राम के नाम पर रोज़गार गारंटी का 'राम नाम सत्य'
भारत सरकार द्वारा संसद में मनरेगा को हटाकर, 'वी बी-जी राम जी' नाम से नया रोज़गार कानून लाया गया है

- गौरव जायसवाल
मनरेगा में काम की मांग ज़मीन से आती थी, लेकिन 'वी बी जी राम जी' के इस नए कानून में केन्द्र सरकार तय करेगी कि किस राज्य को कितना आबंटन होना है। अब एक प्रश्न यह है कि दिल्ली में बैठा बाबू कैसे तय करेगा कि राजस्थान में कितने वॉटर शेड बनने हैं या मध्यप्रदेश में कितने तालाब! यानी मूल तौर पर ये नया कानून कहता है कि अब बजट केन्द्र सरकार आधा ही देगी लेकिन फ़ैसले सारे दिल्ली में होंगे।
भारत सरकार द्वारा संसद में मनरेगा को हटाकर, 'वी बी-जी राम जी' नाम से नया रोज़गार कानून लाया गया है। जल्दबाजी में किये गये इस बदलाव पर संसद में विपक्ष द्वारा की गई बहस भी मनरेगा जैसे व्यापक कार्यक्रम के संदर्भ से बहुत ही कमज़ोर रही। जिससे ये ज़ाहिर होता है कि आज सत्ता के साथ विपक्ष में बैठे जनप्रतिनिधि भी ज़मीनी हक़ीक़त से कितने दूर हैं। जो बहस ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था, सामाजिकता और राजनीति पर हो सकती थी वह महात्मा गांधी के नाम को हटाने पर सीमित होकर रह गई। आने वाले समय में इसका खामियाजा देश के मज़दूरों को उठाना होगा।
दो दशकों के बाद हुए इस बदलाव के मद्देनजर ज़रूरी है कि एक बार मनरेगा के पूरे सफ़र को समझने की कोशिश की जाये और ये भी समझने की कोशिश की जाये कि नये कानून से क्या बदलेगा और कैसे बदलेगा। दरअसल, 2005 में मनरेगा एक कानून की तरह लाया गया। देखने में यह एक सरकारी योजना जैसा लगता है, लेकिन इसके पीछे की बड़ी सोच यह थी कि योजना के छोटे दायरे में रखने के बजाय इसे कानून बनाया जाये और इस तरह देश के हर ग्रामीण नागरिक को रोज़गार का कानूनन अधिकार इस बिल ने दिया। सरकारी योजना एक तरह से सरकारी कृपा की तरह लोगों तक पहुंचती है लेकिन मनरेगा अधिकार के रूप में लोगों तक पहुंचा। इसीलिए इसे रोज़गार सृजन कार्यक्रम की तरह न देखते हुए देश के हर ग्रामीण नागरिक के सशक्तिकरण के कदम की तरह देखा जाना चाहिये। यही कारण है कि इसे हटाने के लिए भी सरकार को आज संसद में इतना ज़ोर लगाना पड़ रहा है।
इससे पहले की ये समझा जाये के मनरेगा से क्या हुआ, पहले इस अंतर को समझते हैं कि मनरेगा कैसे संसद में पास हुआ था और 'वी बी जी राम जी' कैसे पास हुआ है! मनरेगा कानून का प्रारूप बनने से पहले 2003-04 में देश के कई ग्रामीण इलाकों में मज़दूर संगठनों द्वारा ऐसे एक कानून की मांग की मुहिम शुरू हुई, हालांकि ये मांग नई नहीं थी लेकिन पहली बार एक निर्णायक मांग की तरह जगह-जगह सामाजिक कार्यर्ताओं और मज़दूर संगठनों ने ऐसे कानून की तैयारी शुरू की। जिसके नतीज़तन जनांदोलनों द्वारा बनाए गए पहले प्रारूप को 2004 में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में प्रस्तुत किया गया, जहां इस पर पहली चर्चा हुई। फिर वहां से बिल प्रधानमंत्री कार्यालय पहुंचा, वहां से ग्रामीण विकास मंत्रालय और फिर लोकसभा में पेश हुआ। लोकसभा में आने के बाद मनरेगा का ये विधेयक संसद की स्थायी समिति में गया जहां फिर इसमें कई संशोधन किये गये।
