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वंदेमातरम की विरासत

भारत 'वंदेमातरम' गीत के 150 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहा है। चारों ओर 'वंदेमातरम' की गूंज से भारतीयता का भाव गुंजायमान है,

वंदेमातरम की विरासत
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— अरविंद जयतिलक

गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नैम)की संस्थापक आवाज़ के रूप में, दुनिया भारत से उम्मीद करती है कि वह परमाणु निरस्त्रीकरण, छोटे हथियारों के प्रसार पर रोक लगाने और स्थायी शांति को बढ़ावा देना जारी रखेगा, खासकर हमारे अपने क्षेत्रीय दायरे में। इस भूमिका को निभाने के लिए, भारत को एक सूक्ष्म और कुशल कूटनीतिक दृष्टिकोण अपनाना होगा।

भारत 'वंदेमातरम' गीत के 150 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहा है। चारों ओर 'वंदेमातरम' की गूंज से भारतीयता का भाव गुंजायमान है, लेकिन विडंबना है कि यह कुछ लोगों को रास नहीं आ रहा। वे कुतर्कों का सहारा लेकर किस्म-किस्म से विरोध की प्रस्तावना खींच रहे हैं। यह ठीक नहीं है। उन्हें समझना होगा कि 'वंदेमातरम' किसी धर्म या मजहब के समर्थन या विरोध में नहीं है। यह मातृभूमि के प्रति समर्पण, त्याग और बलिदान का वह निश्छल भाव है जिसे विचारों का हथियार बनाकर आजादी के दीवानों ने मातृभूमि को आजाद कराया। राष्ट्रगीत 'वंदेमातरम' केवल शब्द भर नहीं हैं, बल्कि इसमें राष्ट्र की संस्कृति, इतिहास, कला, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान का वह भाव समाहित है जो भारत राष्ट्र की निरंतरता और चेतना को उद्घाटित करता है। इसके प्रकटीकरण से राष्ट्र की गरिमा और गौरव में वृद्धि होती है।

गीत के इतिहास में जाएं तो 7 नवंबर 1875 को बंगाल के कांठलपाड़ा गांव में बंकिमचंद्र चटर्जी ने इस गीत के पहले दो छंदों की रचना की थी। 1937 में कांग्रेस ने ये ही दो छंद अपनाए थे। रचना के सात साल बाद 1882 में उपन्यास 'आनंदमठ' में इसे पूरा करके सम्मिलित किया गया था। 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के 1896 के अधिवेशन में कलकत्ता में पहली बार ये गीत गूंजा। महान कवि रबीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे सुर और ताल दिए और पहली बार राजनीतिक मंच पर गाया। ब्रिटिशों ने इसे बैन करने की कोशिश भी की। सुभाष चंद्र बोस ने इसे 'आजाद हिन्द फौज' का मार्चिंग सॉन्ग बनाया। पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने 1915 से हर कांग्रेस अधिवेशन में इसे गाया।

अरबिंदो घोष ने अंग्रेजी में और आरिफ मोहम्मद खान ने उर्दू में इसका अनुवाद किया। आजादी के बाद 24 जनवरी 1950 को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने 'राष्ट्रगान' 'जनगणमन' के साथ 'राष्ट्रगीत' 'वंदे मातरम' की घोषणा की। मूल रुप से 'वंदेमातरम' के प्रारंभिक दो पद संस्कृत में थे और शेष गीत बांग्ला में। दिसंबर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में गीत को 'राष्ट्रगीत' का दर्जा प्रदान किया गया और बंगाल विभाजन के समय यह गीत राष्ट्रीय नारा बन गया। 1906 में 'वंदेमातरम' देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया।

