Top
Begin typing your search above and press return to search.

बीत चुका है, हिमालय को सुनने का समय

हिमालय एक नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र है जहां वनों की कटाई, अनियोजित शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण भूस्खलन, बाढ़ और ग्लेशियरों के पिघलने जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं

बीत चुका है, हिमालय को सुनने का समय
X
  • राजकुमार सिन्हा

'भारतीय मौसम विज्ञान विभाग' के अनुसार, इस क्षेत्र में संभवत: ग्लेशियर झील के फटने से भारी विनाश हुआ है और इसका मूल कारण 'ग्लोबल वार्मिंग' और जलवायु-परिवर्तन है। इसमें बहुत ज्यादा गर्मी, अत्यधिक ठंड, बेकाबू बारिश जैसे प्रत्यक्ष प्रभाव शामिल हैं। बढ़ते तापमान से ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं और झीलें अस्थिर हो रही हैं।

हिमालय एक नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र है जहां वनों की कटाई, अनियोजित शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण भूस्खलन, बाढ़ और ग्लेशियरों के पिघलने जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं। सन् 2012 में केंद्र सरकार ने भागीरथी नदी के गौमुख से उत्तरकाशी जलग्रहण क्षेत्र को एक पारिस्थितिक-संवेदनशील क्षेत्र के रूप में अधिसूचित किया था। इसका उद्देश्य प्राचीन क्षेत्रों का संरक्षण और बुनियादी ढांचागत गतिविधियों का नियमन करना था, परन्तु केंद्र और राज्य सरकारें इन नियमों को लागू करने में ढिलाई बरतती रहीं।

'भारतीय मौसम विभाग' की रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तराखंड में औसत बर्फबारी में पिछले 50 वर्षों में 20 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार 1962 से अब तक हिमालयी ग्लेशियरों का 30 प्रतिशत हिस्सा पिघल चुका है जिसकी वजह से बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। सन् 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़, 2021 में जोशीमठ में ज़मीन और इमारतों के धंसकने, सन् 2023 में तीस्ता घाटी में हिमनद झील के फटने से आई बाढ़ और हिमाचल प्रदेश में बार-बार आने वाले मानसूनी भूस्खलन और बाढ़ को वैज्ञानिक पारिस्थितिक और भूगर्भीय रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में असंतुलित बुनियादी ढांचे के विकास का परिणाम बताते हैं।

'आपदा प्रबंधन विभाग' और विश्वबैंक ने वर्ष 2018 में एक अध्ययन करवाया था। इस अध्ययन के अनुसार राज्य में 6300 से अधिक स्थान भूस्खलन जोन के रूप में चिन्हित किए गए थे। एक और रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्य में चल रही हजारों करोड़ रुपये की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काटकर या फिर जंगलों को उजाड़कर बन रही हैं और इसी कारण भूस्खलन जोन की संख्या बढ़ रही है। हिमालय न केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती है।

पेड़ भूमि को बांधकर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ को ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है। पहाड़ पर तोड़-फोड़ या धमाके होना या फिर उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ का ही दुष्परिणाम है कि हिमालय में निरंतर भूकंप आते रहते हैं। जल-विद्युत परियोजनाओं के लिए सुरंग या अविरल धारा को रोकने से पहाड़ अपने नैसर्गिक स्वरूप में नहीं रह पाता और उसके दूरगामी परिणाम विभिन्न प्राकृतिक आपदा के रूप में सामने आते हैं।

सन् 2020 में 'चार धाम राजमार्ग' के निर्माण की जांच हेतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने सिफारिश की थी कि संवेदनशील ढलानों से छेड़छाड़ न की जाए, परन्तु उसके विपरीत कार्य हो रहा है। हिमालय में बढ़ते पर्यटन के कारण होटल, मकान, सङ़क, राजमार्ग आदि के निर्माण का भारी दुष्प्रभाव देखा जा रहा है। जून 2022 में 'गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान' द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमा लय में बढ़ते पर्यटन के चलते हिल स्टेशनों पर दबाव बढ़ा है।

'नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल' के आदेश पर 'पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय' द्वारा किये गए एक अध्ययन से पता चला है कि हिमाचल प्रदेश के मनाली में 1989 में 4.7 फीसदी क्षेत्र में भवन, होटल, सड़क, दुकान आदि का निर्माण हुआ था जो 2012 में 15.7 फीसदी हो गया और आज यह आंकङ़ा 25 फीसदी से ज्यादा हो गया है। वर्ष 1980 से 2023 के बीच पर्यटकों की संख्या में 5600 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। पुलिस रिकार्ड के मुताबिक विगत दो वर्षों से शिमला में आने वाले वाहनों की संख्या 25 प्रतिशत बढ़ गई है। शहर में सिर्फ 6000 वाहनों के पार्किंग की व्यवस्था है, लेकिन सीजन टाइम में प्रतिदिन 20,000 वाहन आते हैं।

इन मानव-जनित चुनौतियों के चलते भूस्खलन, अचानक बाढ़ और बादल फटने जैसी घटनाएं विनाशकारी बनती जा रही हैं। हिमालयी क्षेत्र में, विशेषकर उच्च हिमालय की छोटी नदियों की घाटियों में, कई ऐसे स्थान हैं जहां विनाशकारी घटनाओं की संभावना बहुत अधिक होती है। ये घटनाएं अचानक घटित होती हैं। ऐसे स्थानों पर प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली काम नहीं आती। पहले इंसान ऐसे स्थानों पर बसते नहीं थे, लेकिन हाल के वर्षों में हमने इन स्थानों की संवेदनशीलता पर ध्यान नहीं दिया है। ऐसे में सबसे अच्छा समाधान है, वहां रहने वाले लोगों को शिक्षित करना या बड़े पैमाने पर बस्तियां बसाने से रोकने के लिए कानून बनाना।

'भारतीय मौसम विज्ञान विभाग' के अनुसार, इस क्षेत्र में संभवत: ग्लेशियर झील के फटने से भारी विनाश हुआ है और इसका मूल कारण 'ग्लोबल वार्मिंग' और जलवायु-परिवर्तन है। इसमें बहुत ज्यादा गर्मी, अत्यधिक ठंड, बेकाबू बारिश जैसे प्रत्यक्ष प्रभाव शामिल हैं। बढ़ते तापमान से ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं और झीलें अस्थिर हो रही हैं। 'भारतीय विज्ञान संस्थान' (आईआईएससी) की एक टीम को संदेह है कि खीरगंगा चैनल को पानी देने वाले एक 'लटकते ग्लेशियरज् ने 5 अगस्त को धराली में आई विनाशकारी बाढ़ में भूमिका निभाई होगी।

कश्मीर, लद्दाख़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश की 28043 ग्लेशियर झीलों में से 188 झीलें कभी भी तबाही का बङ़ा कारण बन सकती हैं। इससे लगभग तीन करोड़ की आबादी पर बङ़ा संकट मंडरा रहा है। इन ग्लेशियरों के पिघलने से बनने वाली झीलें केवल एक पारिस्थितिक संकट नहीं हैं। इन झीलों से निकलने वाले पानी के कारण नदियों का बहाव प्रभावित होता है। इसके साथ ही, जिन झीलों का पानी पूरी तरह भर जाता है या जिनका किनारा टूटता है, वे नीचे बसे क्षेत्रों के लिए भारी तबाही का कारण बनती हैं।

हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए सतत विकास और संरक्षण के प्रयासों की आवश्यकता है। सरकार, गैर-सरकारी संगठनों और स्थानीय समुदायों को मिलकर काम करना होगा, ताकि हिमालय का संरक्षण किया जा सके और स्थानीय लोगों की आजीविका को भी सुनिश्चित किया जा सके। 'पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट, देहरादून' के पूर्व निदेशक रवि चोपड़ा बताते हैं कि तेज़ आर्थिक विकास की कल्पनाओं से मोहित भारतीय नागरिकों के लिए जलवायु परिवर्तन की चेतावनी के प्रति सचेत होने और सुरक्षित, टिकाऊ और समतापूर्ण आर्थिक विकास की मांग करने का समय बहुत पहले बीत चुका है। प्रकृति की सीमाओं को पहचानना और उनका सम्मान करना ही हमारे अस्तित्व और आर्थिक विकास का सबसे सुरक्षित और तार्किक मार्ग है।

(लेखक 'बरगी बांध विस्थापित संघ' के वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं।)


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it