Top
Begin typing your search above and press return to search.

शहीदों के बलिदान की खिल्ली उड़ाई थी आरएसएस ने

स्वतंत्रता आंदोलन और संघ-2

शहीदों के बलिदान की खिल्ली उड़ाई थी आरएसएस ने
X
  • अनिल जैन

आज जो लोग सत्ता में बैठे हैं, उनके वैचारिक पुरखों का स्वाधीनता आंदोलन से रत्ती भर जुड़ाव नहीं था। उस दौर में उनकी सारी गतिविधियां स्वाधीनता आंदोलन के खिलाफ चलती थीं। यानी वे भारत को ब्रिटिश हुकू़ मत से आज़ाद कराने के खिलाफ़ थे। इसलिए आज वे कभी आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हैं तो कभी घर-घर तिरंगा लहराने और तिरंगा यात्राएं निकालने जैसे प्रहसन रचते रहते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपने को आज़ादी की लड़ाई से सिर्फ अलग ही नहीं रखा, बल्कि आजादी के लिए बलिदान करने वाले लोगों की तिरस्कारपूर्वक खिल्ली भी उड़ाई थी। उसकी निगाह में ऐसे लोग बहुत ऊंचा स्थान नहीं रखते थे। उसका मानना था कि जिन लोगों ने संघर्ष करते हुए अपना बलिदान कर दिया है, निश्चित रूप से उनमें कोई त्रुटि रही होगी।

जो भी व्यक्ति स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के प्रति अपने मन में श्रद्धा और सम्मान रखता है, उसके लिए यह बात कितनी कष्टदायक हो सकती है कि आरएसएस अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी जान की बाजी लगाने वाले वाले शहीदों को उपेक्षापूर्ण निगाहों से देखता था। एमएस गोलवलकर ने शहीदी परम्परा पर अपने मौलिक विचारों को अपनी पुस्तक में इस तरह रखा- 'नि:संदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आपको बलिदान कर देते हैं, श्रेष्ठ हैं और वे उन सर्वसाधारण व्यक्तियों से बहुत ऊंचे हैं जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत व अकर्मण्य बने रहते हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे, नहीं माना है। क्योंकि अंतत: वे अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।' (विचार नवनीत, पृष्ठ 281)

गोलवलकर के इन विचारों से स्पष्ट होता है कि आरएसएस का एक भी स्वयंसेवक अंग्रेजों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए शहीद होना तो दूर, जेल भी नहीं गया। यह भी गौरतलब है कि 1925 से लेकर 1947 तक आरएसएस के पूरे साहित्य में एक वाक्य भी ऐसा नहीं है, जिसमें जालियांवाला बाग जैसी बर्बर दमनकारी घटनाओं की भर्त्सना हो। आरएसएस के समकालीन दस्तावेज़ों में भी भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा फांसी दिए जाने के खिलाफ़ किसी भी तरह के विरोध का रिकार्ड नहीं है।

विनायक दामोदर सावरकर को अपना प्रेरणा पुरुष बताने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी चुनाव के मौके पर अपने को सुभाषचंद्र बोस की विरासत से जोड़ने की फूहड़ कोशिश भी करते रहते हैं, पर वे इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि जिस समय सुभाषचंद्र बोस सैन्य संघर्ष के जरिए ब्रिटिश हुकूमत को भारत से उखाड़ फेंकने रणनीति बुन रहे थे, ठीक उसी हिंदू महासभा के नेता सावरकर ब्रिटेन को युद्ध में हर तरह की मदद पहुंचा रहे थे। यहां यह भी याद रखा जाना चाहिए कि इससे पहले सावरकर माफीनामा देकर इस शर्त पर जेल से छूट चुके थे कि वे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ किसी भी तरह की गतिविधि में शामिल नहीं होंगे और हमेशा उसके प्रति वफादार बने रहेंगे। इस शर्त पर उनकी न सिर्फ जेल से रिहाई हुई थी बल्कि उन्हें 60 रुपए प्रति माह पेंशन भी अंग्रेज हुकू मत से प्राप्त होने लगी थी।

1941 में बिहार के भागलपुर में हिंदू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने ब्रिटिश शासकों के साथ सहयोग करने की नीति का ऐलान किया था। उन्होंने कहा था, 'देश भर के हिंदू संगठनवादियों (हिंदू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिंदुओं को हथियारबंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुंची है, वह एक ख़तरा भी है और एक मौका भी।' इसके आगे सावरकर ने कहा था, 'सैन्यीकरण को तेज किया जाए और हर गांव-शहर में हिंदू महासभा की शाखाएं हिंदुओं को थल सेना, वायु सेना व नौसेना में तथा सैन्य सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़ा जाए।'

इससे पहले 1940 के मदुरै अधिवेशन में सावरकर ने अपने भाषण में बताया था कि पिछले एक साल में लगभग एक लाख हिंदुओं को अंग्रेजों की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफल हुए हैं। जब आज़ाद हिंद फौज जापान की मदद से अंग्रेजी सेना को हराती हुई पूर्वोत्तर में दाखिल हुई तो उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने अपनी उसी सैन्य टुकड़ी को आगे किया था, जिसके गठन में सावरकर ने अहम भूमिका निभाई थी।

