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भाजपा में कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्ति के निहितार्थ

भारतीय जनता पार्टी में कार्यकारी अध्यक्ष के पद पर बिहार के एक नेता नितिन नवीन की जिस तरह से नियुक्ति हुई है

भाजपा में कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्ति के निहितार्थ
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  • अनिल जैन

गौरतलब यह भी है कि भाजपा के संविधान में कार्यकारी अध्यक्ष पद का कोई प्रावधान नहीं है। अलबत्ता पार्टी में अध्यक्ष की अनुपस्थिति में अंतरिम व्यवस्था के तौर पर कार्यवाहक अध्यक्ष नियुक्त किए जाने की परंपरा है, जिसके मुताबिक खुद जेपी नड्डा भी 2019 में कार्यवाहक अध्यक्ष बनाए गए थे और बाद में उन्हें पूर्णकालिक अध्यक्ष घोषित कर दिया गया था।

भारतीय जनता पार्टी में कार्यकारी अध्यक्ष के पद पर बिहार के एक नेता नितिन नवीन की जिस तरह से नियुक्ति हुई है, उससे पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश जेपी नड्डा की यह बात एक बार फिर सच साबित हुई है कि 'भाजपा अब हर मामले' में सक्षम और आत्मनिर्भर हो चुकी है और उसे अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद या उसके मार्गदर्शन की जरूरत नहीं रह गयी है।' जेपी नड्डा ने यह बात पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान साल 20 मई, 2024 को 'इंडियन एक्सप्रेस' को दिए इंटरव्यू में कही थी। हालांकि लोकसभा चुनाव में संघ हमेशा की तरह भाजपा के लिए सक्रिय था, फिर भी भाजपा की '400 पार' की हसरत पूरी नहीं हो सकी थी। वह बहुमत से दूर रही थी और उसे सरकार बनाने के लिए करीब डेढ दर्जन छोटे-बड़े क्षेत्रीय दलों का सहारा लेना पड़ा।

लोकसभा चुनाव के बाद चार राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनाव भाजपा ने जीते। ऐसा नहीं है कि इन चुनावों में संघ ने भाजपा की मदद नहीं की, लेकिन भाजपा की जीत में संघ से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की वह हिकमत अमली प्रभावी रही, जिसमें चुनाव आयोग, प्रशासन तंत्र, मीडिया और कुछ हद तक न्यायपालिका की भूमिका का भी शुमार रहा। इन चार राज्यों में मिली जीत से जेपी नड्डा की बात सही साबित हुई।

सब जानते हैं कि नड्डा पार्टी अध्यक्ष जरूर हैं लेकिन सर्वशक्तिमान अध्यक्ष नहीं। पार्टी अध्यक्ष की हैसियत से वे वही कहते और करते हैं, जैसा उन्हें निर्देशित किया जाता है। इसलिए यह आसानी से समझा जा सकता है कि 'अब संघ की जरूरत नहीं है और भाजपा आत्मनिर्भर हो चुकी है'- जैसी इतनी बड़ी बात उन्होंने किसके इशारे पर कही होगी।

दरअसल भाजपा के 45 साल के इतिहास में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बाद सिर्फ अमित शाह ही ऐसे अध्यक्ष हुए हैं जिन्हें सर्वशक्तिमान कहा जा सकता है। उनके अलावा अध्यक्ष रहे मुरली मनोहर जोशी, कुशाभाऊ ठाकरे, जना कृष्णमूर्ति, बंगारू लक्ष्मण, वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी में से कोई वाजपेयी-आडवाणी का तो कोई संघ का रबर स्टैंप ही रहा। हालांकि वाजपेयी और आडवाणी के फैसलों पर भी संघ की कम-ज्यादा छाप हुआ करती थी। संघ की छाप कुछ समय अमित शाह के फैसलों पर भी रही लेकिन वह धीरे-धीरे खत्म होती गई। पांच साल तक पार्टी अध्यक्ष रहने के बाद जब अमित शाह केंद्र सरकार में गृह मंत्री बने तो उनकी जगह जेपी नड्डा अध्यक्ष बनाए गए, जो अभी बने हुए हैं।

वैसे जेपी नड्डा का कार्यकाल लगभग दो साल पहले खत्म हो चुका है। वे केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं लेकिन उनकी जगह नया अध्यक्ष इसलिए नहीं बनाया जा सका है क्योंकि संघ और मोदी-शाह के बीच नए अध्यक्ष को लेकर किसी नाम पर सहमति नहीं बन पा रही है। मोदी-शाह अध्यक्ष पद पर ऐसे व्यक्ति को बैठाना चाहते हैं जो नड्डा की तरह उनका फरमानबरदार रहे, जबकि संघ चाहता है कि नया अध्यक्ष मोदी की छाया से मुक्त होकर उसके निर्देशन में काम करे।

बहरहाल इसी खींचतान के चलते बिहार के युवा नेता नितिन नवीन को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है। यह फैसला शुद्ध रूप से मोदी-शाह का है, जिसे पार्टी महासचिव अरुण सिंह ने एक प्रेस विज्ञप्ति में संसदीय बोर्ड का फैसला बताया है। यह फैसला लेने के लिए संसदीय बोर्ड की बैठक कब और कहां हुई, इसका कोई ज़िक्र उनकी प्रेस विज्ञप्ति में नहीं है। इस बारे में भाजपा के नेताओं या प्रवक्ताओं से भी कोई सवाल नहीं कर रहा है। टीवी चैनलों पर नव नियुक्त कार्यकारी अध्यक्ष नितिन नवीन का अनर्गल गुणगान हो रहा है। जिस व्यक्ति की बिहार में ही कोई ठीक-ठाक राजनीतिक पहचान नहीं है, उसे कुशल संगठक और ऊर्जावान नेता बताया जा रहा है। पहले कभी किसी ने नहीं कहा लेकिन अब कहा जा रहा है कि बतौर प्रभारी नितिन नवीन ने छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में भाजपा को जिताने में अहम भूमिका निभाई थी। सवाल यह भी है कि अगर नितिन नवीन इतने ही प्रभावशाली नेता हैं तो उन्हें इससे पहले बिहार में ही भाजपा का अध्यक्ष क्यों नहीं बना दिया गया? बिहार सरकार में भाजपा के दो उप मुख्यमंत्री हैं लेकिन नितिन नवीन को उप मुख्यमंत्री बनाने लायक भी क्यों नहीं समझा गया?

