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गज़ा में फिर बमबारी के कारण शांति की संभावनाएं क्षीण

इजरायल ने 1967 में पूर्वी यरुशलेम, वेस्ट बैंक और गज़ा पर जबरन कब्जा कर संयुक्त राष्ट्र की इस योजना का उल्लंघन किया

गज़ा में फिर बमबारी के कारण शांति की संभावनाएं क्षीण
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- वाप्पला बालाचंद्रन

इजरायल ने 1967 में पूर्वी यरुशलेम, वेस्ट बैंक और गज़ा पर जबरन कब्जा कर संयुक्त राष्ट्र की इस योजना का उल्लंघन किया। तब से अरब भूमि पर इज़रायल अवैध यहूदी बस्तियों का विकास कर रहा

है और फिलिस्तीनियों को जबरन बेदखल कर रहा है तथा उन्हें शरणार्थी बता रहा है।

हमास ने 19 अगस्त को कहा कि गज़ा सिटी पर योजनाबद्ध प्रमुख इज़रायली हमले से पहले वार्ता को नवीनीकृत करने के लिए 17 तारीख को कतर और मिस्र द्वारा प्रस्तुत नए युद्धविराम प्रस्ताव को उसने स्वीकार कर लिया है। ये प्रस्ताव ज्यादातर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दूत स्टीव विटकॉफ की योजना पर आधारित हैं जिन पर इज़रायल ने कथित तौर पर सहमति व्यक्त की थी। इसके परिणामस्वरूप कतर और मिस्र ने हमास पर प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए दबाव डाला हालांकि हमास द्वारा शांति स्वीकार करने के एक दिन बाद ही 20 अगस्त को इजरायल ने गज़ा सिटी पर बमबारी की और ऐसा लगता है कि वह बड़े पैमाने पर आक्रमण की अपनी नीति के साथ आगे बढ़ रहा है। इजरायल के इस कदम से कतर-मिस्र शांति योजना का परिणाम अनिश्चित हो गया है।

प्रस्ताव में आजीवन कारावास की सजा काट रहे क्रमश: 140 कैदियों और 15 साल से अधिक की सजा काट रहे 60 फिलिस्तीनी कैदियों के बदले में 10 जीवित इजरायली बंधकों की रिहाई और 18 मृतक इजरायली नागरिकों के शवों की वापसी का प्रस्ताव रखा गया है। इज़रायल सभी फिलिस्तीनी नाबालिगों और महिला कैदियों को भी रिहा करेगा। एक युद्धविराम प्रभावी रहेगा जिसके दौरान विटकॉफ प्रस्ताव में निर्दिष्ट नियमों के अनुसार इज़रायली सेना फिर से तैनात होगी और गज़ा आबादी को मानवीय सहायता दी जाएगी।

17 अगस्त को तेल अवीव में लगभग 4 लाख इज़रायलियों के बड़े पैमाने पर प्रदर्शन के दौरान यह प्रगति हुई जिसे पूरे देश में जमीनी स्तर पर की गई लगभग 10 लाख लोगों की हड़ताल का समर्थन प्राप्त था। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा कि उन्होंने कतर-मिस्र प्रस्ताव के बारे में सुना था लेकिन इतामार बेन-ग्वीर जैसे कट्टरपंथियों ने इस विचार का विरोध किया। हालांकि इज़रायल के रक्षा बलों (आईडीएफ) के पूर्व प्रमुख और पूर्व रक्षा मंत्री बेनी गैंट्ज़ ने सिफारिश की कि नेतन्याहू प्रस्ताव स्वीकार करें।

दिसंबर, 2022 में नेतन्याहू की लिकुंड पार्टी द्वारा अल्ट्रा-नेशनलिस्ट और अल्ट्रा-ऑर्थोडॉक्स पार्टियों के साथ मिलकर काम करने के बाद फिलिस्तीनियों के साथ इज़रायल के संबंध खराब हो गए थे। उनके विरोधियों ने तब कहा था कि नेतन्याहू को कट्टरपंथी पार्टियों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था क्योंकि उनके पूर्व उदारवादी सहयोगियों ने उनकी सरकार में भाग लेने से इनकार कर दिया था। इसकी वजह यह थी कि वे रिश्वतखोरी, धोखाधड़ी और विश्वासघात के आरोपों में मुकदमे का सामना कर रहे थे।

