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सिर्फ नारा नहीं था नरेगा के तहत काम का अधिकार

विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) 2025 (वीबी-जी राम जी विधेयक)' का पारित होना भारत के सबसे परिणामदायी सामाजिक कानूनों में से एक के निर्णायक विराम का प्रतीक है

सिर्फ नारा नहीं था नरेगा के तहत काम का अधिकार
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डॉ.अजीत रानाडे

संसदीय स्थायी समिति के संदर्भ के बिना और राज्यों, श्रमिक संगठनों या नागरिक समाज के साथ गंभीर परामर्श किए बिना वीबी-जी राम जी विधेयक को जिस तरह से पेश तथा पारित किया गया है, वह भी उतना ही आपत्तिजनक है। एक ऐसा कानून, जो नागरिक और राज्य के बीच संतुलन को मौलिक रूप से बदल देता है,उसके लिए यह प्रक्रियागत जल्दबाजी लोकतांत्रिक मानदंडों में फिट नहीं बैठती है।

विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) 2025 (वीबी-जी राम जी विधेयक)' का पारित होना भारत के सबसे परिणामदायी सामाजिक कानूनों में से एक के निर्णायक विराम का प्रतीक है। इसने 2005 के ऐतिहासिक राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) का स्थान लिया जिसे बाद में महात्मा गांधी के नाम पर रखा गया था। सरकार इस बात पर जोर देती है कि नया कानून एक ऐसा सुधार है जो गारंटीकृत कार्य की सीमा को 100 से बढ़ाकर 125 दिन कर देता है लेकिन यह दावा सरसरी तौर से भी खरा नहीं उतरता है। नया विधेयक वास्तव में कहीं अधिक परेशान करने वाला है- यह काम करने के न्यायोचित अधिकार को समाप्त करता है, नियंत्रण को पुर्नकेन्द्रीकृत करता है, राजकोषीय बोझ को राज्यों को स्थानांतरित करता है और ग्रामीण भारत में श्रमिकों की सौदेबाजी की शक्ति को कमजोर करता है।

नरेगा कभी भी सिर्फ एक कल्याणकारी योजना नहीं थी। यह संविधान के अनुच्छेद 41- काम करने के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए राज्य के दायित्व- को लागू करने योग्य पात्रता में बदलने वाला एक कानूनी नवाचार था। यदि मांग के 15 दिनों के भीतर काम नहीं दिया जाता था तो राज्य कानूनी रूप से बेरोजगारी भत्ते का भुगतान करने के लिए बाध्य था। नरेगा के तहत रोजगार- मांग-आधारित, सार्वभौमिक था और यह अधिकार न्यायोचित था। वीबी-जी राम जी विधेयक इस अधिकार-आधारित, मांग आधारित ढांचे को आपूर्ति-संचालित, बजट-कैप्ड योजना के साथ प्रतिस्थापित करता है जो सशर्त है तथा जिसकी गारंटी केंद्रीय आवंटन और प्रशासनिक विवेक पर है।

याद रखने वाली बात यह है कि नरेगा की जड़ें महाराष्ट्र की रोजगार गारंटी योजना (ईजीएस) में थीं। 1970 के दशक की शुरुआत में पड़े विनाशकारी सूखे का मुकाबला करने के लिए बनाए गये ईजीएस को शहरी श्रमिकों को समर्पित कर वित्तपोषित और ग्रामीण रोजगार की वैधानिक गारंटी द्वारा समर्थित किया गया था। इसकी विशेषता इसकी सरलता में निहित है- मांग पर काम, स्थानीय रूप से निर्धारित सार्वजनिक कार्य और मजदूरी का भुगतान श्रमिक के अधिकार के रूप में होना। यह नरेगा के लिए बौद्धिक और संस्थागत टेम्पलेट बन गया। ईजीएस का डिजाइन गांधीवादी नेता वीएस पागे के नेतृत्व में लागू की गई पायलट परियोजनाओं से प्रेरित था।

