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छठ को पुरोहिती नहीं चाहिए

छठ ऐसा पर्व है जिसमें कुछ भी कृत्रिम नहीं होता और वह पुरोहित और पोथी के सहारे चलने वाला पर्व नहीं है

छठ को पुरोहिती नहीं चाहिए
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  • अरविन्द मोहन

छठ ऐसा पर्व है जिसमें कुछ भी कृत्रिम नहीं होता और वह पुरोहित और पोथी के सहारे चलने वाला पर्व नहीं है। इसमें बहुत एकरूपता है और कहीं भी स्वरूप और प्रक्रिया में अनेकता या अराजकता नहीं है लेकिन यह सब प्राय: अनपढ़ औरतें ही करती हैं, वही सीनियर बनने पर गाइड करती हैं, नया होने पर सास या मां का निर्देश लेकर लंबा व्रत करती हैं।

इस बार मन की बात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैसे ही छठ का जिक्र किया किसी को यह समझने में देर नहीं लगी कि उनकी श्रद्धा का मतलब बिहार के आगामी चुनाव है। उन्होंने छठी मैया का जिक्र करने के साथ यह संकेत भी दिया कि संयुक्त राष्ट्र जिन पर्वों-त्यौहारों को सांस्कृतिक धरोहर मानता है उसकी सूची में छठ को शामिल कराने की बात काफी आगे बढ़ चुकी है और संभव है कि इस बार यह घोषणा हो जाए। अगर अनिश्चितता होती तो प्रधानमंत्री इस तरह की बात नहीं करते। हम जानते हैं कि चुनाव छठ के ठीक बाद होने हैं। इसलिए छठ अपनी जगह महत्वपूर्ण है लेकिन इस घोषणा का समय अपनी जगह है। और अगर नरेंद्र मोदी का रिकार्ड देखें तो साफ है कि वे चुनाव लड़ने में आल आउट हो जाते हैं और कई बार सामान्य राजनैतिक मर्यादा की लक्ष्मण रेखा भी पार करते हैं। मुसलमानों के खिलाफ पिछले लोक सभा चुनाव में जिस तरह उन्होंने भाषण दिए वह प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति के लिए शोभा नहीं देता। छठ का मामला अलग है और अगर कोई लोक आस्था के इस पर्व और देवता के प्रति श्रद्धा प्रकट करता है, उसके सम्मान को बढ़ाने का प्रयास करता है तो यह पुरबिया और बिहारी समाज को पसंद ही आएगा।

लेकिन प्रधानमंत्री छठ के बुनियादी स्वभाव को नहीं जानते। छठ किसी पुरोहित और शास्त्र की जरूरत वाला पर्व नहीं है। यह लोक आस्था का पर्व है और प्रकृति से समाज के संबंध को बताने वाला, उसके प्रति अगाध आस्था रखने वाला और जरा भी चूक पर कोप का शिकार होने के डर के साथ मनाया जाने वाला पर्व है। इसमें मूल भावना से खिलवाड़ का सवाल ही नहीं उठता। यह जरूर है कि हाल के वर्षों में इसका चलन बहुत तेजी से बड़ा है और दुनिया भर में छठ के व्रती दिखने लगे हैं। विदेशों का हर भारतीय दूतावास आयोजन करता है और हर भारतीय ही नहीं बड़ा अंतरराष्ट्रीय शहर इसके आयोजन का स्थल बनाता है। छठ व्रत के सामान उपलब्ध रहते हैं और लोग उतनी ही पवित्रता और आस्था के साथ इस कठिन व्रत को पूरा करते हैं। शुरू में शिव सेना और मनसे जैसे हल्के राजनैतिक संगठनों ने मुंबई में इसके आयोजन का विरोध किया पर जल्दी ही व्रत की पवित्रता और आस्था के आगे सब नतमस्तक हुए। कई राज्य सरकारें उस दिन छुट्टी देने लगी हैं तो छठ घाटों के निर्माण में सहयोग भी। और बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश का तो कहना ही क्या है।