उनके वर्तमान सहयोगी यूनाइटेड टोरा ज्यूडिज़्म, शास, ओत्ज़मा येहुदित, धार्मिक विचारों वाली ज़ायोनी पार्टी और न्यू होप हैं जो मानते हैं कि 'इज़रायल की भूमि के सभी क्षेत्रों पर यहूदी लोगों का एक विशेष और निर्विवाद अधिकार है।' इसमें संयुक्त राष्ट्र फिलिस्तीन विभाजन योजना द्वारा फिलिस्तीनी अरबों को दिए गए भूमि के हिस्से शामिल हैं जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 29 नवंबर 1947 को संकल्प 181 (ढ्ढढ्ढ) के रूप में अपनाया गया था जिसने तत्कालीन मौजूदा अरब फिलिस्तीनी राज्य के भीतर इज़रायल के नए यहूदी राज्य का निर्माण किया था।

नेतन्याहू और उनके अतिराष्ट्रवादी समर्थक इस तथ्य को अनदेखा करते हैं कि यहूदी राष्ट्र को केवल ब्रिटिश मदद से पहले और बाद में अमेरिकियों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता था। वह भी विशेष रूप से इसलिए क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन संयुक्त राष्ट्र द्वारा फिलिस्तीन विभाजन के लिए सहमत हुए थे। ऐसा इसलिए है क्योंकि आधुनिक ज़ायोनीवाद के जनक थियोडोर हज़ेर्ल 1898 में जर्मनी के सम्राट कैसर विल्हेम द्वितीय और 1901 में ओटोमन सुल्तान के साथ यहूदियों को 'मातृभूमि' देने के लिए प्रस्ताव के लिए समर्थन प्राप्त करने में असमर्थ रहे थे। हैरी एस ट्रूमैन लाइब्रेरी एंड म्यूजियम में उपलब्ध कागजातों से संकेत मिलते हैं कि वे (यहूदी) 1903 में अंग्रेजों द्वारा पेश किये गए प्रस्ताव के तहत युगांडा, साइप्रस या अर्जेंटीना को स्वीकार करने के लिए भी तैयार थे।

इस मामले में रूसी यहूदी मूल के ब्रिटिश शोध वैज्ञानिक चैम वीज़मैन ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वीजमैन बाद में इज़रायल के पहले रार्ष्ट्रपति भी बने। वीज़मैन ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एसीटोन आपूर्ति के साथ ब्रिटिश सरकार की मदद की थी। उनके अनुरोध पर ही 1917 में बालफोर घोषणा जारी की गई थी जबकि फिलिस्तीन में यहूदी आबादी 6 लाख में से केवल 18 हजार (3 प्रतिशत) थी।

2 नवंबर, 1917 को ब्रिटिश विदेश सचिव सर आर्थर बालफोर ने 'यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्रीय घर की फिलिस्तीन में स्थापना' के लिए ब्रिटिश सरकार की 'यहूदी ज़ायोनी आकांक्षाओं के साथ सहानुभूति की घोषणा' से लॉर्ड लियोनेल वाल्टर रोथचाइल्ड को अवगत कराया, बशर्ते कि 'ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जो फिलिस्तीन में मौजूदा गैर-यहूदी समुदायों के नागरिक और धार्मिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सके।'

लैरी कोलिन्स और डोमिनिक लैपिएरे ने अंतरराष्ट्रीय बेस्ट-सेलर किताब 'ओ जेरूशलम' में लिखा है कि 1925 में चैम वीज़मैन ने कहा था- 'फिलिस्तीन रोडेशिया नहीं है और 6 लाख अरब वहां रहते हैं जिन्हें अपने घरों के बिल्कुल वही अधिकार हैं जैसा कि हमारे राष्ट्रीय घर के लिए हैं।' 1947 के बाद के नेतन्याहू जैसे नेताओं ने इसे नज़रंदाज़ कर दिया जिसके कारण बारहों मास चलने वाली इजरायल-फिलिस्तीनी समस्या को जन्म मिला।

ट्रूमैन कागजात ऐसे भी संकेत देते हैं कि अरब विरोध प्रदर्शनों के मद्देनजर ब्रिटेन ने स्पष्ट किया कि 'राष्ट्रीय घर' का मतलब 'यहूदी राष्ट्रीय राज्य' नहीं था। कागजात कहते हैं कि इटली, फ्रांस और अमेरिका ने सेव्रेस की संधि (1920) और लॉज़ेन की संधि (1923) पर सहमत होकर बालफोर घोषणा को ओटोमन साम्राज्य के भाग्य पर ब्रिटिश नीति के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार किया।