टीवी चैनलों पर नितिन नवीन को कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने को 'मोदी-शाह का मास्टर स्ट्रोक' बताते हुए कहा जा रहा है कि इससे पश्चिम बंगाल के चुनाव में भाजपा को बड़ा फायदा हो सकता है, क्योंकि नितिन नवीन कायस्थ समुदाय से आते हैं और बंगाल के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में इस समुदाय का काफी प्रभाव है। यह समुदाय बंगाल की राजनीति में पहले बहुत लंबे समय तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का समर्थक रहा और पिछले डेढ़ दशक से मोटे तौर पर तृणमूल कांग्रेस के साथ है। कहा जा रहा है कि नितिन नवीन बंगाल के कायस्थ समुदाय को भाजपा की ओर आकर्षित कर सकते हैं। हालांकि हकीकत यह है कि बंगाल के कायस्थों का उत्तर भारत के कायस्थों से सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर कोई मेल नहीं है।

बहरहाल गौरतलब यह भी है कि भाजपा के संविधान में कार्यकारी अध्यक्ष पद का कोई प्रावधान नहीं है। अलबत्ता पार्टी में अध्यक्ष की अनुपस्थिति में अंतरिम व्यवस्था के तौर पर कार्यवाहक अध्यक्ष नियुक्त किए जाने की परंपरा है, जिसके मुताबिक खुद जेपी नड्डा भी 2019 में कार्यवाहक अध्यक्ष बनाए गए थे और बाद में उन्हें पूर्णकालिक अध्यक्ष घोषित कर दिया गया था।

नड्डा से पहले एक बार 2001 में महज 10 दिन के लिए जना कृष्णमूर्ति कार्यवाहक बनाए गए थे। उस समय तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण एक स्टिंग ऑपरेशन में रिश्वत लेते पकड़े गए थे, जिसकी वजह से उन्हें हटा दिया गया था और उनके स्थान पर कृष्णमूर्ति को पहले कार्यवाहक अध्यक्ष और बाद में पूर्णकालिक अध्यक्ष बनाया गया था। इस समय तो ऐसी कोई स्थिति नहीं है। जेपी नड्डा अध्यक्ष बने हुए हैं, फिर भी उनके साथ एक कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया है। जाहिर है कि मोदी-शाह ने इस फैसले के जरिए न सिर्फ संघ को उसकी हैसियत बताई है, बल्कि मीडिया में अपने को भाजपा की राजनीति का जानकार समझने वाले उन लोगों को भी हास्यास्पद बना दिया है जो पिछले कई महीनों भाजपा अध्यक्ष पद के लिए दर्जन भर से ज्यादा नामों को दावेदार बता रहे थे।

मोदी-शाह ने इससे पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में मुख्यमंत्री चुनने के मामले में भी ऐसा ही किया था। उन्होंने इन प्रदेशों में संघ की पसंद को दरकिनार करते हुए अपनी पसंद के मुख्यमंत्री बनाए। यह सही है कि इन चारों राज्यों में जिन लोगों को मुख्यमंत्री बनाया गया है, उन सभी का संघ से जुड़ाव है लेकिन मुख्यमंत्री पद के लिए वे संघ नेतृत्व की पसंद कतई नहीं हैं।

दरअसल नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने अपनी हनक और मीडिया प्रबंधन के जरिये अपने कद को पार्टी से भी बड़ा बना लिया है। अब उन्हें पार्टी की आवश्यकता नहीं है बल्कि वे पार्टी की जरूरत बन गए हैं। अलबत्ता वे सरकार के स्तर पर संघ के एजेंडा के मुताबिक काम करने में कोई कोताही नहीं करते हैं। संघ को जहां जरूरत होती है, वहां सरकारी संसाधनों से भरपूर मदद भी मुहैया कराई जाती है, मगर सत्ता और संगठन में संघ की दखलंदाजी से उन्हें गुरेज़ है। नरेन्द्र मोदी अपने को पार्टी और संघ से किस तरह ऊपर मानते हैं, इसका अंदाजा 2024 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद उनके उस दुस्साहस से भी लगाया जा सकता है, जब उन्होंने भाजपा संसदीय दल में अपने को नेता चुनवाने की औपचारिकता पूरी किए बगैर ही एनडीए के संसदीय दल की बैठक बुलाकर उसमें अपने को एनडीए संसदीय दल का नेता निर्वाचित करा लिया था।

कुल मिलाकर चूंकि सत्ता व्यवस्था के हर अंग पर मोदी-शाह का लगभग पूरी तरह नियंत्रण होना उनके चुनाव जीतने की गारंटी बन चुका है, इसलिए संघ की राजी-नाराजी उनके लिए अब कोई मायने नहीं रखती। वे अब संघ की वैसी ही अनदेखी करते हैं, जैसी सत्ता-संचालन में संविधान की करते हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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