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संघ का नया चुनावी युद्घघोष-घुसपैठियों का खतरा!

''राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरे'' के लबादे में, वास्तव में चुनावी द्वंद्व की अपनी इस प्रस्तुति में, प्रधानमंत्री मोदी अति-नाटकीयता का छोंक लगाना भी नहीं भूले

संघ का नया चुनावी युद्घघोष-घुसपैठियों का खतरा!
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  • राजेंद्र शर्मा

''राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरे'' के लबादे में, वास्तव में चुनावी द्वंद्व की अपनी इस प्रस्तुति में, प्रधानमंत्री मोदी अति-नाटकीयता का छोंक लगाना भी नहीं भूले। उन्होंने कहा, ''मैं (विरोधी) राजनीतिज्ञों से कहना चाहता हूं कि मैंने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली है...लिखकर रख लीजिए। मैं देखूंगा कि कैसे तुम घुसपैठियों को बचाने के लिए अपनी ताकत लगाते हो और कैसे हम उन्हें निकालने के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगाते हैं।

आने वाले चुनावी सीजन के लिए, भाजपा-आरएसएस ने विपक्ष के खिलाफ अपना मुख्य नैरेटिव तय कर लिया लगता है। पहले, असम में दारांग जिले के मंगलडोई में और उसके अगले ही दिन, बिहार में पूर्णिया में प्रधानमंत्री मोदी ने ''विकास'' के अपने दावों के अलावा, जो राजनीतिक संदेश दिया, वह इसी का संकेत करता है। असम में प्रधानमंत्री ने दावा किया कि देश के सीमावर्ती इलाकों में, आबादी का गठन बदलने का षडयंत्र रचा जा रहा है। और प्रधानमंत्री के अनुसार इस षडयंत्र को ''घुसपैठियों'' के जरिए अंजाम दिया जा रहा है। अगले ही दिन, पूॢणया में अपनी सभा में प्रधानमंत्री ने ''घुसपैठियों'' के खतरे का अपना आख्यान दोहराया। यही नहीं यहां प्रधानमंत्री ने असम तथा बिहार के साथ, बंगाल के लिए भी इसे गंभीर खतरा बता दिया। और इस खतरे में भावनात्मक छोंक लगाते हुए, उन्होंने ''बहन-बेटियों की सुरक्षा'' के लिए खतरे की दुहाई दे डाली। याद दिला दें कि कथित घुसपैठियों से बहन-बेटियों की सुरक्षा के लिए खतरे की ठीक इसी दुहाई का, प्रधानमंत्री मोदी ने ही बिहार की तरह ही बंगाल से ही लगती हुई सीमा वाले एक और राज्य, झारखंड में विधानसभाई चुनाव में पूरा जोर लगाकर इस्तेमाल किया था। यह दूसरी बात है कि उसके बावजूद जनता ने एक बार फिर भाजपा को राज्य में सत्ता से बाहर ही रखने का जनादेश दिया था।

जाहिर है कि संघ-भाजपा का यह चुनावी नैरेटिव उतना कथित ''घुसपैठियों'' के खिलाफ नहीं है, जितना कि भाजपा के राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ है। इसलिए, अपने असली निशाने के संबंध में किसी संदेह या दुविधा की गुंजाइश न छोड़ते हुए, प्रधानमंत्री ने असम में अपने भाषण में कहा कि वास्तव में सीमावर्ती इलाकों में यह षड़यंत्र वे लोग चला रहे थे, जो घुसपैठियों को शरण देने पर आमादा थे। यहां से एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने असम में अपनी मुख्य राजनीतिक विरोधी, कांग्रेस पर और पहले की कांग्रेसी सरकारों पर, इन घुसपैठियों को बचाने तथा उनकी हिमायत करने का आरोप जड़ दिया। प्रधानमंत्री ने आगे यह भी कहा कि, ''कांग्रेस चाहती है कि घुसपैठिए हमेशा के लिए भारत में बने रहें और उसका भविष्य तय करें।'' यानी खतरा इतना बड़ा है कि देश भविष्य ही घुसपैठिये तय करने लग जाएंगे।

''राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरे'' के लबादे में, वास्तव में चुनावी द्वंद्व की अपनी इस प्रस्तुति में, प्रधानमंत्री मोदी अति-नाटकीयता का छोंक लगाना भी नहीं भूले। उन्होंने कहा, ''मैं (विरोधी) राजनीतिज्ञों से कहना चाहता हूं कि मैंने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली है...लिखकर रख लीजिए। मैं देखूंगा कि कैसे तुम घुसपैठियों को बचाने के लिए अपनी ताकत लगाते हो और कैसे हम उन्हें निकालने के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगाते हैं। हो जाए मुकाबला। घुसपैठियों को बचाने वाले हार जाएंगे और मेरी बात लिखकर रख लीजिए, देश उन्हें माफ नहीं करेगा!'' इसके बाद तो सिर्फ भाजपा के लिए वोट मांगना ही बाकी रह जाता था।

