शहरी जीवन की चुनौती : जन-स्वास्थ्य, पशु कल्याण और संतुलित सह-अस्तित्व
सुप्रीम कोर्ट ने किसी याचिका पर नहीं, बल्कि अपने स्तर परस्वत: संज्ञान लिया। वजह थी दिल्ली-एनसीआर में आवारा कुत्तों की बढ़ती संख्या, इनके काटने की घटनाओं और रेबीज़ जैसी घातक बीमारी से मौतों में इज़ाफा

- अरुण डनायक
समस्या के समाधान के लिए संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है। जन-सुरक्षा और पशु-कल्याण को एक साथ साधना असंभव नहीं है। इसके लिए कुछ ठोस कदम जैसे नगर निगमों को पर्याप्त फंड, स्टाफ और उपकरण देकर आवारा पशुओं की नसबंदी और टीकाकरण उठाने होंगे, बड़े निजी संस्थानों, एनजीओ और पशु कल्याण संगठनों को इस कार्य में शामिल किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने किसी याचिका पर नहीं, बल्कि अपने स्तर परस्वत: संज्ञान लिया। वजह थी दिल्ली-एनसीआर में आवारा कुत्तों की बढ़ती संख्या, इनके काटने की घटनाओं और रेबीज़ जैसी घातक बीमारी से मौतों में इज़ाफा। अदालत के सामने रखे गए आंकड़े चौंकाने वाले थे—2024 में देशभर में 37 लाख से अधिक कुत्ता काटने के मामले दर्ज हुए, दिल्ली में रोज़ औसतन 2000 घटनाएं, और वैश्विक रेबीज़ मौतों में भारत की हिस्सेदारी 36प्रतिशत। सुप्रीम कोर्ट ने दो सप्ताह के अन्दर जो फैसला सुनाया उस पर दो मत उभरे—एक, इसे जनता के लिए राहतकारी मानने वाला; दूसरा, इसे बेजुबानों पर क्रूरता कहने वाला।
शहरी और ग्रामीण भारत में केवल आवारा कु त्ते ही नहीं, बल्कि आवारा गाय, भैंस, बकरी, सुअर, बंदर, यहां तक कि मधुमक्खियों और कबूतरों तक ने जनजीवन को प्रभावित किया है। शहरों में गाय और भैंस सड़क पर बैठकर यातायात बाधित करती हैं। अचानक बीच सड़क पर दौड़ पड़ना, वाहनों से टकराना, या कूड़े के ढेर से प्लास्टिक खाना, यह आम दृश्य है। ग्रामीण इलाकों में खेतों में घुसकर फसल चौपट करने की समस्या भी गंभीर है। मधुमक्खियां एक ओर परागण और पर्यावरण के लिए जरूरी हैं, लेकिन कभी-कभी झुंड बनाकर बाजार, स्कूल या सरकारी दफ्तर में घुस आती हैं और डंक मारने से गंभीर हादसे हो जाते हैं। कबूतर बालकनियों, छतों और सरकारी इमारतों में स्थायी ठिकाना बना चुके हैं। दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, पुणे, भोपाल और जयपुर जैसे शहरों में कबूतरों की बढ़ी हुई संख्या अब उनकी पहचान बन गई है। इनका मल न केवल इमारतों को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि दमा, एलर्जी और फेफड़ों की गंभीर बीमारियों का कारण भी बनता है।
गाय, भैंस और कुत्ते तो सभ्यता के आरंभ से ही मनुष्य के साथी रहे हैं, पर कबूतरों का योगदान भी उल्लेखनीय है। माना जाता है कि 776 ईसा पूर्व में पहले ओलंपिक के परिणाम और नेपोलियन की वाटरलू में हार की खबर सबसे पहले कबूतरों ने ही पहुंचाई थी। भारत में अकबर के समय वे संदेशवाहक और कबूतरबाजी मनोरंजन दोनों के साधन थे, और आधुनिक फिल्मों में भी उनकी इसी क्षमता पर कई गीत रचे गए हैं।
ये सभी समस्याएं वर्षों से हैं, लेकिन इन्हें हल करने के बजाय हमने सहने की आदत डाल ली है—जब तक कोई हादसा न हो, तब तक व्यवस्था 'सक्रियÓ नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट का कुत्तों पर स्वत: संज्ञान स्वागतयोग्य है, लेकिन सवाल है—क्या बाकी समस्याएं कम गंभीर हैं?