जब लोग हों, इतनी आस्था से जुटे हों और इतनी संख्या में हों तो वोट की राजनीति वाले इससे दूर कैसे हो सकते हैं? सो जैसे-जैसे छठ का महात्म बढ़ता गया है इसको लेकर राजनैतिक दलों और नेताओं का लोभ भी बढ़ता गया है। कई बार छठ पर सार्वजनिक छुट्टी और छठ घाटों और आसपास की सड़कों को सुधारने के सरकारी प्रयासों को भी इसी राजनीति से जुड़ा माना जाता है। और भाजपा के लोग इस मामले में कुछ ज्यादा ही कोशिश में लगे हैं। इस लेखक ने दिल्ली में भाजपा नेताओं द्वारा पुरबिया मतदाताओं को लुभाने के लिए बार-बार ऊटपटांग कोशिश करते देखा है। जैसे किसी ने कह दिया कि छठ घाट पर नाच गाना होता है और भौंडा नाच भी होता है। रात भर वहां रुके लोगों के लिए ही नहीं सारे समाज के जुटान पर नाच से जुड़े लोग अपने कौशल का प्रदर्शन करते हैं-किसी से पैसा नहीं लेते। पर दिल्ली में एक बड़े भाजपा नेता की कोठी पर बाजाप्ता भौंडा नाच आयोजित हुआ। किसी ने कह दिया कि छठ में पानी में खड़ा होना होता है तो एक बड़े नेता बरमूडा पहनकर ही जगह-जगह फोटो खिंचाते फिरे। किसी को बिहार जाने वाली गाड़ियां बढ़ाने या फ्लाइट का टिकट न बढ़ाने देने जैसे सामान्य प्रशासनिक काम याद नहीं आए।

भाजपा तीस साल दिल्ली की सत्ता से दूर रही तो इसे छठी मैया का क्रोध नहीं मानना चाहिए। यह जरूर हुआ कि यहां का पुरबिया समाज पहले कांग्रेस को और बाद में आप को अपना दल मानता रहा और भाजपा को परदेसी दल। छठ के प्रति आतुरतापूर्ण दिखावा समझने में उसे दिक्कत नहीं हुई और यह दृष्टि कहीं बाहर से नहीं आई। छठ ऐसा पर्व है जिसमें कुछ भी कृत्रिम नहीं होता और वह पुरोहित और पोथी के सहारे चलने वाला पर्व नहीं है। इसमें बहुत एकरूपता है और कहीं भी स्वरूप और प्रक्रिया में अनेकता या अराजकता नहीं है लेकिन यह सब प्राय: अनपढ़ औरतें ही करती हैं, वही सीनियर बनने पर गाइड करती हैं, नया होने पर सास या मां का निर्देश लेकर लंबा व्रत करती हैं। पंडित लोग ढूंढ-ढूंढकर थक गए लेकिन इसका कोई शास्त्रीय संदर्भ नहीं मिला है लेकिन कई सौ साल से यह इसी उत्साह और मजबूती से चलता रहा है। सब कुछ प्रकृति से नियंत्रित होता है और सब कुछ प्रकृति और स्थानीय मिट्टी का होता है। डूबते सूरज और उगते सूरज की पूजा ही नहीं होती, वही इसका सारा कार्यक्रम तय करते हैं। उस दिन ज्योतिषियों और पंडितों की स्थिति दयनीय लगती है। भगवान भक्त को सहारा देते हैं, भक्त उन पर दया नहीं करता। उन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं होती।

इसलिए अगर सरकारी प्रयास से संयुक्त राष्ट्र छठ को सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा देता है तो यह उसका अपना सम्मान बढ़ाएगा, छठा तो क्या ही भला होगा। और कोई नेता और सरकार यह करती है तो उसका भी भला होगा ही, लेकिन वह इसे चुनाव में इस्तेमाल करना चाहे तो उसका क्या नतीजा होगा? यह कहना मुश्किल लगता है। दिल्ली की चुनावी राजनीति का उदाहरण पहले दिया गया है। बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी यह प्रयास पहले हुआ है और छठ करने का एक तरीका भीख मांगकर पूजन सामग्री जुटाना है तो पूजन सामग्री का वितरण करके छठी मैया का आशीर्वाद पाना भी एक सच है। बड़े पैमाने पर यह काम होता है। लेकिन उसे आम तौर पर छठ आयोजन का हिस्सा माना जाता है, चुनाव की तैयारी नहीं। राजनैतिक महत्वाकांक्षा वाले लोग भी सामग्री वितरित करते हैं लेकिन वे स्पष्टत:चुनावी बात करने से बचना चाहते हैं। मन की बात में इसका जिक्र होना वैसी ही श्रद्धा और व्रत में सहयोग के काम से नहीं जोड़ा जा सकता।


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