उधर बिहार में पूर्णिया में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने स्वाभाविक रूप से घुसपैठियों की हिफाजत करने के दोषियों का अपना दायरा बढ़ा दिया और कांगे्रस के साथ ही राष्ट्रीय जनता दल को घुसपैठियों को ''लंबे समय से'' संरक्षण दे रहे होने का दोषी ठहरा दिया। उन्होंने चुनौती की मुद्रा में कहा, ''लेकिन, उन्हें बाहर निकालना एनडीए की जिम्मेदारी है'' और यह भी जोड़ा कि ''घुसपैठियों को संरक्षण देने वाले नेता कान खोलकर सुन लें, हम उन्हें बाहर भेजना जारी रखेंगे। हमने जनसांख्यिकीय आयोग के गठन का एलान कर दिया है।'' इसके साथ ही प्रधानमंत्री मोदी यह कहकर इस खतरे को अखिल भारतीय खतरा बनाने की कोशिश करना नहीं भूले कि, ''बिहार, बंगाल, असम के लोग अपनी बहन-बेटियों की सलामती और सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं।''

जाहिर है कि आने वाले दिनों में हमें प. बंगाल में भी घुसपैठियों के खतरे की यह कहानी बार-बार सुनने को मिलेगी। हां! प. बंगाल में इसे कुछ अलग ढंंग से जरूर पेश किया जा रहा होगा। आखिरकार, प. बंगाल में बांग्लादेश से समय-समय पर आए ऐसे हिंदू प्रवासियों की भी बहुत बड़ी संख्या है, जिनकी नागरिकता का मुद्दा, आम राजनीतिक सर्वानुमति होने के बावजूद, तरह-तरह के तकनीकी कारणों से लटका रहा है। प. बंगाल में घुसपैठियों के खतरे का शोर मचाने में, उन्हें इन हिंदू प्रवासियों को बचाने का खास ध्यान रखना होगा। वर्ना ''बांग्लादेशी घुसपैठियों'' के खतरे के नाम पर गोलबंदी, तो संघ-भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से उल्टी ही पड़ जाएगी। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और एनआरसी के बीच, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कुख्यात रूप से जिस ''क्रोनोलॉजी'' पर जोर दिया था, वह इसी पैंतरे को साधने की कोशिश का हिस्सा था।

ऐसा लगता है कि संघ-भाजपा को अपनी मुस्लिम विरोधी गोलबंदी और उसके आधार पर धु्रवीकरण की मुहिम के लिए एक और नारा मिल गया है। जाहिर है कि इस सिलसिले में तो वे कभी किसी भ्रम की गुंजाइश नहीं छोड़ते हैं कि जब वे घुसपैठ की बात करते हैं, घुसपैठ के जरिए आबादी का गठन बदले जाने की बात करते हैं और इस तरह घुसपैठ से सामाजिक ताने-बाने से लेकर, राष्ट्र की सुरक्षा तक खतरे में पड़ जाने की बात करते हैं, तो वे सिर्फ और सिर्फ अल्पसंख्यकों की और उसमें भी खासतौर पर मुसलमानों की आबादी बढ़ने की ही बात कर रहे होते हैं। इस संबंध में अगर कोई अस्पष्टïता रही भी होगी तो नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) बनाए तथा लागू किए जाने के बाद दूर हो चुकी है, जो कानूनी तौर पर बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि, पड़ौसी देशों से अवैध रूप से आए गैर-मुस्लिम प्रवासियों को छांटकर उनके लिए नागरिकता का रास्ता खोलता है। इस कानून से संबंधित नियमों में ताजातरीन संशोधनों के जरिए, अब 2024 के अंत में आए गैर-मुस्लिम प्रवासियों तक के लिए नागरिकता का यह रास्ता खोल दिया गया है। यह ''घुसपैठिया'' शब्द को मुस्लिम प्रवासी का समानार्थी ही बना देता है। आबादी के गठन में ठीक ऐसी ही घुसपैठ से होने वाले बदलाव को वे हिंदुओं के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी खतरे की तरह पेश करते हैं। जनसांख्यिकीय आयोग के गठन का मोदी सरकार का एलान, खतरे के ठीक इसी दावे को देश की सरकार की नीति और कदमों के स्तर तक पहुंंचा देता है।