न्यायपालिका का यह दायित्व है कि वह नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करे, लेकिन जब ऐसे मुद्दों पर अदालत को स्वत: संज्ञान लेना पड़ता है, तो यह कहीं न कहीं कार्यपालिका की निष्क्रियता का संकेत भी है। जन-स्वास्थ्य और जन-सुरक्षा के मुद्दे पर प्राथमिक जिम्मेदारी नगर निगम, राज्य सरकार और केंद्र सरकार की है। कुत्तों का मामला लें—क़ानून पहले से मौजूद हैं। एनिमल बर्थ कंट्रोल रूल्स के तहत नगर निकायों को आवारा कुत्तों की नसबंदी, टीकाकरण और पुनर्वास करना है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि नसबंदी की दर बेहद कम है। प्रशिक्षित कर्मचारियों और पशु चिकित्सकों की कमी है। शेल्टर होम सीमित हैं और उनमें भी अक्सर उचित देखभाल के संसाधन नहीं। फंड की कमी और भ्रष्टाचार के कारण योजनाएं अधूरी रह जाती हैं। यही स्थिति आवारा गाय-भैंस और कबूतर नियंत्रण के प्रयासों में भी है।
हमारे समाज में पशुओं के प्रति गहरी भावनात्मक और धार्मिक संवेदनाएं जुड़ी हैं। गाय को माता का दर्जा दिया जाता है, कबूतरों को दाना डालना पुण्य का कार्य माना जाता है, कुत्ते को वफादारी का प्रतीक समझा जाता है। मधुमक्खी शहद और परागण के लिए उपयोगी मानी जाती है। लेकिन जब भावनाएं व्यावहारिकता पर हावी हो जाती हैं, तो समस्याएं बढ़ने लगती हैं। उदाहरण के लिए—आवारा गायों को गौशालाओं में रखने के लिए पर्याप्त भूमि और संसाधन नहीं जुटाए जाते। कुत्तों को पकड़ने और नसबंदी करने की कोशिशों का विरोध स्थानीय स्तर पर हो जाता है। कबूतरों को दाना डालने की परंपरा के कारण उनकी संख्या असंतुलित रूप से बढ़ जाती है।
समस्या के समाधान के लिए संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है। जन-सुरक्षा और पशु-कल्याण को एक साथ साधना असंभव नहीं है। इसके लिए कुछ ठोस कदम जैसे नगर निगमों को पर्याप्त फंड, स्टाफ और उपकरण देकर आवारा पशुओं की नसबंदी और टीकाकरण उठाने होंगे, बड़े निजी संस्थानों, एनजीओ और पशु कल्याण संगठनों को इस कार्य में शामिल किया जाए। लोगों को समझाया जाए कि बिना योजना के पशुओं को भोजन कराना उनके लिए भी हानिकारक हो सकता है। गाय, कुत्ते, भैंस, कबूतर—सभी के लिए प्रजाति-विशेष आश्रयस्थल बनाए जाएं। मधुमक्खियों या अन्य अचानक उत्पन्न होने वाली पशु-समस्याओं के लिए त्वरित प्रतिक्रिया दल हों, जो सुरक्षित तरीके से उन्हें हटाए या नियंत्रित करे।
बढ़ती पर्यावरण जागरूकता के साथ सह-अस्तित्व की आवश्यकता और स्पष्ट हो रही है, क्योंकि पशु भी हमारे पारिस्थितिकी तंत्र का अभिन्न हिस्सा हैं। उनका अस्तित्व न केवल नैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि व्यावहारिक दृष्टि से भी—मधुमक्खियां, गाय-भैंस ग्रामीण अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं, कुत्ते गार्ड और साथी हो सकते हैं, कबूतर भी जैव विविधता में योगदान करते हैं। लेकिन यह सह-अस्तित्व संतुलित होना चाहिए। जब किसी प्रजाति की बढ़ोतरी मानव और अन्य जीवों के लिए खतरा बने, तो उसका नियंत्रण जरूरी है।अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी का मानना था कि मनुष्यों को हानि पहुंचाने वाले सर्पों और बंदरों के विरुद्ध की जाने वाली कार्रवाई हिंसा नहीं है। यह नियंत्रण विज्ञान, नीति और समुदाय की सहभागिता से आना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का स्वत: संज्ञान एक चेतावनी है—कि हम समस्याओं को तब तक टालते हैं जब तक वे अदालत के दरवाजे तक न पहुंच जाएं। चाहे आवारा कुत्ते, सड़क पर गाय-भैंस, बालकनियों के कबूतर या उड़ते मधुमक्खियां—ये सब हमारी साझा जिम्मेदारी हैं। समाधान तभी संभव है जब सरकार, कार्यपालिका, न्यायपालिका, पशुपालक, और आम जनता सब मिलकर काम करें। हमें यह तय करना होगा कि हम केवल भावनाओं के आधार पर प्रतिक्रिया देंगे या विवेक और व्यावहारिकता के आधार पर निर्णय लेंगे। क्योंकि अंतत:, एक ऐसा शहर ही आदर्श है जहां इंसान न डर में जिए, न पशु भूख और असुरक्षा में। सह-अस्तित्व का अर्थ यही है—सम्मान और संतुलन, न कि टकराव और असहजता।
( लेखक गांधी विचारों के अध्येता और समाज सेवी हैं )