यहां गौरतलब बात ये है कि तब इस समिति के मुखिया भाजपा सांसद कल्याण सिंह हुआ करते थे। समिति से आने के बाद सारे संशोधनों को शामिल करते हुए 2005 में जब ये कानून संसद से पास हुआ तो पूर्ण सर्वसम्मति से सभी दलों ने इसका समर्थन किया था। वहीं 'वी बी जी राम जी' के मामले में दिल्ली में बैठे अफ़सरों द्वारा तैयार प्रारूप को संसद के पटल पर रख दिया गया। जनता से राय-सुझाव मांगना तो दूर की बात है, यह प्रारूप स्थायी समिति को भी न भेजकर, विपक्ष के विरोध और नारेबाज़ी के बीच ध्वनि मत से पारित करवा दिया गया। जिन राज्य सरकारों से इसके अनुपालन में बजट की हिस्सेदारी अपेक्षित है उन तक से कोई संवाद नहीं किया गया। यानी एक तरफ मनरेगा ज़मीनी आवाज़ के तौर पर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से होकर संसद पहुंचा था वहीं 'वी बी जी राम जी' मुठ्ठी भर अफसरों का कारनामा है जिसे प्रधानमंत्री कार्यालय से होकर देश में लागू कर दिया गया है।
अब देखते हैं कि पिछले बीस सालों में मनरेगा से क्या देश को कोई फ़ायदा हुआ? 2005 में जब मनरेगा लागू हुआ, ये इतना व्यापक कानून था कि पूरे देश मे लागू होने में ही इसे लगभग तीन साल लगे। पहले वर्ष में जब ये नरेगा हुआ करता था तब बजट में 11.3 हज़ार करोड़ का पहला आबंटन हुआ। वहीं पिछले वित्तीय वर्ष में मनरेगा में 86 हज़ार करोड़ का आबंटन हुआ। इन पिछले बीस वर्षों में कुल लगभग साढ़े 10 लाख करोड़ रुपये अलग-अलग सरकारों द्वारा मनरेगा को आवंटित किये गये। इस साढ़े 10 लाख करोड़ से क्या हुआ- इसे यदि सतही तौर पर समझा जाये तो ग्रामीण क्षेत्रों में कई तालाब, ट्रेंच, वॉटर शेड, सड़क, शौचालय जैसे निर्माण कार्य हुए और इस प्रक्रिया में मज़दूरों को काम मिला। काम मिलने से संभवत: पलायन भी कम हुआ होगा। लेकिन मनरेगा जैसे व्यापक विचार को सिर्फ रोज़गार सृजन के कार्यक्रम की तरह देखना ही सबसे बड़ी चूक होगी। इसे एक आर्थिक नीति की तरह देखा जाना चाहिये जिसने ज़मीन पर कुछ सामाजिक और राजनैतिक प्रभाव भी पैदा किये।
पहला तो यह कि जो विशाल धनराशि मनरेगा में खर्च हुई, वह केंद्र सरकार की तिजोरी से सीधे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पहुंची, जिससे पिछले बीस वर्षों में भारत के गांवों में विकसित हो रहे बाज़ार को बड़ी बहुत बड़ी मदद मिली। मज़दूर के पास आए पैसे की विशेषता यह होती है कि वह रुकता नहीं है, सीधे बाज़ार में आता है और इसीलिए मनरेगा में खर्च हुए इस पैसे ने गांव-गांव में कपड़े, राशन किराना, हार्डवेयर, मोबाइल फोन जैसे व्यापार को बढ़ाया। आज गांवों कस्बों में जो हम ये दुकानें देखते हैं, उसमें मनरेगा के इस साढ़े 10 लाख करोड़ की बड़ी भूमिका है।
दूसरा बड़ा काम यह हुआ कि जैसे-जैसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पैसा बढ़ा, देश के गांव भी बड़े बाज़ार का हिस्सा होते गए। एक उदाहरण के तौर पर महिन्द्रा, फ़ोर्स मोटर्स, बजाज मोटर्स, हीरो जैसी बड़ी कंपनियां- जो बोलेरो, मार्शल, ट्रैक्स, तूफ़ान जैसे एसयूवी के मॉडल ग्रामीण भारत को ध्यान में रखकर बाज़ार में लाई, उनमें बम्पर सेल मिली। वहीं बजाज, हीरो और टीवीएस जैसी कंपनियों ने कम कीमत की मोटर साइकिलों की ज़ोरदार बिक्री गांवों में की। आज यही कंपनियां भारत में बनी अपनी गाड़ियां विदेशों को निर्यात करने लगी हैं जिससे देश की जीडीपी बढ़ती है और सरकार बढ़ती अर्थव्यवस्था के आंकड़े दिखा पाती है। इस वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा मनरेगा का यही बजट था।
तीसरा एक बड़ा काम यह हुआ कि ग्राम पंचायत एक संस्था के रूप में और सशक्त हुई। ग्राम पंचायतों को रोज़गार सहायक के रूप में एक सहयोगी मिला। आम नागरिकों और ग्राम पंचायतों के बीच संपर्क, संवाद और निर्भरता बढ़ी, जो ग्राम स्वराज की दिशा में बड़ा कदम रहा।
