विदेश नीति का श्राद्ध-पक्ष
विदेश नीति का मतलब दूसरे देशों से कुछ बुनियादी उसूलों के आधार पर दोस्ती रखना और अपने देश के हितों की रखवाली और आगे बढ़ाने का काम था

- अरविन्द मोहन
विदेश नीति का मतलब दूसरे देशों से कुछ बुनियादी उसूलों के आधार पर दोस्ती रखना और अपने देश के हितों की रखवाली और आगे बढ़ाने का काम था। जब से विदेश नीति के केंद्र में देशहित की जगह एक व्यक्ति का हित आ गया है, विदेश नीति कहीं है भी इसका पता नहीं है। दुनिया में घटनाएं अपने हिसाब से चलती है और कभी हमारे अनुकूल होंगी तो कभी प्रतिकूल। लेकिन हमारी विदेश नीति को देशहित के हिसाब से सतत काम करना होता है।
एक दिन अमेरिका कुछ कहता है और हम वाह वाह करते दिखते हैं-हम मायने मीडिया भर नहीं सरकार भी। अगले दिन राष्ट्रपति ट्रम्प हमारे प्रधानमंत्री को ग्रेट बताते हुए भी उनकी जमीन खोदने में कोई कसर नहीं छोड़ते तो बाकी सब तो अमेरिका और ट्रम्प विरोधी तलवार तान लेते हैं लेकिन प्रधानमंत्री मुंह नहीं खोलते। पहलगाम की नृशंस हत्याओं के बाद जब भारत बदले की कार्रवाई में आपरेशन सिंदूर शुरू करता है और ठीकठाक सफलता मिलती लगती है तभी अमेरिका की तरफ स युद्धविराम घोषित हों जाता है। हमारी सरकार अभी भी आपरेशन सिंदूर जारी रहने का दावा करती है और मोदी जी को छोड़कर बाकी सब ट्रम्प को झूठा बोल चुके हैं। ट्रम्प भी खास हैं क्योंकि वे इस बात को तीस से ज्यादा बार दोहरा चुके हैं और भारत प्रिय न बना तो उस पाकिस्तान को ही गोद में बैठा लिया जो आपरेशन सिंदूर के समय खुले रूप में आतंकी और फौजी मेल का प्रदर्शन कर चुका है। वे उस आसिम मुनिर को भोज खिलाने से लेकर बार बार मान सम्मान दे रहे हैं जिसने पाकिस्तानी लोकतंत्र और वहां की अवाम की दुर्गति कर रखी है। ट्रम्प रूस से मोहब्बत और दुश्मनी दिखाते हैं तो चीन को धमकाकर पाँव पीछे खींच लेते हैं।
अब ट्रम्प महाबली अमेरिका की और उसकी विदेश नीति की क्या दुर्गति कर चुके हैं यह दुनिया देख और भुगत रही है। हम भी उनके सनक भरे फैसलों को भोग रहे हैं और शुरू से इनकी आशंका होने के बावजूद न तो तैयार थे और न अब कोई उपाय करते लगते हैं। एक दिन स्वदेशी का राग अलापा जाता है तो अगले दिन हम जापान और चीन के आगे समर्पण की मुद्रा में आ जाते है। और जब तक हमारे व्यवसायी अमेरिकी आयात पर बंदिश से निपटने की तैयारी करें तब तक ट्रम्प वापस मोदी जी की महानता और दोस्ती का राग अलापते है। और एक बार हम, यानि सिर्फ मीडिया ही नहीं खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनके ट्वीट का जबाब देने में देरी नहीं करते। और सचमुच में उनके लिखे की स्याही सूखी भी न थी कि अमेरिका से और ज्यादा सीमा शुल्क लगाकर रूसी टेल आयात का खेल खत्म करने की धमकी आ जाती है। हमें कुछ सूझता ही नहीं और हमारी कमर टूटती लगती है। साफ लगता है कि यह विदेश नीति का श्राद्ध पक्ष जैसा चल रहा है।
और याद करने में हर्ज नहीं है कि बहुत स्पष्ट आदर्शों और मूल्यों पर आधारित भारत की विदेश नीति को कभी कमजोर दुनिया के देश तो आदर्श मानते ही थे मजबूत देश भी आदर देते थे और बुनियादी नीतियों का सम्मान करते थे। इस नीति को भारत ने अस्सी के दशक तक चलाया और भारत और उसके प्रधानमंत्री की गिनती दुनिया को प्रभावित करने वालों में होती थी। आज ठीक उलटी स्थिति आ गई है। सरकार बीच बीच में स्वदेशी का नारा लगाती है और विदेश नीति में सीधे चीन के आगे समर्पण कर चुकी है। जब स्वदेशी हमारे राष्ट्रीय आंदोलन केन्द्रीय मुद्दा था और खादी समेत अनेक आंदोलनों से इसे आगे बढ़ाया गया। तब भारत विश्व गुरु या दुनिया की न जाने कौन से नंबर की आर्थिक शक्ति बनने का दावा नहीं करता था। और न तब दुनिया के हर ऐरे गैरे नेता से दिखावटी सम्मान पाकर देश की राजनीति में उसका इस्तेमाल एक व्यक्ति का प्रचार और वोट बढ़ाने के लिए किया जाता था। अमेरिका या ब्रिटेन के चुनाव में दखल देकर किसी को जितवा-हरवा देने का भ्रम भी हमारे नेताओं को नहीं था।
