तालिबान और मनुवाद साथ-साथ
भारत दौरे पर आए तालिबान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताक़ी की शुक्रवार को हुई प्रेस कॉफ्रेंस में किसी भी महिला पत्रकार का शामिल न होना कई सवाल खड़े कर गया

- सर्वमित्रा सुरजन
तालिबान ने सत्ता में आने के अपने पहले ही हफ़्ते में ज़्यादातर सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं के काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया था, केवल उन्हीं महिलाओं को काम करने की इजाज़त दी गई जिनकी जगह पुरुष नहीं ले सकते थे। एक महीने के अंदर ही, उन्होंने किशोर लड़कियों को माध्यमिक स्कूल जाने से रोक दिया। इसके तुरंत बाद, महिलाओं को अकेले यात्रा करने से मना कर दिया गया—यहां तक कि क्लिनिक जाने से भी।
भारत दौरे पर आए तालिबान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताक़ी की शुक्रवार को हुई प्रेस कॉफ्रेंस में किसी भी महिला पत्रकार का शामिल न होना कई सवाल खड़े कर गया। यह मुद्दा आया गया हो जाता, अगर कुछ महिला पत्रकारों ने इस पर आपत्ति न जताई होती। सोशल मीडिया पर तालिबान सरकार के नुमाइंदे की स्त्रीविरोधी नजरिया रखने के लिए आलोचना हुई ही, मोदी सरकार पर भी सवाल उठे कि क्या वह भी तालिबान के इस रवैये से सहमत हैं। हालांकि विदेश मंत्रालय ने इससे बड़े अजीब से तर्क के साथ पल्ला झाड़ा कि यह प्रेस कांफ्रेंस अफ़ग़ानिस्तान के दूतावास में हुई और इसमें उसकी कोई भूमिका नहीं है। मान लिया कि अफ़ग़ान दूतावास के भीतर कामों में दखल का कोई हक विदेश मंत्रालय को नहीं है, लेकिन अपने देश के मूल्यों और सिद्धांतों का खुलकर साथ देने का हक भी क्या विदेश मंत्रालय को नहीं है। जो आपत्ति महिला पत्रकारों ने पहले उठाई और बाद में विपक्ष के नेता भी उसमें साथ आए, वही आपत्ति विदेश मंत्रालय को उठाने में आखिर झिझक क्यों थी। क्यों मंत्रालय ने खुल कर यह नहीं कहा कि इस देश में सबको बराबरी का अधिकार है, और महिला पत्रकारों के साथ यह भेदभाव अस्वीकार्य है। हैरानी की बात यह है कि भाजपा के भी किसी बड़े नेता, मंत्री ने इस पर मुंह नहीं खोला। मानो इस लैंगिक समानता के मुद्दे में उसकी कोई दिलचस्पी ही नहीं है।
बहरहाल, इस मामले पर जब तालिबान के मंत्री अमीर खान मुत्ताक़ी की भरपूर आलोचना सोशल मीडिया पर हुई, तो अफ़ग़ान दूतावास का भी जवाब आया कि तकनीकी खामी की वजह से ऐसा हुआ, किसी को भी जानबूझ कर बाहर नहीं रखा गया था। अब ये तकनीकी खामी क्या थी, जरा इसे भी समझ लीजिए, अफ़ग़ान दूतावास के मुताबिक उनके पास कोई प्रेस अधिकारी नहीं है और प्रेस कांफ्रेंस जल्दबाजी में आयोजित हुई, उन्हें नहीं पता कि सब तक कैसे पहुंचा जाए। किसी तरह, वे सिफ़र् पुरुषों तक ही पहुंच पाए। बता दूं कि महिला पत्रकारों को बाहर रखने का यही सवाल रविवार को दूसरी प्रेस कांफे्रं स में भी उठा था, जिस पर खुद मुत्ताक़ी ने भी यही कहा था कि प्रेस कॉन्फ्रेंस शॉर्ट नोटिस पर की गई थी और आमंत्रित पत्रकारों की एक छोटी लिस्ट पेश की गई थी, वो बहुत विशिष्ट थी। यह एक तकनीकी मुद्दा था। हमारे सहयोगियों ने पत्रकारों की एक विशेष सूची को निमंत्रण भेजने का फ़ैसला किया था, इसके अलावा कोई और इरादा नहीं था।'