सन् 1923 में कांग्रेस अधिवेशन में मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा इस्लाम की भावना के विरुद्ध बताकर 'वंदेमातरम' गीत का विरोध किया गया, लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरु, सुभाषचंद्र बोस, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और आचार्य नरेंद्र देव की समिति ने 28 अक्टूबर 1937 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में इस गीत के पहले दो पैराग्राफ को राष्ट्रगीत के रुप में स्वीकृति दे दी। 14 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि में 'संविधान सभा' की पहली बैठक का प्रारंभ 'वंदेमातरम' के साथ और समापन राष्ट्रगान 'जनगणमन' के साथ हुआ।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1905 में वंदेमातरम गीत के संबंध में लिखा है कि - 'आज लाखों लोग एक बात के लिए एकत्र होकर वंदेमातरम गाते हैं, मेरे विचार से इसने हमारे राष्ट्रीय गीत का दर्जा हासिल कर लिया है। मुझे यह पवित्र, भक्तिपरक और भावनात्मक गीत लगता है। कई अन्य राष्ट्रगीतों के विपरित यह किसी अन्य राष्ट्र-राज्य की नकारात्मकताओं के बारे में शोर-शराबा नहीं करता है।' 1936 में भी गांधी जी ने 'वंदेमातरम' के बारे में कहा कि - 'कवि ने हमारी मातृभूमि के लिए जो अनेक सार्थक विशेषण प्रयुक्त किए हैं, वे एकदम अनुकूल हैं, इनका कोई सानी नहीं है। अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम इन विशेषणों को यथार्थ में बदलें। मुझे कभी ख्याल नहीं आया कि यह गीत सिर्फ हिंदुओं के लिए रचा गया है।'

आजादी के आंदोलन के अलावा 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट में जब 'अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस' का अधिवेशन शुरु हुआ तो श्यामजी वर्मा, मैडम कामा, विनायक सावरकर जैसे क्रांतिकारियों ने भारत की स्वतंत्रता पर संकल्प पारित करने के लिए भाषण से पहले आधुनिक भारत के पहले राष्ट्रीय झंडे को फहराया और इस झंडे के मध्य में देवनागरी लिपि में 'वंदेमातरम' लिखा। यहां ध्यान देना होगा कि 1906 से 1911 तक यह गीत पूरा गाया जाता था। इस गीत में वह ताकत थी कि ब्रिटिश हुकूमत को बंगाल के विभाजन का फरमान वापस लेना पड़ा। भगत सिंह, मदनलाल ढींगरा, राजगुरु, अशफाकउल्ला और रामप्रसाद 'बिस्मिल' जैसे क्रांतिकारियों ने 'वंदेमातरम' के नारे के साथ फांसी के फंदे को चूमा था।

'वंदेमातरम' गीत राष्ट्रीयता का स्वर है, साथ ही क्रांतिकारियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि भी। यह ठीक नहीं है कि कुछ सियासी दल और संगठन अपने राजनीतिक फायदे के लिए 'वंदेमातरम' को राजनीतिक संकीर्णता के दायरे में रखकर इस्लाम की मान्यताओं के खिलाफ प्रचारित कर रहे हैं। भला इस गीत से किसी मजहब और संप्रदाय को किस तरह चोट पहुंच सकती है?

वंदेमातरम का विरोध कोई नई प्रवृत्ति नहीं है। गत वर्ष सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने वंदेमातरम के गायन को इस्लाम की भावना के खिलाफ बताया था। 2013 में, जब वे बीएसपी सांसद थे, 'वंदेमातरम' का अपमान कर इसकी धुन बजने पर सदन से उठकर चले गए थे। उनके इस शर्मनाक कृत्य की तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने निंदा करके जवाबतलबी भी की थी। गत वर्ष पहले मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार ने भी वंदेमातरम् के गायन पर पाबंदी लगाई थी, लेकिन जब देश भर में इस निर्णय की आलोचना हुई तब यू-टर्न लेते हुए फैसला लिया गया कि हर महीने के पहले कार्य दिवस पर पुलिस बैंड की धुनों पर 'वंदेमातरम' गाया जाएगा।

गत वर्ष जब मद्रास उच्च न्यायालय ने 'वंदेमातरम' को तमिलनाडु के स्कूलों में सप्ताह में कम-से-कम दो बार गायन अनिवार्य किया, तब भी कुछ सियासी दलों ने हायतौबा मचाना शुरु किया था। इसे मजहबी फ्रेम में फिटकर इस्लाम की भावना के विरुद्ध सियासी शोर में बदलने की कोशिश की गई। आज भी कुछ ऐसा ही उपक्रम देखने को मिल रहा है। कुछ सियासी दल और राष्ट्र विरोधी संगठन 'वंदेमातरम' पर अनावश्यक वितंडा खड़ाकर देश का माहौल खराब कर रहे हैं। यह ठीक नहीं है। देश के जनमानस को ऐसे प्रपंचियों और अराजकवादियों से सतर्क और सावधान रहना होगा।

(लेखकर वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार, लेखक एवं टीवी डिबेटर हैं)



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