विदेश नीति का मतलब दूसरे देशों से कुछ बुनियादी उसूलों के आधार पर दोस्ती रखना और अपने देश के हितों की रखवाली और आगे बढ़ाने का काम था। जब से विदेश नीति के केंद्र में देशहित की जगह एक व्यक्ति का हित आ गया है, विदेश नीति कहीं है भी इसका पता नहीं है। दुनिया में घटनाएं अपने हिसाब से चलती है और कभी हमारे अनुकूल होंगी तो कभी प्रतिकूल। लेकिन हमारी विदेश नीति को देशहित के हिसाब से सतत काम करना होता है।
ट्रम्प ने सोच समझकर ही सीमा शुल्क का सवाल उठाया जिसे वे अमेरिकी अर्थव्यवस्था का प्रभुत्व वापिस करने का अपना मंत्र बताते रहे हैं। चीन समेत सारी दुनिया के आयात पर उन्होंने कर लगाया और जाने क्या बात होती रही कि रूस से तेल खरीदकर निर्यात करने के हमारे फैसले को उन्होंने मुद्दा बनाया और हमारे सामानों पर सीधे पचास फीसदी का जुरमाना ठोंक दिया। वियतनाम, कंबोडिया जैसे छोटे देशों ने अमेरिकी माल पर कर घटाकर अपने निर्यात को बचा लिया-बढ़ाने का अवसर पा लिया। दूसरी ओर चीन और यूरोपीय देशों ने जबाबी कर-वृद्धि का मूड दिखाकर अमेरिका को झुका दिया। चीन ने सबसे बड़ा कमाल किया और ट्रम्प का अहंकार भी नीचे आया। अब वह मजबूत अमेरिका विरोधी जमावड़ा बनाने में लगा है और हम उससे बार बार पिटकर भी उसकी शरण में पहुँच गए हैं। हम सीधे दंडवत की मुद्रा में उस चीन और रूस के आगे लेट से गए जिन्होंने आपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान का साथ दिया। चीनी रक्षा उपकरणों का इस्तेमाल भी भारत के खिलाफ हुआ था।।
मामला सिर्फ राष्ट्रहित की जगह एक व्यक्ति के अहंकार और प्रचार-प्रसार की भूख का नहीं है। मोदी जी इन यात्राओं में अपने विदेश मंत्री एस जयशंकर को लेकर भी नहीं गए। विदेश सचिव रहे जयशंकर खानदानी कूटनीति वाले हैं और जब विदेश मंत्री बनाए गए थे तब काफी गुणगान होता था। आज चीन, रूस और जापान के शासन प्रमुख तो अपने विदेश मंत्रियों के साथ बैठे और सामने मोदी जी रक्षा सलाहकार अजीत दोभाल और विदेश सचिव के साथ बैठे थे। सच कहें तो यह जयशंकर और सरकार तथा इसकी विदेश और रक्षा नीति के लिए सबसे महत्वपूर्ण बन गए रक्षा सलाहकार के टकराव का भी है। दोनों के साथ दोनों के पुत्र भी अलग अलग मोर्चा संभाले हैं जिनकी चर्चा अच्छे संदर्भ में काम ही होती है। अस्सी साल की उम्र और मोदी के पूरे कार्यकाल में रक्षा सलाहकार पद पर जमे दोभाल खुद को क्या समझते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन सारी असफलताओं के बावजूद आज भी संभवत दूसरे सबसे ताकतवर व्यक्ति बने हुए हैं यह महत्वपूर्ण है। डोकलाम, चुसार से लेकर पुलवामा और पहलगाम तक हमारी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों की कितनी असफलताऐं हैं उन्हें गिनने न देकर रक्षा सलाहकार की कुर्सी पर बने रहना और विदेश मंत्री तक को बेमानी करना काम बड़ा कौशल नहीं है। दुनिया में इतने लंबे समय तक कोई रक्षा सलाहकार नहीं टिकता जबकि सीबीआईं, एनआईए, प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग से लेकर दिल्ली पुलिस तक बेमतलब मुकदमों से पटे हैं और एक दो फीसदी मामले भी नहीं ठहराते।
पुलवामा के बाद से भी दोभाल साहब और जयशंकर किस काम में जुटे रहे हैं इसे लेकर काफी कुछ कहा जाता है। पर वे देश की सुरक्षा और हितों के काम पर मुस्तैद रहते तो ये नतीजे क्यों आते। जाहिर तौर पर उनकी प्राथमिकताऐं और ताकत अलग किस्म के हैं। और यह बिजनेस हाउसेज की लाबिइंग का काम हो सकता है। इस बारे में बहुत जानकारियां न हैं न बाहर आ सकती हैं। पर इतना सबको मालूम है कि रूस से सस्ता तेल आयात करने और उसे ऊंची कीमत पर निर्यात करने के जिस खेल को लेकर ट्रम्प चिढ़े हुए हैं उसका लाभ भारत सरकार या भारत के लोगों को मिलने की जगह एक दो व्यावसायिक घरानों को ही मिला। सस्ता तेल आने से उपभोक्ताओं को कोई राहत नहीं मिली। गौतम अदानी का अमेरिकी मुकादमा भी मुद्दा रहा है।
पर जब नंबर एक नेता को फ़ोटो खिंचाने, वोट के लिए प्रचार करने से फुरसत न हों और विदेश मंत्री बनाम रक्षा सलाहकार की लड़ाई एक दूसरे को आउट करने वाली हों तथा व्यावसायिक घरानों लाबीइंग प्रभावी होती जा रही हों तब विदेश नीति, देश के हित की कौन चर्चा कर सकता है। पर यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है इतना कहने में कोई हर्ज नहीं है।