इस जवाब को मासूम भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह महिलाओं को चारदीवारी में कैद रखने की शातिराना सोच से उपजा जवाब है। अफ़ग़ान दूतावास अपने रोजमर्रा के संचालन के लिए कई स्तरों पर विदेश मंत्रालय से संपर्क में रहता होगा, अगर वो चाहता तो प्रेस कांफ्रेंस के लिए सीधे-सीधे विदेश मामले देखने वाले पत्रकारों की सूची मांगता और आराम से सारे पत्रकारों से संपर्क करता। लेकिन महिलाओं का जो बुरा हाल तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में किया है, उसकी झलक यहां भी दिखाने की कोशिश तालिबान ने की और सबसे ज्यादा दुख की बात ये है कि मोदी सरकार ने अपनी रणनीतिक सुविधा के लिए उस कोशिश को कामयाब होने दिया। हालांकि देश में लोकतंत्र अब भी कायम है तो इस फैसले का पुरजोर विरोध हुआ, जिसके बाद रविवार को फिर से मुत्ताक़ी ने प्रेस कांफ्रेंस की और इस बार सारे पत्रकारों की सूची भी मिल गई, जिनमें महिलाओं का भी नाम था। कई तस्वीरें आई हैं, जिनमें महिलाएं पहली पंक्ति में बैठकर मुत्ताक़ी से सवाल कर रही हैं। लेकिन क्या इन तस्वीरों को सुखांत कहा जा सकता है। क्या अंत भला तो सब भला कहकर एक बड़े गंभीर मुद्दे को खत्म करना उचित होगा। याद रखिए कि मुत्ताक़ी की पहली प्रेस कांफ्रेंस में जब सारे पुरुष पत्रकारों को ही बुलाया गया, तो इनमें से किसी ने भी तब इस पर आपत्ति नहीं की कि उनकी महिला साथियों को बाहर क्यों रखा गया है। अगर की हो, तो इसकी जानकारी सामने नहीं आई है। अगर ये 16 पुरुष पत्रकार महिला पत्रकारों के साथ एकजुटता दिखाते हुए तालिबानी विदेश मंत्री का बहिष्कार करते, तब सोचिए कैसा बढ़िया संदेश दुनिया में जाता। प्रेस स्वतंत्रता इंडेक्स में तो भारत मोदी सरकार के रवैये के कारण पिछड़ता ही जा रहा है, लेकिन कम से कम एक मजबूती यहां दिखाई जा सकती थी। अफ़सोस कि वहां मौजूद पुरुष पत्रकार एक ऐतिहासिक पल रचने से चूक गए।
बहरहाल, रविवार की प्रेस कांफ्रेंस में मुत्ताक़ी से एक सवाल तो महिलाओं को बाहर रखने पर हुआ ही, जिसका जवाब आप ऊपर पढ़ चुके हैं, फिर उनके सामने आया वो सवाल जिसकी वजह से वो महिला पत्रकारों को बाहर रखना चाहते थे। मुत्ताक़ी से सवाल किया गया, 'आप देवबंद गए वहां और ईरान, सीरिया और सऊदी में महिलाओं और लड़कियों को पढ़ने से नहीं रोका जाता है, उन्हें स्कूल और कॉलेज जाने से नहीं रोका जाता है, आप अफ़ग़ानिस्तान में ऐसा क्यों कर रहे हैं? अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं को शिक्षा का अधिकार कब मिलेगा?'
अमीर ख़ान मुत्ताक़ी ने जवाब दिया, 'इसमें कोई शक नहीं कि अफ़ग़ानिस्तान के उलेमाओं, मदरसों और देवबंद के साथ संबंध शायद दूसरों से ज़्यादा हैं। शिक्षा के संदर्भ में, इस समय हमारे स्कूलों और दूसरे शैक्षणिक संस्थानों में एक करोड़ छात्र पढ़ रहे हैं, जिनमें से 28 लाख महिलाएं और लड़कियां हैं। धार्मिक मदरसों में यह शिक्षा स्नातक स्तर तक उपलब्ध है। कुछ ख़ास हिस्सों में कुछ सीमाएं हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम शिक्षा का विरोध करते हैं। हमने इसे (शिक्षा को) धार्मिक रूप से 'हराम' घोषित नहीं किया है, लेकिन इसे दूसरे आदेश तक के लिए स्थगित कर दिया गया है।
तालिबान से ऐसे ही किसी जवाब की उम्मीद थी। लेकिन भारत में जहां खुद मोदी ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा दिया हुआ है, वहां क्या अब तालिबानी सोच को सार्वजनिक स्वीकृति दी जाएगी, ये एक बड़ी चिंता उठ गई है। जिस शिक्षा को तालिबान ने धार्मिक तौर पर हराम घोषित न करने की बात कहकर भी दूसरे आदेश तक लड़कियों के लिए स्थगित किया हुआ है, वैसी ही मानसिकता मनुस्मृति में यकीन रखने वालों की है। जिनके लिए महिलाओं की उपयोगिता गृहस्थी संभालने और प्रजनन कार्य तक ही सीमित है। ये महिलाओं को हाड़-मांस का इंसान नहीं निजी संपत्ति समझते हैं। इसलिए महिलाओं को दो से अधिक बच्चे पैदा करने या ताउम्र परिजनों की सेवा में बिताने की नसीहत देते हैं।
