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भोपाल में उस रात की सुबह अभी तक नहीं हो सकी

इंसान को तमाम तरह की सुख-सुविधाओं के साजो-सामान देने वाला सतर्कताविहीन या कहें कि गैरजिम्मेदाराना विकास कितना मारक हो सकता है

भोपाल में उस रात की सुबह अभी तक नहीं हो सकी
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  • अनिल जैन

विकास की गतिविधियों के चलते बड़े पैमाने पर हो रहा लोगों का विस्थापन सामाजिक असंतोष को जन्म दे रहा है। यह असंतोष कहीं-कहीं हिंसक प्रतिकार के रूप में भी सामने आ रहा है। 'किसी भी कीमत पर विकास' की जिद के चलते ही देश की राजधानी दिल्ली समेत तमाम महानगर तो लगभग नरक में तब्दील होते जा रहे हैं।

इंसान को तमाम तरह की सुख-सुविधाओं के साजो-सामान देने वाला सतर्कताविहीन या कहें कि गैरजिम्मेदाराना विकास कितना मारक हो सकता है, इसकी जो मिसाल भोपाल में चार दशक पहले देखने को मिली थी, उसे वहां अभी अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग रूपों में देखा जा सकता है। दुनिया की भीषणतम भोपाल गैस त्रासदी को पूरे 41 बरस हो चुके हैं। दो और तीन दिसंबर, 1984 की दरम्यानी रात को यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली गैस (मिक यानी मिथाइल आइसो साइनाइट) ने अपने घरों में सोए हजारों लोगों को एक झटके में हमेशा-हमेशा के लिए सुला दिया था। जिन लोगों को मौत अपने आगोश में नहीं ले पाई थी, वे उस जहरीली गैस के असर से मर-मरकर जिंदा रहने को मजबूर हो गए थे। ऐसे लोगों में कई लोग तो उचित इलाज के अभाव में मर गए और जो किसी तरह जिंदा बच गए उन्हें तमाम संघर्षों के बावजूद न तो आज तक उचित मुआवजा मिल पाया और न ही उस त्रासदी के बाद पैदा हुए खतरों से पार पाने के उपाय किए जा सके।

इन खतरों को लेकर केंद्र और राज्य सरकार की बेपरवाही का आलम यह रहा कि भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने का 350 टन जहरीला रासायनिक कचरा उसके परिसर में गैस कांड के बाद पूरे 40 साल तक दबा या खुला पड़ा रहा, जो सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से किसी तरह वहां से हटाकर इसी साल जून में इंदौर के समीप पीथमपुर में नष्ट किया गया है। इस मलबे में कीटनाशक रसायनों के अलावा पारा, सीसा, क्रोमियम जैसे भारी तत्व थे जो सूरज की रोशनी के संपर्क में आकर हवा को और जमीन में दबे रासायनिक तत्वों व भू जल को जहरीला बना कर लोगों की सेहत पर दुष्प्रभाव डालते रहे हैं। यही नहीं, इसकी वजह से उस इलाके की जमीन में भी प्रदूषण लगातार फैलता रहा है जिससे आसपास के इलाके भी इसकी चपेट में आए हैं।

हैरानी की बात है कि इस जहरीले कचरे के प्रभाव को लेकर कई सरकारी शोध भी हुए हैं लेकिन उनकी रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गई। त्रासदी के चार दशक बीत जाने के बावजूद प्रशासन अभी तक त्रासदी में मारे गए लोगों से जुड़े आंकड़े भी उपलब्ध नहीं करा सका है। गैर सरकारी संगठन जहां इस गैस कांड से अब तक 25 हजार से ज्यादा लोगों के मारे जाने का दावा करते हैं, वहीं राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इस हादसे में 5295 लोग मारे गए और साढ़े पांच लाख लोग जहरीली गैस के असर से विभिन्न बीमारियों के शिकार हुए। हकीकत में तो बीमारियों के शिकार हुए लोगों की संख्या साढ़े पांच लाख से कहीं ज्यादा है, क्योंकि 1997 के बाद सरकार ने गैस पीड़ितों के बारे में पता लगाना बंद कर दिया। यूनियन कार्बाइड कारखाने के परिसर में पड़े रहे जहरीले रासायनिक कचरे की वजह से भी हर साल बढ़ते रोगियों के आंकड़े नहीं जुटाए गए हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने, जो बेहद खर्चीला और बहुप्रचारित देशव्यापी स्वच्छता अभियान चलाया, उसमें भी यूनियन कार्बाइड कारखाने के परिसर में रखे गए इस औद्योगिक जहरीले कचरे और प्रदूषण से मुक्ति का महत्वपूर्ण पहलू अपनी जगह नहीं बना पाया। मध्य प्रदेश में भी इस त्रासदी के बाद कई सरकारें आईं और गईं- कांग्रेस की भी और भाजपा की भी, लेकिन इस जहरीले और विनाशकारी कचरे के समुचित निपटान का मसला उनके विमर्श में जगह नहीं बना पाया। उनके एजेंडे में रहीं नर्मदा परिक्रमा, बुजुर्गों के तीर्थ दर्शन यात्रा जैसी पाखंड भरी योजनाएं या फिर विकास के नाम पर पर्यावरण को तहस-नहस करने वाली खर्चीली परियोजनाएं- जिनमें भ्रष्टाचार की असीम संभावनाएं रहती हैं।