ईजीएस ने एक राजनीतिक सच्चाई का भी खुलासा किया जो आज भी प्रासंगिक है। इसने मज़दूरी के लिए एक धरातल निर्धारित करके तथा श्रमिकों को बाहर निकलने का विकल्प देकर श्रमिकों की जमींदारों और ठेकेदारों पर निर्भरता को कम कर दिया। आश्चर्य की बात नहीं है कि इसे ज़मींदार अभिजात वर्ग के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा जिन्होंने 'श्रम की कमी' और बढ़ती मजदूरी के बारे में शिकायत की। नए विधेयक का प्रावधान कृषि मौसमों के चरम के दौरान रोजगार में 60 दिनों के ठहराव की अनुमति देता है जो जाहिरा तौर पर 'श्रम उपलब्धता को सुविधाजनक बनाने' के लिए तटस्थ नीति डिजाइन की तरह कम और उन लोगों की सुविधा के लिए रियायत की तरह अधिक है जो लंबे समय से नरेगा के ग्रामीण श्रम बाजारों पर प्रभाव से नाराज हैं।

सरकार के बचाव का केंद्र बिंदु गारंटीकृत रोजगार को 100 से बढ़ाकर 125 दिन करना है लेकिन यह काफी हद तक प्रतीकात्मक है। यहां तक कि नरेगा के तहत भी अधिकांश वर्षों में वास्तव में परिवारों के एक छोटे से हिस्से को ही पूरे 100 दिनों का काम मिलता था। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि नया विधेयक केंद्र द्वारा निर्धारित 'राज्यवार मानक आवंटन' के माध्यम से कुल व्यय को सीमित करता है। इस सीमा से अधिक का कोई भी खर्च केंद्र द्वारा निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन करते हुए राज्यों द्वारा वहन किया जाना चाहिए। कानून में बजट कैप को शामिल कर यह विधेयक एक कानूनी गारंटी को केंद्रीय राशन कार्यक्रम में परिवर्तित करता है।

अपनी तमाम कमियों के बावजूद नरेगा ने सहकारी संघवाद के व्यावहारिक रूप को मूर्त रूप दिया था। केंद्र ने यह मानते हुए कि उच्च बेरोजगारी वाले गरीब राज्यों में भी कमजोर राजकोषीय क्षमता है, पूरी मजदूरी लागत तथा अधिकांश सामग्री लागत को वहन किया। वीबी-जी राम जी विधेयक इस तर्क को पलट देता है। प्रस्तावित 60:40 लागत-साझे का पैटर्न राज्यों पर अनुमानत: सालाना 50,000 करोड़ रुपये से अधिक का बड़ा अतिरिक्त बोझ डालता है, खासतौर पर ऐसे समय में जब जीएसटी और उधार लेने की बाधाओं के कारण राज्यों की राजकोषीय स्वायत्तता पहले ही खत्म हो चुकी है।

यह केवल एक राजकोषीय मुद्दा नहीं है बल्कि यह एक संवैधानिक मुद्दा भी है। रोजगार और लोक निर्माण पूरी तरह से राज्य सूची के अंतर्गत आते हैं तथा 11वीं अनुसूची के अंतर्गत स्थानीय स्वशासन के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। नया विधेयक इस बात का उदाहरण है कि विशेषज्ञों ने इसे केंद्र की 'सातवीं अनुसूची में चोरी छिपे घुसना' कहा है- संवैधानिक रूप से राज्यों को सौंपे गए विषयों पर केंद्रीय नियंत्रण का विस्तार करना जबकि राज्यों को कार्यान्वयन की वित्तीय और राजनीतिक लागतों को वहन करने के लिए छोड़ देता है।