जब 1922 तक प्रवासन के कारण यहूदी संख्या बढ़कर 83,790 हुई तो अरबों ने विरोध किया। इस पर तत्कालीन औपनिवेशिक सचिव विंस्टन चर्चिल ने आश्वासन दिया था कि फिलिस्तीन को यहूदी राज्य में बदलने का कोई इरादा नहीं था। 1939 तक यहूदियों की संख्या 4.45 लाख के ऊपर पहुंच गई जो फिलिस्तीन की आबादी का एक तिहाई था।

5 अप्रैल, 1945 को अमेरिकी राष्ट्रपति एफडी रूजवेल्ट ने सऊदी अरब के राजा इब़्न सऊद को पत्र लिखकर आश्वासन दिया था कि 'अमेरिका द्वारा फिलिस्तीन में कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी जो अरब लोगों के लिए शत्रुतापूर्ण साबित हो सकती है।' हालांकि उनके उत्तराधिकारी ट्रूमैन ने घरेलू राजनीतिक विचारों के कारण इस नीति को बदल दिया।

अमेरिकी पत्रकार जेम्स रेस्टन के अनुसार, ट्रूमैन स्थानीय राजनीतिक विचारों से प्रभावित थे। स्थानीय राजनीतिक विचारों के समर्थक चाहते थे कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली 31 अगस्त, 1945 को फिलिस्तीन में 1 लाख यहूदियों के बड़े पैमाने पर प्रवासन की अनुमति दें। तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव अर्नेस्ट बेविन ने अफसोस जताया कि 'फिलिस्तीन मुद्दा संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थानीय चुनावों का विषय बन गया है।'

हालांकि फिलिस्तीन का समाधान खोजने के लिए एंग्लो-अमेरिकन कमेटी ऑफ इंक्वायरी में भाग लेने के लिए भी ट्रूमैन राजी हुए। समिति ने अपनी 'यूनाइटेड स्टेट्स सरकार और यूनाइटेड किंगडम में महामहिम की सरकार को रिपोर्ट' (20 अप्रैल, 1946) में अन्य बातों के साथ-साथ कहा- 'अरब पर यहूदी हावी नहीं होंगे और अरब भी यहूदियों पर हावी नहीं होंगे, फिलिस्तीन न तो यहूदी राज्य होगा और न ही अरब राज्य; अंतरराष्ट्रीय गारंटी के तहत अंतत: स्थापित होने वाली सरकार का रूप, ईसाई जगत की पवित्र भूमि और मुस्लिम और यहूदी धर्मों के हितों की पूरी तरह से रक्षा और संरक्षण करेगा।'

2 अप्रैल, 1947 को ब्रिटेन ने फिलिस्तीन के भविष्य का मामला संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूनाईटेड नेशन्स जनरल असेंबली) को स्थानांतरित कर दिया। महासभा ने समाधान के लिए भारत सहित 11 सदस्यों की एक विशेष समिति नियुक्त की। समिति ने 1 सितंबर, 1947 को दो विकल्पों की सिफारिश की थी- बहुमत की सिफारिश फिलिस्तीन को अरब और यहूदी क्षेत्रों में विभाजित करना था, जिसमें यरूशलेम अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण में रखना था जबकि भारत व अन्य अल्पसंख्यक गुट द्वारा प्रस्तावित योजना में फिलिस्तीन का एक संघीय राज्य बनाया जाना था जिसमें दो स्वायत्त राज्य शामिल थे।

अमेरिकी विदेश विभाग ने विभाजन को महत्व न देते हुए अल्पसंख्यक योजना को प्राथमिकता दी जिसे राष्ट्रपति ट्रूमैन ने खारिज कर दिया और संकल्प 181 (ढ्ढढ्ढ) पारित किया जिससे तत्कालीन मौजूदा अरब फिलिस्तीनी राज्य के भीतर इजरायल का नया यहूदी राज्य बन गया।

बाद में इजरायल ने 1967 में पूर्वी यरुशलेम, वेस्ट बैंक और गज़ा पर जबरन कब्जा कर संयुक्त राष्ट्र की इस योजना का उल्लंघन किया। तब से अरब भूमि पर इज़रायल अवैध यहूदी बस्तियों का विकास कर रहा है और फिलिस्तीनियों को जबरन बेदखल कर रहा है तथा उन्हें शरणार्थी बता रहा है।

(लेखक कैबिनेट सचिवालय के पूर्व विशेष सचिव हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


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