याद रहे कि तालिबान ने सत्ता में आने के अपने पहले ही हफ़्ते में ज़्यादातर सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं के काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया था, केवल उन्हीं महिलाओं को काम करने की इजाज़त दी गई जिनकी जगह पुरुष नहीं ले सकते थे। एक महीने के अंदर ही, उन्होंने किशोर लड़कियों को माध्यमिक स्कूल जाने से रोक दिया। इसके तुरंत बाद, महिलाओं को अकेले यात्रा करने से मना कर दिया गया—यहां तक कि क्लिनिक जाने से भी। अब उन्हें सार्वजनिक पार्कों, जिम और विरोध प्रदर्शनों में जाने से रोक दिया गया है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान में हर पांच में से चार महिला पत्रकारों ने अपनी नौकरी खो दी है। जो बची हैं उन्हें धमकियों, उत्पीड़न, अवैतनिक काम और सेंसरशिप का सामना करना पड़ रहा है। कम से कम 19 प्रांतों में, कोई भी महिला पत्रकार आधिकारिक तौर पर काम नहीं कर रही है।
पत्रकार जेहरा नादिर के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान मीडिया सपोर्ट ऑर्गनाइज़ेशन की 2025 की रिपोर्ट में 100 महिला पत्रकारों का सर्वेक्षण किया गया था, जिसमें खुलासा हुआ कि केवल 7 प्रतिशत अफ़ग़ान महिला पत्रकार ही अब भी खुले तौर पर काम कर सकती हैं, जबकि 33 प्रतिशत गुप्त रूप से काम करती हैं और 42 प्रतिशत ने पत्रकारिता पूरी तरह से छोड़ दी है। दो-तिहाई से ज़्यादा महिला पत्रकारों ने सेंसरशिप या धमकी की शिकायत की है।
यह संयोग ही है कि आमिर खान मुत्ताक़ी जब भारत दौरे पर थे, उन्हीं दिनों 8 से 10 अक्टूबर तक, मैड्रिड में अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं के लिए जन न्यायाधिकरण की बैठक हुई, जहां 24 अफ़ग़ान महिलाओं ने अंतरराष्ट्रीय न्यायाधीशों के एक पैनल के समक्ष गवाही दी। उनकी गवाही तालिबान शासन पर तीखे अभियोग थे। न्यायाधीशों ने अपने प्रारंभिक निष्कर्षों में स्वीकार किया कि महिलाओं के साथ तालिबान का व्यवहार लैंगिक उत्पीड़न के समान है, जो मानवता के विरुद्ध अपराध है।
मैड्रिड में गवाही देने वालों में एक पूर्व अफ़ग़ान टेलीविजन निर्माता भी शामिल थीं। उन्होंने बताया कि कैसे तालिबान की वापसी के बाद, महिलाओं को पहले 'बजट कटौती' के बहाने न्यूज़रूम से निकाल दिया गया, और फिर धीरे-धीरे मीडिया परिदृश्य से गायब कर दिया गया। जब उन्होंने और अन्य महिला पत्रकारों ने अपने बहिष्कार का विरोध करने के लिए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करने की कोशिश की, तो तालिबान बलों ने कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही कार्यक्रम स्थल पर धावा बोल दिया। उन्हें एक कमरे में बंद कर धमकी दी कि अगर हमने दोबारा मुंह खोला तो हमें जेल भेज दिया जाएगा।' उस रात, वह घर नहीं लौटीं। तालिबान बलों ने उनके घर पर धावा बोला और उन्हें ढूंढ़ते हुए उनके पति और बेटे की पिटाई की। उन्होंने कहा, 'आज मैं नकाब पहनकर बोल रही हूं, फिर भी मुझे डर लग रहा है। महिलाओं को बोलने की इजाज़त नहीं है। वे हमसे कहते हैं, 'अपनी आवाज़ मत उठाओ, यह मना है; अपना चेहरा ढंक लो।' लड़कियों को ज़बरदस्ती उठाकर गायब कर दिया जाता है, जबकि लोग डर के मारे चुप रहते हैं। कृपया, हमारी आवाज़ उन सभी तक पहुंचाएं जो हमें सुनने की ताकत रखते हैं।'
इस अपील को केवल अफ़ग़ानिस्तान की पीड़ित, दमित महिलाओं तक सीमित रखकर नहीं देखा जा सकता। वास्तव में जहां भी इस किस्म का उत्पीड़न हो रहा है, वह मानवाधिकारों का घोर हनन है। इसे नजरंदाज करना मानवता के खिलाफ अपराध है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत में दोबारा ऐसे अपराध के लिए जगह बनने नहीं दी जाएगी।