विधेयक के समर्थकों का तर्क है कि नरेगा अक्षम, भ्रष्टाचार प्रवण और प्रशासनिक रूप से कठोर था लेकिन ये कार्यान्वयन की समस्याएं थीं, डिजाइन की नहीं। विलंबित भुगतान, बायोमेट्रिक विफलताओं और बहिष्करण त्रुटियों का समाधान संस्थागत सुधार के माध्यम से होना चाहिए था, न कि कानूनी ताकत कम पड़ने के कारण ऐसा किया जाना था। इसके अलावा परियोजना व कार्यों के चयन के लिए केंद्रीकृत एआई-आधारित डैशबोर्ड शुरू करके नरेगा की स्थानीय सरकार और समुदाय की महत्वपूर्ण स्वायत्तता जैसी विशेषता को छीन लिया गया है।

नरेगा की सबसे मौलिक विशेषता इसकी सार्वभौमिकता थी। यह गरीबी रेखाओं, लाभार्थी सूचियों या लक्ष्यीकरण त्रुटियों पर निर्भर नहीं था। शारीरिक कार्य करने का इच्छुक कोई भी अकुशल व्यक्ति रोजगार की मांग कर सकता है। इस स्व-लक्ष्यीकरण डिजाइन ने बहिष्करण एवं रिसाव को कम किया। वीबी-जी राम जी विधेयक इस सिद्धांत से हटकर केंद्र को विशिष्ट ग्रामीण क्षेत्रों को अधिसूचित करने की अनुमति देता है जहां रोजगार प्रदान किया जाएगा। एक गारंटी जो केवल वहीं लागू होती है जहां केंद्र इसे लागू करने का विकल्प चुनता है। यह शर्तों में एक विरोधाभास है।

कोविड-19 के भीषण संकट के दौरान नरेगा ने एक शॉक एब्जॉर्बर के रूप में काम किया, ग्रामीण मांग को बनाए रखा और बड़े पैमाने पर अभावग्रस्तता को रोका। इसने महिलाओं की श्रम भागीदारी को भी बढ़ाया है, सबसे गरीब श्रमिकों की सौदेबाजी की शक्ति में सुधार किया है तथा पलायन को कम किया है। ये दुष्प्रभाव नहीं थे बल्कि वे इसके डिजाइन के केंद्र में थे। दुनिया के सबसे असमान श्रम बाजारों में से एक में श्रम की सौदेबाजी की शक्ति में मामूली सुधार करने वाले कार्यक्रम की सफलता का जश्न मनाया जाना चाहिए न कि उसे नष्ट किया जाना चाहिए।

संसदीय स्थायी समिति के संदर्भ के बिना और राज्यों, श्रमिक संगठनों या नागरिक समाज के साथ गंभीर परामर्श किए बिना वीबी-जी राम जी विधेयक को जिस तरह से पेश तथा पारित किया गया है, वह भी उतना ही आपत्तिजनक है। एक ऐसा कानून, जो नागरिक और राज्य के बीच संतुलन को मौलिक रूप से बदल देता है,उसके लिए यह प्रक्रियागत जल्दबाजी लोकतांत्रिक मानदंडों में फिट नहीं बैठती है।

अधिकार-आधारित ढांचे का मतलब है कि राज्य अपने नागरिकों को सम्मान के साथ काम करना चाहता है न कि उन्हें दान देने जैसा एहसान दिलाने की कोशिश करता है। महाराष्ट्र के ईजीएस ने आधी सदी पहले यह सम्मान दिलाया था। नरेगा ने उस नैतिक अंतर्दृष्टि का राष्ट्रीयकरण किया। नया विधेयक इससे पीछे हट जाता है।

2047 तक 'विकसित भारत' बनने की आकांक्षा रखने वाले राष्ट्र को सामाजिक नागरिकता और सामाजिक सुरक्षा के दायरे का विस्तार करना चाहिए, न कि इसे कम करना चाहिए। नरेगा में सुधार आवश्यक तथा वांछनीय दोनों था। एक विवेकाधीन योजना के साथ एक न्यायसंगत अधिकार को बदलना न तो सुधार है और न ही प्रगति। यह एक संवैधानिक, आर्थिक व नैतिक आधार पर पीछे हटने वाला कदम है।

(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं।सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


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