लगभग उसी दौरान यानी 1941-42 में सुभाष बाबू के बंगाल में सावरकर की हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। हिंदू महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी उस साझा सरकार में वित्त मंत्री थे। उस सरकार के प्रधानमंत्री मुस्लिम लीग के नेता ए.के. फ़जलुल हक़ थे। अहम बात यह है कि फ़जलुल हक ने ही पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव 23 मार्च, 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर सम्मेलन में पेश किया था।

हिन्दू महासभा ने सिर्फ भारत छोड़ो आंदोलन से ही अपने आपको अलग नहीं रखा था, बल्कि श्यामाप्रसाद ने ही पत्र लिखकर अंग्रेजों से कहा था कि 'कांग्रेस की अगुवाई में चलने वाले इस आंदोलन को सख्ती से कुचला जाना चाहिए।' मुखर्जी ने 26 जुलाई, 1942 को बंगाल के गवर्नर सर जॉन आर्थर हरबर्ट को लिखे पत्र में कहा था, 'कांग्रेस द्वारा बड़े पैमाने पर छेड़े गए आंदोलन के फलस्वरूप प्रांत में जो स्थिति उत्पन्न हो सकती है, उसकी ओर मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं।' मुखर्जी ने उस पत्र में आंदोलन को सख्ती से कुु चलने की बात कहते हुए इसके लिए कुछ जरूरी सुझाव भी दिए थे। उन्होंने लिखा था, 'सवाल यह है कि बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन को कैसे रोका जाए। प्रशासन को इस तरह काम करना चाहिए कि कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आंदोलन प्रांत में अपनी जड़ें न जमा सके। इसलिए लोगों को सभी मंत्री यह बताएं कि कांग्रेस ने जिस आज़ादी के लिए आंदोलन शुरू किया है, वह लोगों को पहले से ही हासिल है।'

जहां तक राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का सवाल है, सत्ता का स्वाद चखने के बाद पिछले कुछ सालों से भले ही आरएसएस तिरंगे के प्रति प्रेम जताने लगा हो और उसके मुख्यालय पर भी तिरंगा फहराया जाने लगा हो, मगर हकीकत यह है कि आजादी से पहले और आजादी मिलने के बाद कई वर्षों तक आरएसएस तिरंगे के प्रति हिकारत जताता रहा है। दिसम्बर, 1929 में कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन मे पूर्ण स्वराज को राष्ट्रीय ध्येय घोषित करते हुए लोगों का आह्वान किया था कि 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराएं और स्वतंत्रता दिवस मनाएं। इसके जवाब में आरएसएस के संस्थापक मुखिया हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी करके तमाम शाखाओं को भगवा झंडा राष्ट्रीय झंडे के तौर पर पूजने के निर्देश दिए थे।

आजादी की पूर्व संध्या पर जब दिल्ली के लाल किले से तिरंगा झण्डा लहराने की तैयारी चल रही थी, तब आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र 'आर्गनाइज़र' के 14 अगस्त, 1947 के अंक में राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे के चयन की खुलकर निंदा की थी। आर्गेनाइज़र के संपादकीय में लिखा गया था-'जो लोग किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं, वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न तो इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा और न ही अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हो, बेहद ख़राब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदायक होगा।'

इस बारे में खुद गोलवलकर ने अपने एक लेख 'पतन ही पतन' में लिखा, 'उदाहरण स्वरूप हमारे नेताओं ने हमारे राष्ट्र के लिए एक नया ध्वज निर्धारित किया है। यह पतन की ओर बहने और नकलचीपन का प्रमाण है।' अपने इसी लेख में गोलवलकर ने उस सोच की खिल्ली उड़ाई, जिसके तहत तिरंगे को भारत की एकता का प्रतीक मानकर राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया।

तिरंगे झंडे की तरह ही भारत के संविधान के प्रति भी आरएसएस ने हमेशा हिकारत का भाव रखा, जिसकी झलक मौजूदा सरकार के क्रियाकलापों में भी अक्सर दिखती है। भारत की संविधान सभा ने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान का अनुमोदन करके देश को एक तोहफा दिया। आरएसएस ने चार दिन बाद ही अपने मुखपत्र 'आर्गेनाइजर' (नवम्बर 30) में एक सम्पादकीय लिखकर इसके स्थान पर घोर जातिवादी, छुआछूत की झंडाबरदार, औरत और दलित विरोधी मनुस्मृति को लागू करने की मांग की।

उपरोक्त तमाम तथ्य साबित करते हैं कि आज जो लोग सत्ता में बैठे हैं, उनके वैचारिक पुरखों का स्वाधीनता आंदोलन से रत्ती भर जुड़ाव नहीं था। उस दौर में उनकी सारी गतिविधियां स्वाधीनता आंदोलन के खिलाफ चलती थीं। यानी वे भारत को ब्रिटिश हुकू़ मत से आज़ाद कराने के खिलाफ़ थे। इसलिए आज वे कभी आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हैं तो कभी घर-घर तिरंगा लहराने और तिरंगा यात्राएं निकालने जैसे प्रहसन रचते रहते हैं। उनका ऐसा करना अपने पुरखों के पापों पर परदा डालने का हास्यास्पद प्रयास ही कहा जा सकता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

(समाप्त)


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it