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सत्र छोटा करके इस सबसे बड़ी संवैधानिक संस्था को भी खत्म करने की तैयारी

संसद का सत्र अभी कुछ साल पहले तक मीडिया के लिए सबसे बड़ी खबर हुआ करता था। मगर अब प्रधानमंत्री सदन में आते नहीं

सत्र छोटा करके इस सबसे बड़ी संवैधानिक संस्था को भी खत्म करने की तैयारी
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  • शकील अख्तर

संसद ही एक ऐसी जगह होती है जहां केवल विपक्ष ही नहीं सत्ता पक्ष के लोग भी सरकार से सवाल पूछते हैं। प्रश्नकाल में अच्छे- अच्छे मंत्री भी कई बार लाजवाब हो जाते थे। सदस्य तैयारी के साथ आते थे। अपने क्षेत्र के बारे में पूछे गए सवालों के साथ तथ्यात्मक सप्लीमेंट्री सवाल लाते थे। मगर अब प्रश्नकाल चलता ही नहीं।

संसद का सत्र अभी कुछ साल पहले तक मीडिया के लिए सबसे बड़ी खबर हुआ करता था। मगर अब प्रधानमंत्री सदन में आते नहीं। प्रधानमंत्री सदन के नेता कहलाते हैं। जिस सदन से होते हैं। नरेन्द्र मोदी लोकसभा में नेता सदन हैं। मगर वे संसद में होते हुए भी सदन में नहीं आते। ऐसा पहले कभी नहीं होता था। मनमोहन सिंह से लेकर वाजपेयी और सभी प्रधानमंत्री पूरे संसद सत्र के दौरान दोनों सदनों में रहते थे। अपने मंत्रालय से संबंधित सवालों के जवाब देते थे। और विपक्ष द्वारा उठाए गए अन्य सवालों पर भी बोलते थे। संसद सत्र खबरों से भरपूर हुआ करता था।

मगर अब संसद की प्रेस गैलरी भी खाली पड़ी रहती है। प्रधानमंत्री नहीं होते, सरकार किसी विषय पर चर्चा को तैयार नहीं होती, पीठासीन अधिकारी सत्र चलाने के बदले उसे जल्दी से स्थगित करने का तरीका अपनाते हैं, नतीजा शुरू होने के कुछ ही देर बाद सदन स्थगित। और सदन के कम समय चलने के बाद अब स्थिति ऐसी आ गई है कि सरकार सत्र भी कम अवधि का बुलाने लगी है।

सोमवार से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो रहा है। मगर सिर्फ तीन हफ्ते का। एक दिसम्बर से शुरू होगा और 19 दिसम्बर को खत्म। विपक्ष ने इस पर सवाल उठाया है कि सरकार जवाबदेही से बचने के लिए संसद का सत्र छोटा कर रही है।

संसद ही एक ऐसी जगह होती है जहां केवल विपक्ष ही नहीं सत्ता पक्ष के लोग भी सरकार से सवाल पूछते हैं। प्रश्नकाल में अच्छे- अच्छे मंत्री भी कई बार लाजवाब हो जाते थे। सदस्य तैयारी के साथ आते थे। अपने क्षेत्र के बारे में पूछे गए सवालों के साथ तथ्यात्मक सप्लीमेंट्री सवाल लाते थे। मगर अब प्रश्नकाल चलता ही नहीं।

संसद कवर करने वाले पत्रकारों के लिए प्रश्नकाल सबसे ज्यादा खबरों वाला और जीवंत एक घंटा हुआ करता था। हर पत्रकार उस समय वहां रहने की कोशिश करता था। उसके बाद जीरो आवर ( शून्य काल) का एक घंटा। जहां सदस्य बिना पूर्व नोटिस के लोकहित का कोई मुद्दा उठा सकता था।

दोनों सदनों की प्रेस गैलरी इन दो घंटों में पूरी भरी रहती थी। मगर अब खाली ही नहीं कई बार बिना एक भी पत्रकार के भी होती है। संसद का यह रूप बहुत ही दुखद और चिंताजनक है। संसद ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहां सरकार को जवाब देना ही पड़ता है। मगर अब कम अवधि के संसद सत्र बुलाकर सरकार यहां भी जवाबदेही से बच रही है।

संसदीय लोकतंत्र में आदर्श स्थित यह मानी जाती है कि साल में कम से कम सौ दिन संसद चले। मगर अब तो इसके आधे दिन भी नहीं चलती। और यह केवल संसद के लिए नहीं है सभी विधानमंडलों के लिए है। मगर विधानसभाओं की हालत तो और बुरी है। वहां तो हफ्तों के नहीं दिनों के सत्र होने लगे हैं। अगर संविधान में बजट संसद और विधानमंडलों से पास करवाने की मजबूरी नहीं होती तो शायद सरकारें सत्र बुलाती ही नहीं।