उक्त आयोग चूंकि सबसे बढ़कर, बदले हुए नाम से मुस्लिम खतरे के प्रोपेगंडा का ही औजार है, इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि 15 अगस्त के लालकिले से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी के इस आयोग का गठन की घोषणा करने के बाद गुजरे महीने भर में, इस संबंध में आगे कुछ किए जाने की कोई खबर नहीं आयी है। न इस आयोग की संरचना के बारे में, न उसकी कार्यप्रणाली या कार्य क्षेत्र के बारे में, देश को कुछ भी बताया गया है। बस प्रधानमंत्री की औपचारिक-अनौपचारिक चुनावी सभाओं में, इस आयोग के गठन की बात को दोहराया जा रहा है। फिलहाल इस आयोग के नाम का इस्तेमाल इस धारणा की पुष्टि के लिए किया जा रहा है कि राष्ट्र के लिए, यह कोई वास्तविक खतरा खड़ा हो गया है। दूसरे, इसके नाम का इस्तेमाल इस धारणा से प्रभावितों यानी हिंदुत्व समर्थकों को इसका भरोसा दिलाने के लिए किया जा रहा है कि मोदी सरकार, इस खतरे से निपटने के लिए सक्रिय तरीके से काम कर रही है।

इस पूरे मामले का सबसे बेढ़ब पहलू यह है कि यह सब कोरे प्रोपेगंडा से बनी और लगातार बनायी जा रही धारणाओं का मामला है। बेशक, यह प्रोपेगंडा इतना ज्यादा सघन और तीव्र है कि बढ़ती संख्या में लोग इन धारणाओं के शिकार होते गए हैं। लेकिन, यह प्रोपेगंडा तथ्यों के मामले में करीब पूरी तरह से अंधेरे में ही संचालित किया जाता रहा है। वास्तव में इसके कोई तथ्यात्मक साक्ष्य हैं ही नहीं कि सीमावर्ती इलाकों में, आबादी के सामुदायिक अनुपात में कोई असामान्य बदलाव आए हैं। लेकिन, यह प्रचार बदस्तूर जारी है और जैसा कि हमने पीछे कहा, अब देश की सरकार की नीति और कदमों के स्तर पर भी पहुंच गया है।

''घुसपैठियों के खतरे'' के नारे के इस तरह सरकार की नीति के स्तर तक पहुंचने की यह यात्रा भी काफी शिक्षाप्रद है। हमारे देश में बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक प्रचार में यह धारणा तो बहुत पहले से चली आ रही थी कि मुसलमान बहुत ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं। शिक्षित, सवर्ण, संपन्न हिंदू, यह तुलना करते हुए, इस मामले अन्य गैर-मुस्लिम अशिक्षित, गरीबों की स्थिति की ओर से आसानी से आंखें मूंद लेते थे और इस तरह ज्यादा संतानें पैदा करने का संबंध, अशिक्षा और गरीबी से काटकर, आधे-अधूरे तरीके से धर्म से जोड़ देते थे। यह इसके बावजूद था कि जनगणना के आंकड़े, आबादी के बारे में कुछ और कहानी कह रहे थे। इस कहानी का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि भारत में शिक्षा के प्रसार के साथ आबादी में वृद्घि की रफ्तार सभी समुदायों के लिए तेजी से घटती जा रही है और मुसलमानों के मामले में हिंदुओं से भी तेजी से घट रही है। इसके अकाट्य साक्ष्यों के सामने, सांप्रदायिक प्रोपेगंडा में थोड़ा बदलाव कर अब इसे आम तौर पर आबादी बढ़ने से खतरे के बजाए, खासतौर पर ''घुसपैठ से मुस्लिम आबादी बढ़ने के खतरे'' में तब्दील कर दिया गया है। यह दिखाता है कि सांप्रदायिक प्रोपेगंडा, सिर्फ प्रचार और पूर्वाग्रहों के बल पर, अपने लक्ष्य समुदाय के लिए हवा में से खतरे का भूत खड़ा कर सकता है।

हाल के दौर में संघ-भाजपा के इस प्रोपेगंडा को नये चरण में पहुंचाते हुए, देश के विभिन्न हिस्सों में खासतौर बंगाली मुस्लिम मजदूरों पर हमलों से लेकर उनकी पकड़-धकड़ तथा जबरन बांग्लादेश में धकेले जाने तक की कार्रवाइयां शुरू कर दी गयीं। उसके बाद, प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने भाषण में आबादी के गठन में बदलाव के खतरे का मुद्दा उठा दिया और डेमोग्राफी आयोग के गठन का एलान कर दिया। उसके बाद आरएसएस ने जोधपुर में हुई अपने आनुषांगिक संगठनों की सालाना बैठक में, घुसपैठ के खतरे को सांप्रदायिक प्रचार का मुख्य नारा बनाने की पुष्टि कर दी। अब प्रधानमंत्री ने इसे युद्घघोष के रूप में चला दिया है।

(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


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