आज नदी बिल्कुल उदास थी
हमें अपने खुद के विकास से ज्यादा समूचे देश के विकास को आगे बढ़ाने के लिए अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए

- नीरज कुमार मिश्र
हमें अपने खुद के विकास से ज्यादा समूचे देश के विकास को आगे बढ़ाने के लिए अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए, लेकिन वआज स्वार्थीपन इस कदर हावी है कि हमें अपनी जेब भरने के सिवा कुछ सूझता ही नहीं है,इसीलिए हम अंधे होकर प्राकृतिक दोहन लगातार कराते जा रहे हैं। इसके दुष्परिणामों को हम कई प्राकृतिक त्रासदियों के रूप में देख चुके हैं। कमाई के और भी बहुत से साधन हैं,जिन्हें अपनाकर मनुष्य सहभागिता के साथ,अपना और देश के विकास में कारगर एवं महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर ही सकता है ; साथ ही आदमीयता को भी पा सकता है ''यदि मनुष्य हो तो स्वदेश के अमन बनो तुम।
जिन्होंने भी रेल मार्ग द्वारा दिल्ली से बॉदा की तरफ यात्रा की होगी, उन्हें इसका अहसास हो गया होगा कि केन नदी में बने पुल से ही बॉदा के आने की पूर्व सूचना मिल जाती है। हिन्दी के प्रगतिशील लेखक केदारनाथ अग्रवाल को केन नदी से बेहद आत्मीय लगाव था। आज केन का अस्तित्व संकट में है। यहॉ बालू माफिया सरकारी तंत्र के साथ मिल कर अपने फायदे के लिये, केन की सौंदर्यता के साथ,उसके अस्तित्व को नष्ट करने में तुले हुए हैं। केन केदार के तन-मन में इस कदर रची बसी हुई थी कि वह कभी रेत में बैठकर उसके तेज धार को घंटों निहारते थे,तो कभी उसकी उदासी देखकर घर लौट जाते। केदार का केन चित्रण यथास्थिति से संघर्ष का चित्रण है।
एक दिन जब मैं केन किनारे बैठा केन को निहार रहा था तो ये महसूस किया कि ''आज नदी बिल्कुल उदास थी'' तब यह एहसास हुआ कि 'बसंती हवा' का रंग पहले से कुछ बदला हुआ है। आज वही केन अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये अकेले जददोजहद कर रही है। अब यहॉ न तो महुआ की थपाथप सुनाई देती है,न आम को कोई झकोरता,और न ही कान में 'कू' सुनाई देती। चारों तरफ बस खामोश वीरानी है। यदि कुछ सुनाई देता भी है तो दबी एवं घुटती केन की सिसकती आवाज़। जिसे भद्रजन अब तक नहीं सुन पाये। मुझे बॉदावासी होने पर गर्व है,लेकिन साथ शर्म भी आती है; क्योंकि ''यह है मेरा गॉव, यहॉ की कुंठित मति है। अनुशासन से हीन,यहॉ की जीवन गति है। फिर भी कुंठित मति के मारे,भद्रजन हारे।'' ऐसे हारकर बैठने से केन को नहीं बचाया जा सकता।
जिस नदी का पानी पहले अपनी कर्मठता के बल पर चट्टानी तट तोडता था ''तेज धार का कर्मठ पानी। चट्टानों के उपर चढकर। मार रहा है घूंसे कसकर। तोड़ रहा है तट चटटानी''। वही कर्मठ पानी समाज के धन लोलुप एवं स्वार्थी चरित्र को देखकर घूंसे मारना भूल गया है। केदार बाबू केन किनारे पल्थी मारे यदि आज केन की हालत देख रहे होंगे तो हम सब को कोस रहे होंगे।
