब्राज़ील, कांगो और होंडुरास जैसे देश इस हिंसा के गवाह हैं। यहां हर साल सैकड़ों लोग सिर्फ इसलिए मारे जाते हैं क्योंकि वे अपने जंगल, नदियों, खेतों और अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं।

कोलंबिया लगातार दूसरे साल सबसे खतरनाक देश माना गया था जहाँ 2023 में 79 पर्यावरण रक्षकों की हत्याएं हुईं। यह लगातार चौथा वर्ष है, जब कोलंबिया में सबसे अधिक हत्याएं दर्ज हुई हैं। वर्ष 2012 से अब तक ऐसी 461 हत्याएं हुई हैं, जो किसी भी देश के मुकाबले अधिक हैं। इसके बाद ब्राजील में 34, मैक्सिको और होंडुरास में 18-18 और फिलीपींस में 11 पर्यावरण रक्षकों की हत्याएं हुईं। मध्य अमेरिका पर्यावरण कार्यकर्ताओं के लिए सबसे खतरनाक क्षेत्र बन चुका है, जहां प्रति व्यक्ति हत्याओं की दर सबसे अधिक रही है।

इनमें से अधिकांश हमले वनों की रक्षा करने वालों, खनन विरोधी आंदोलनों में शामिल लोगों और आदिवासी समुदायों के प्रतिनिधियों पर हुए हैं। अक्सर ये हमले संगठित अपराधियों, सरकार समर्थित ठेकेदारों या निजी कंपनियों के इशारों पर होते हैं। इंडोनेशिया और थाईलैंड में कार्यकर्ताओं को 'रेड टैगिंग' (देशद्रोही) करार देकर मारा या गायब किया जा रहा है।

इन मामलों में भारत की स्थिति भी चिंताजनक है। रिपोर्ट के अनुसार 2012 से 2022 के बीच भारत में 71 पर्यावरण रक्षकों की हत्या दर्ज की गई। इनमें से कई पत्रकार थे, जो ज़मीन अधिग्रहण और अवैध खनन जैसे संवेदनशील विषयों पर रिपोर्टिंग कर रहे थे। वर्ष 2014 के बाद मारे गए 28 पत्रकारों में से 13 पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहे थे। भारत में रेत-माफिया और अवैध खनन पर लिखने वाले पत्रकारों को खासकर निशाना बनाया गया।

रिपोर्ट इंगित करती है कि भारत में नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों और पत्रकारों पर बढ़ती निगरानी, गिरफ्तारी और बदनाम करने की घटनाओं में तेज़ी आई है। साथ ही, उनके खिलाफ 'गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम' (यूएपीए) जैसे कठोर कानूनों का दुरुपयोग कर उनकी आवाज़ को दबाया जा रहा है। सरकारों द्वारा कार्यकर्ताओं को वर्षों जेल में रखना, उनकी जमानत रोकना और उन्हें 'राष्ट्रविरोधी' करार देना जैसी घटनाएं कई राज्यों में सामने आई हैं।

'ग्लोबल विटनेस' के अनुसार, भारत में सामाजिक कार्यकर्ताओं और गैर-सरकारी संगठनों पर मनमाने आपराधिक आरोप लगाए जा रहे हैं, उन पर निगरानी रखी जा रही है और उनके बैंक खाते फ्रीज़ कर दिए गए हैं, जिससे नागरिक समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। रिपोर्ट इस बात पर भी ज़ोर देती है कि कई देशों में पर्यावरण कार्यकर्ताओं को ऐसे मुकदमों का सामना करना पड़ता है जिनका उद्देश्य ही जनहित में उठी आवाज़ों को रोकना है। ये मुकदमे इतने लंबे और खर्चीले होते हैं कि आम नागरिक उनमें फँसकर टूट जाते हैं या चुप हो जाते हैं।

आदिवासी समुदाय इससे सर्वाधिक प्रभावित हैं - कुल हत्याओं के 34 फीसदी शिकार आदिवासी रहे हैं। उनके पास कानूनी दस्तावेज़ों का अभाव, मुख्यधारा से दूरी और राजनीतिक समर्थन की कमी उन्हें कमजोर बनाती है, जबकि यही समुदाय सदियों से प्रकृति के साथ सहजीवन की मिसाल पेश करते आए हैं।

'ग्लोबल विटनेस' रिपोर्ट की भूमिका में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् डॉ. वंदना शिवा लिखती हैं - 'हम केवल जलवायु आपातकाल के दौर में नहीं हैं, बल्कि एक व्यापक प्रजातीय विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे समय में ये पर्यावरण कार्यकर्ता उन चुनिंदा लोगों में हैं, जो इस लड़ाई में डटे हुए हैं। वे न केवल नैतिक दृष्टिकोण से सही हैं, बल्कि इसलिए भी सुरक्षा पाने के अधिकारी हैं क्योंकि हमारी प्रजाति और हमारे हरित ग्रह का भविष्य उन्हीं के संघर्षों पर टिका है।'

आज जब जलवायु संकट के प्रभाव दुनिया के हर कोने में महसूस किए जा रहे हैं - बाढ़, सूखा, जंगल की आग, समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी- ऐसे समय में पर्यावरण रक्षकों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। रिपोर्ट कुछ अहम सुझाव भी देती है - जैसे पर्यावरण रक्षकों की सुरक्षा के लिए विशेष कानून बनाना, उनके खिलाफ दमनकारी मुकदमों को रोका जाना और जिम्मेदार कंपनियों की जवाबदेही तय करना, लेकिन यह तभी संभव है जब नागरिक समाज, मीडिया और आम जनमानस इन मुद्दों को अपने विमर्श के केंद्र में लाएं।

हाल ही में 'इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस' (आईसीजे) ने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा है कि जलवायु संकट से निपटना सभी देशों की कानूनी ज़िम्मेदारी है। यह फैसला बताता है कि अब जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय नहीं, बल्कि मानवाधिकार और अंतरराष्ट्रीय कानून का भी गंभीर मुद्दा बन चुका है। उम्मीेद की जा रही है कि इससे उन लोगों को कुछ राहत मिलेगी जो पर्यावरण की रक्षा के लिए खतरों का सामना कर रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं सामाजिक कार्यों से संबद्ध हैं।)


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