चौथा, लगभग सभी बड़े राज्यों में त्रिस्तरीय पंचायतों में महिलाओं का आरक्षण है, वहीं अनुसूचित क्षेत्रों में आरक्षण भी है जो इस व्यवस्था में हाशिये के समुदायों को प्रतिनिधित्व का मौका देता है। मनरेगा ने त्रिस्तरीय व्यवस्था में चुने हुए जनप्रतिनिधियों को जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और अनुसूचित जाति-जनजाति से आने वाले लोग हैं उन्हें पद के साथ आर्थिक निर्णय लेने की ताक़त दी। जिससे इन समुदायों से सक्षम नेतृत्व निकलने के रास्ते खुले।
पांचवा, मनरेगा की व्यवस्था में पारदर्शिता के लिए दो बड़ी बातें थीं एक था- सोशल ऑडिट, जो ग्रामीण नागरिकों को मनरेगा के अंतर्गत हुए कामों का पूरा हिसाब मांगने की ताक़त देता था। दूसरा, आज सरकार नये बिल में टेक्नालॉजी की दलील दी रही है, लेकिन मनरेगा का सूचना प्रबंधन तंत्र 2005 में ही इतना सक्षम था कि देश के हर गांव के हर मज़दूर को हुए भुगतान से लेकर काम की सारी वित्तीय जानकारी वेबसाइट में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध थी, जिसके लिए देश के किसी भी नागरिक को सूचना के अधिकार के तहत न कोई जानकारी मांगने की ज़रूरत थी, न किसी लॉग इन आईडी और पासवर्ड की।
हमारे संविधान की प्रस्तावना न्याय के संवैधानिक मूल्य के अंतर्गत जिन तीन तरह के न्याय की बात करती है- सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय और राजनैतिक न्याय, मनरेगा असल में इन तीनों पैमानों में देश के सबसे हाशिये के समुदायों को सशक्त करने की ओर एक कदम था। ऐसा नहीं है, कि मनरेगा में कोई समस्या नहीं थी। बीस वर्षों बाद समीक्षा और सुधार की बड़ी गुंजाइश भी बनी, लेकिन सरकार ने सुधार करने की जगह इसे बंद कर नया कानून लाना चुना है।
अब बात करते हैं नए कानून की। 'वी बी जी राम जी' नाम की इस नई व्यवस्था को सरकार जितने गुपचुप तरीके से लाई है, पहले तो यही बात आम नागरिकों के मन में संदेह पैदा करने पर्याप्त है। फिर भी बिंदुवार इसके दो आवश्यक पहलुओं को समझते हैं। इस नए कानून में एक सबसे बड़ा परिवर्तन यह है कि अब इसके क्रियान्वयन के लिए 40प्रतिशत तक का बजट राज्य सरकारों को देना है। अब इस समय जहां लाड़ली बहना योजना जैसे कार्यक्रमों के चलते राज्य सरकारें भयंकर वित्तीय दबाव से गुज़र रही हैं, बड़ा सवाल यह है कि ऐसे में क्या राज्य सरकारें धीरे-धीरे मांग कम दिखाते हुए रोज़गार सृजन के काम कम नहीं कर देंगी? दूसरा आज भी जो राज्य राजनैतिक द्वेष के चलते केंद्र सरकार से जीएसटी के अपने हिस्से के लिए संघर्ष करते नज़र आते हैं। इनमें बंगाल जैसे राज्य भी हैं जहां रोज़गार सृजन की आवश्यकता अधिक है। इसलिए इन राज्यों के मन में भी अब बड़ा संशय है।
मनरेगा में काम की मांग ज़मीन से आती थी, लेकिन 'वी बी जी राम जी' के इस नए कानून में केन्द्र सरकार तय करेगी कि किस राज्य को कितना आबंटन होना है। अब एक प्रश्न यह है कि दिल्ली में बैठा बाबू कैसे तय करेगा कि राजस्थान में कितने वॉटर शेड बनने हैं या मध्यप्रदेश में कितने तालाब! यानी मूल तौर पर ये नया कानून कहता है कि अब बजट केन्द्र सरकार आधा ही देगी लेकिन फ़ैसले सारे दिल्ली में होंगे।
महात्मा गांधी गुलाम भारत में कहते थे कि 'मैं सत्ता की ताक़त दिल्ली और कलकत्ता जैसे शहरों से छीन कर देश के छह लाख गांवों में बांट देना चाहता हूं' मनरेगा इसी सपने की ओर बढ़ा आज़ाद भारत का एक सुंदर कदम था जिसे अब उस नये क़ानून ने पलट दिया है। और ये नया कानून गांव के मज़दूर, व्यापारी, पंचायत प्रतिनिधि, ग्राम सचिव, रोजगार सहायक की शक्तियां छीन कर प्रधानमंत्री को देने की नीयत का लगता है।
(लेखक कृ षि एवं ग्रामीण विकास के क्षेत्र में सक्रिय हैं।)