सर्वविदित है कि सरकारी तंत्र इस कमाई में बराबर की साझेदार है। तभी वह भ्रष्टाचार के चश्में को लगाकर ऑखे खराब होने का बहाना करता है। केदारनाथ अग्रवाल सरकारी तंत्र और माफियाओं के गठजोड को आज से साठ सत्तर साल पहले ही पहचान गये थे। तभी वह कहते है कि ''चोरी करो चढ़ाओ पैसा,पूजो तुम भैरव का भैसा। भैसा है थाने का ऐसा,कोई देखा सुना ऐसा। डाका मारो,कतल कराओ,काटो खेत,अनाज चुराओ।थाने जाओ झुक जाओ,भैसे को छुकर बच जाओ।'' हमारी और अपनी विवशता पर ''केन हमारी तड़प रही है'' और साथ तड़प रही है केदार बाबू की आत्मा।
आर्थिक लाभ के एवज में भूमंडलीकरण के इस दौर में सामाजिकता और मानवीयता ने अपने मूल्य खो दिए हैं ''मैं उसे खोजता हूँ। जो आदमी है और अब भी आदमी है। तबाह हो कर भी आदमी है। चरित्र पर खडा देवदार की तरह बड़ा।'' यह वही बॉदा है,जहॉ श्रम के सौंदर्य को केदार बाबू ने सही ढंग से पहचाना था ''छोटे हॉथ सवेरा होते,लाल कमल से खिल जाते हैं। करनी करने को उत्सुक हो,धूप हवा में हिल उठते हैं।'' लेकिन आज का मंत्र यह है कि समय और मेहनत कम और कमाई ज्यादा;इसके लिये भले ही हम समाज का कितना ही नुकसान करें। वैसे नैतिकता की रेखा कहीं अनन्त में नहीं होती,बल्कि वह इसी सामाजिक ढॉचे में छिपी होती है। उसको पहचानने की मति उत्तर आधुनिक युग में कुंठित हो गई है। कानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था के साथ इन माफियाओं की सांठ-गांठ से केन के अस्तित्व को बचाना मुंगेरी लाल के हसीन सपने जैसा है;क्योंकि आज ''सच के पॉव उखडते,झूठ के जब झंडे गड़ते। सच जीते तो कैसे, न्याय मिले तो कैसे ? ''
हमें अपने खुद के विकास से ज्यादा समूचे देश के विकास को आगे बढ़ाने के लिए अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए, लेकिन वआज स्वार्थीपन इस कदर हावी है कि हमें अपनी जेब भरने के सिवा कुछ सूझता ही नहीं है,इसीलिए हम अंधे होकर प्राकृतिक दोहन लगातार कराते जा रहे हैं। इसके दुष्परिणामों को हम कई प्राकृतिक त्रासदियों के रूप में देख चुके हैं। कमाई के और भी बहुत से साधन हैं,जिन्हें अपनाकर मनुष्य सहभागिता के साथ,अपना और देश के विकास में कारगर एवं महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर ही सकता है ; साथ ही आदमीयता को भी पा सकता है ''यदि मनुष्य हो तो स्वदेश के अमन बनो तुम। कोटि जनों के साथ जियो तुम। खेत जोत कर अन्न उगाओ । रोटी खाओ और खिलाओ।'' यदि हम सभी मेहनत करके कमाने वाला रास्ता अपना लें तो केदार बाबू की धरोहर केन नदी को बचाया जा सकता है। कहीं ऐसा न हो कि हम देखते रह जाएं और केन नदी का अस्तित्व ही खत्म हो जाए। तब हमें अपनी आने वाली पीढ़ियों को बांदा की शान केन नदी के किस्से ही सुनाने पड़ेंगे। जब आने वाली पीढ़ियां हमसे सवाल करेंगी कि हमने अपनी इस प्यारी नदी को बचाने के लिए क्यों नहीं कुछ किया ? तब हमें उनके सवालों से बचने के लिए केन नदी का वह किनारा भी नहीं मिलेगा,जहां हम अपनी परेशानियों को भुलाने के लिए आकर बैठते थे। यदि ऐसे ही केन का दोहान होता रहा तो शायद ही अब बांदा में 'बसंती हवा' के उधमी रूप और केन के कर्मठ पानी को फिर से देख पायेंगे।