संसद और विधानमंडल ही ऐसी जगह हैं जहां सरकारों को कानूनन परंपराओं के हिसाब से जवाब देना ही होता है। मगर अब सदन स्थगित कर दो। सत्र चलने ही न दो। यह एक नया चलन शुरू हुआ है जहां सत्ता पक्ष ही सदन नहीं चलने देता। पहले विपक्ष यह काम करता था। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज और राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने यूपीए के शासन काल के समय यह कहा था कि सदन नहीं चलने देना भी विपक्ष का अधिकार है। एक लोकतांत्रिक तरीका है। मगर अब उन्हीं की पार्टी सत्ता में आ गई है तो सत्ता में रहते हुए सदन नहीं चलने देती।

निश्चित रूप से ही इसका एक कारण लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का प्रभावी परफार्मेंस है। राहुल पहले भी बोलते थे। अच्छा बोलते थे। मगर पिछले साल जून से जब से राहुल नेता प्रतिपक्ष बने हैं उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की नाक में दम कर रखा है। यहां तक बोल दिया कि अगली बार जब में बोलूंगा तो प्रधानमंत्री मेरे सामने बैठेंगे नहीं।

राहुल जनता के सारे सवाल उठा रहे हैं। और प्रधानमंत्री वैसे तो आते नहीं मगर जब कभी आकर बैठ जाते हैं तो नेता प्रतिपक्ष के किसी सवाल का जवाब उनके पास नहीं होता है। प्रधानमंत्री तो पत्रकारों के सवाल के जवाब देना तो दूर उनके सवाल ही नहीं लेते हैं। प्रधानमंत्री मोदी प्रेस कान्फ्रेंस तो करते नहीं। सब प्रधानमंत्री करते थे। जिन्हें मौन कह कहकर मोदी ने सरकार बना ली वे मनमोहन सिंह भी करते थे। और हर सवाल का जवाब देते थे। मगर मोदी ने 11 साल में एक भी प्रेस कान्फ्रेंस नहीं की। जवाब देने का सवाल ही नहीं।

यह मौका आता है जब वे पत्रकारों के सामने होते हैं। परंपरा है कि सत्र के पहले दिन प्रधानमंत्री पत्रकारों से बात करते हैं। मोदी सामने तो आते हैं मगर अपनी बात कहकर निकल जाते हैं।

11 साल में हर बार ऐसा ही किया। साल में तीन सत्र होते हैं। बजट सत्र,मानसून सत्र और यह शीतकालीन सत्र। इनके पहले दिन सुबह दस बजे प्रधानमंत्री संसद परिसर में पत्रकारों से बात करते थे। आम तौर पर संसद में क्या रहने वाला है, सरकार कौन से मुख्य विधेयक लेकर आने वाली है आदि पर। या देश के या अन्तरराष्ट्रीय किसी बड़े तात्कालिक मुद्दे पर भी।

प्रधानमंत्री पहले अपनी बात कहने के बाद पत्रकारों के सवालों का जवाब देते थे। मगर मोदी सिर्फ अपनी बात कहकर चल देते हैं। और अपनी बात में भी विपक्ष पर आरोप।

एक दिसबंर सोमवार को भी देखना होगा कि प्रधानमंत्री क्या कहते हैं। विपक्ष पर क्या क्या आरोप लगाते हैं, क्या सलाहें देते हैं। पत्रकार कैमरे हमेशा की तरह होंगे मगर बस अब वह उम्मीद किसी को नहीं बची है जो पहले थोड़ी हुआ भी करती थी कि शायद इस बार प्रधानमंत्री किसी एकाध सवाल का जवाब दे दें। अब कोई सवाल पूछता ही नहीं है। उनका इकतरफा संवाद सुनकर चला आता है।

प्रधानमंत्री इस तरह गैर जवाबदेह हो सकते हैं मोदी के आने से पहले किसने सोचा था? लोकतंत्र के लिए यह कितना बड़ा खतरा है अब तो इस पर भी बात नहीं हो रही है।

वह कहते हैं ना ज्यादा बड़ी तकलीफ हो जाती है तो उससे कम वाली याद नहीं आती। तो अब सबसे बड़ी समस्या यही खड़ी कर दी है कि लोकतंत्र का जो मूल आधार है वोट वह भी जनता के पास रहेगा या नहीं।

एसआईआर की प्रक्रिया ने जनता के वोट के अधिकार पर ही सवाल लगा दिया है। खुद जनता से कहा जा रहा है कि वह यह साबित करे कि वह वोटर है कि नहीं। ऐसा कभी नहीं हुआ।

बिना वोटर के लोकतंत्र या कहें अपने मनचाहे वोटरों के साथ लोकतंत्र इस समय का सबसे बड़ा सवाल है। संसद में विपक्ष यह उठाने की तैयारी कर रहा है। बीएलओ पर काम का अत्यधिक दबाव और उनकी लगातार हो रही मौतें, एसआईआर की अवधि चार दिसंबर से आगे बढ़ाने की मांग, चुनाव आयोग की पक्षपातपूर्ण भूमिका, वोट चोरी यह सारे सवाल संसद में उठेंगे। मगर जवाब कितने का आएगा यह कहना मुश्किल है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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