भोपाल गैस त्रासदी की भयावहता और उसके दूरगामी परिणामों की तुलना करीब आठ दशक पहले दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए उन परमाणु हमलों से की जा सकती है जो अमेरिका ने किए थे। उन हमलों में दोनों शहर पूरी तरह तबाह हो गए थे और डेढ़ लाख से अधिक लोग मारे गए थे। इस सिलसिले में भोपाल गैस त्रासदी के करीब डेढ़ वर्ष बाद अप्रैल 1986 में तत्कालीन सोवियत संघ के यूक्रेन में चेरनोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र में हुए भीषण विस्फोट को भी याद किया जा सकता है, जिसमें भारी जान-माल का नुकसान हुआ था। करीब 3.50 लाख लोग विस्थापन के शिकार हुए थे तथा रूस, यूक्रेन और बेलारूस के करीब 55 लाख लोग विकिरण की चपेट में आए थे। हिरोशिमा और नागासाकी को 80 वर्ष, भोपाल गैस त्रासदी को 41 वर्ष और चेरनोबिल को 39 वर्ष बीत गए हैं, लेकिन दुनिया का शासक वर्ग अभी भी सबक सीखने को तैयार नहीं है। वह पूरी दुनिया को ही हिरोशिमा-नागासाकी, भोपाल और चेरनोबिल में तब्दील कर देने की मुहिम में जुटा है। दुनिया के तमाम विकसित देश इस मुहिम के अगुवा बने हुए हैं और हमारा देश उनका पिछलग्गू।

देश में विकास के नाम पर जगह-जगह विनाशकारी परियोजनाएं जारी हैं- कहीं परमाणु बिजली घर के रूप में, कहीं औद्योगीकरण के नाम पर, कहीं बड़े बांधों के रूप में और कहीं स्मार्ट सिटी के नाम पर। इस तरह की परियोजनाओं को साकार रूप देने के लिए देश की तमाम जीवनदायिनी नदियों को बर्बाद किया जा रहा है। गंगा, यमुना, नर्मदा, क्षिप्रा आदि नदियां तो सर्वग्रासी औद्योगीकरण का शिकार होकर कहीं गंदे और जहरीले नालों में तब्दील हो गई हैं, तो कहीं अंधाधुंध खनन के चलते सूखकर मैदानों में तब्दील हो चुकी हैं। पहाड़ों को काट-काटकर उन्हें खोखला किया जा रहा है और पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर वहां कांक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं।

इस सिलसिले में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का दिया यह फैसला भी हैरान करने वाला है जिसके मुताबिक अब अरावली पर्वतमाला उन्हीं भू भागों को माना जाएगा जो आसपास की जमीनों से 100 मीटर ज्यादा ऊंचे होंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि इस फैसले से अरावली पर्वतमाला 80 फीसद हिस्सा पहाड़ी दायरे से मुक्त होकर मैदानी माना जाएगा, जिस पर विकास के नाम पर खनन और निर्माण संबंधी सरकारी एवं गैर सरकारी विनाशकारी गतिविधियां देखने को मिलेंगी।

औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलते जंगलों का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। विकास के नाम पर सरकारों द्वारा और सरकार के संरक्षण में जारी इन आपराधिक कारगुजारियों से पर्यावरण बुरी तरह तबाह हो रहा है, जिसकी वजह से देश को आए दिन किसी न किसी प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ता है- कभी प्रलयंकारी बाढ़, कभी भूस्खलन और कभी भूकंप के रूप में।

तथाकथित विकास की गतिविधियों के चलते बड़े पैमाने पर हो रहा लोगों का विस्थापन सामाजिक असंतोष को जन्म दे रहा है। यह असंतोष कहीं-कहीं हिंसक प्रतिकार के रूप में भी सामने आ रहा है। 'किसी भी कीमत पर विकास' की जिद के चलते ही देश की राजधानी दिल्ली समेत तमाम महानगर तो लगभग नरक में तब्दील होते जा रहे हैं, परन्तु न सरकारें सबक लेने को तैयार हैं और न ही समाज। सरकारों ने तो विकास और विदेशी निवेश के नाम पर देश के बड़े उद्योग घरानों और विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए समूचे देश को आखेट-स्थली बना दिया है। अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कंपनी ऐसी ही एक कंपनी थी, जिसके कारखाने से निकली जहरीली गैस आज भी भोपाल की सांसों में घुली हुई है।

तात्कालिक तौर पर लगभग दो हजार और उसके बाद से लेकर अब तक कई हजार लोगों की अकाल मृत्यु की जिम्मेदार विश्व की यह सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी आज करीब चार दशक बाद भी औद्योगिक विकास के रास्ते पर चल रही दुनिया के सामने एक सवाल बनकर खड़ी हुई है।

गैस रिसाव से वातावरण और आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पर जो बुरा असर पड़ा, उसे दूर करना भी संभव नहीं हो सका। नतीजतन, भोपाल के काफी बड़े इलाके के लोग आज तक उस त्रासदी के प्रभावों को झेल रहे हैं। जिस समय देश औद्योगिक विकास के जरिए समृद्ध होने के सपने देख रहा है, तब उन लोगों की पीड़ा भी अवश्य याद रखी जानी चाहिए। सिर्फ उनसे हमदर्दी जताने के लिए नहीं, बल्कि भविष्य में ऐसी त्रासदियों से बचने के लिए भी यह जरुरी है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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